पृथक झारखंड राज्य की मांग को लेकर जुटे आदिवासियों की शहादत की गाथा सुनाते हुए विशद कुमार लिखते है कि यह एक ऐसा आंदोलन था जिसमें आजादी के मात्र साढ़े चार महीने बाद यानी 1 जनवरी 1948 को ही खरसावां हाट बाजारटांड़ में पुलिस फायरिंग में सैकड़ों आदिवासी मारे गए
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देश में अब तक कुल 48 लोगों को भारत रत्न से सम्मानित किया जा चुका है। इनमें 66 फीसदी से अधिक अकेले द्विज हैं। यदि उच्च जातीय हिंदू-मुस्लिम को मिलाकर देखें, तो भारत रत्न पाने वालों में 80 फीसदी संख्या इन्हीं की है। इसका मतलब यह नहीं कि अन्य वर्गों में इस सम्मान के हकदार नहीं हुए; हुए, पर सम्मान नहीं मिला
झारखंड के रूप में पृथक राज्य की मांग 1920 से ही शुरु हो गयी थी। करीब अस्सी वर्षों तक राजनीतिक संघर्ष के बाद यह अस्तित्व में आया भी तो, बीते 18 वर्षों में न तो नेताओं का चरित्र बदला है और न ही आदिवासियों की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक हिस्सेदारी। बता रहे हैं विशद कुमार :
Forward Press also publishes books on Bahujan issues. Forward Press books shed light on the widespread problems as well as the finer aspects of Bahujan (Dalit, OBC, Adivasi, Nomadic, Pasmanda) society, culture, literature and politics
आदिवासी लेखक ग्लैडसन डुंगडुंग ने आदिवासी अस्मिता के संघर्ष और उनके अस्तित्व पर बहुत लिखा है और ख़ुद भी संघर्षरत हैं। उनका कहना है कि प्राकृतिक सम्पदा के लिए आदिवासियों को नक्सली बताकर मारा जा रहा है। समाजसेवी एवं लेखक विद्या भूषण रावत ने उनसे विस्तृत चर्चा की। प्रस्तुत है संपादित अंश :
Adivasi author Gladson Dungdung writes prolifically on Adivasis’ struggles for their identity and on their existence. He tells Vidya Bhushan Rawat about the challenges facing his community
भारतीय सिविल सेवा को ठोकर मारने वाले सुभाष चन्द्र बोस अकेले व्यक्ति नहीं थे। जयपाल सिंह मुंडा ने भी ऐसा किया था जो बाद में संविधान सभा में आदिवासियों की आवाज बने। यहाँ उन्होंने भारतीय समाज की मुख्यधारा में फैले जातिवाद और पितृसत्ता के खिलाफ आवाज उठाई। उनके जीवन के कतिपय पक्षों पर प्रकाश डाल रहे हैं अतुल कृष्ण बिस्वास :
It wasn’t Subhash Chandra Bose alone who turned down the Indian Civil Service. Jaipal Singh Munda did, too, and went on to become the voice of the Adivasis in the Constituent Assembly, where he spoke up against casteism and patriarchy in mainstream Indian society. Atul Krishna Biswas looks back at his life