यह भारत की एक ऐसी सच्चाई है जिस पर शायद ही कभी विचार किया गया हो। बहुजन समाज के उत्पीड़न में पुलिस की भूमिका, विचाराधीन, सज़ायाफ़्ता और उम्रक़ैद तथा फांसी की सज़ा पाये लोगों को कभी भी इस दृष्टि से नहीं देखा गया कि क्या वास्तव में उनकी जीवन-स्थितियां अपराध के नजदीक हैं? सवाल उठा रहे हैं रामजी यादव