कुछ संस्थानों के छात्र कोविड-19 के दौरान लैब मे रिसर्च कर रहे हैं। उन्हें भी फेलोशिप नही मिल पा रही है जिसके कारण उन्हें आर्थिक परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। अनेक शोधार्थियों ने यह भी बताया है कि वो लॉकडाउन के कारण अपनी एनुअल रिसर्च प्रोग्रेस रिपोर्ट जमा ही नहीं कर पाए हैं। फारवर्ड प्रेस की खबर
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तीन बार डेडलाइन के बावजूद भारत सरकार द्वारा फेलोशिप की राशि में कोई वृद्धि नहीं किए जाने से देश भर के रिसर्च स्कॉलर्स आंदोलित हैं। यदि सरकार ने 15 जनवरी तक उनकी मांगें नहीं मानी तब वे 16 जनवरी से दिल्ली में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के समक्ष बेमियादी प्रदर्शन करेंगे
प्रमुख कॉलेजों व संस्थानों में दाखिला लेने की इच्छा हर छात्र की होती है, लेकिन सीमित सीटें होने की वजह से सभी की इच्छा पूरी नहीं हो पाती है। नाउम्मीद होने की जरूरत नहीं है, इसके अलावा भी बेहतर कई विकल्प हैं, जिस पर ध्यान देने की जरूरत है। विस्तृत जानकारी दे रहे हैं कुमार समीर :
Forward Press also publishes books on Bahujan issues. Forward Press books shed light on the widespread problems as well as the finer aspects of Bahujan (Dalit, OBC, Adivasi, Nomadic, Pasmanda) society, culture, literature and politics
वर्तमान सरकार द्वारा शिक्षा व्यवस्था के साथ छेड़छाड़ और छात्रवृत्तियों को समाप्त करने से कल्याणकारी राज्य की स्थापना तो दूर की बात है, यह एससी, एसटी, पिछड़ों व अल्पसंख्यक समुदायों में सरकार के प्रति रोष पैदा करेगा। जिस प्रकार उँची-नीची जमीन से अच्छी फसल पैदा नहीं हो सकती उसी प्रकार असमान विकास और संसाधनों के असमान वितरण से सामाजिक समानता व न्याय स्थापना नहीं हो सकती
The way the government is going about curtailing the facilities given to students is not in keeping with the concept of welfare state. This would only make the SC, ST, OBC and minority communities resentful towards it. Just as a healthy crop cannot grow on uneven land, an unequal division of resources cannot bring about social equality and justice
अब विश्वविद्यालयों में एमफिल और पीएचडी करने वाले दलित छात्रों की भरमार है और लगभग हर फैकल्टी में दलित प्रोफेसर हैं। वे रीडर भी हैं, डीन भी हैं, विभागाध्यक्ष भी हैं, निदेशक भी हैं और कुलपति भी हैं और अगले दस-बीस सालों में इतना कुछ होने वाला है कि विश्वविद्यालयों में सवर्ण प्रभुओं की स्थिति न नियंत्रक की रह पाएगी और न निर्णायक की। द्विज लेखकों की असली चिंता यही है