यदि हम एक अपवाद के रूप में ‘चांद’ की रेडिकल पत्रकारिता को छोड़ दें, तो इस काल की संपूर्ण हिंदी पत्रकारिता ने दलित प्रश्न को गांधी की हिंदू दृष्टि से ही देखा था, उसने डॉ. आंबेडकर की दलित-मुक्ति की दृष्टि से उस प्रश्न को बिल्कुल नहीं देखा। पढ़ें, कंवल भारती के विस्तृत आलेख का समापन अंश
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दलित चेतना, सहानुभूति और स्वानुभूति लेखन में अंतर एवं दलित साहित्य की भाषा जैसे विषयों पर ओमप्रकाश वाल्मीकि ने तार्किक ढंग से अपने विचार प्रस्तुत किये हैं, जो तर्कपूर्ण होने के साथ-साथ सठीक भी हैं। किंतु कुछ ऐसे संदर्भ हैं, जिनके बारे में उन्होंने अतार्किक सवाल अवैज्ञानिक ढंग से भी उठाये हैं, जो उनकी आलोचना दृष्टि पर सवाल खड़े करती हैं। बता रही हैं ज्योति पासवान
ओमप्रकाश वाल्मीकि की पहचान एक दलित कवि, कहानीकार अथवा दलित रचनाकार के सीमित दायरे में समेट दी गई। ऐसा साहित्य के क्षेत्र में तेजी से वैश्विक स्तर पर पहचान पाते उनके साहित्य तथा दुनिया भर में फैली उनकी ख्याति पर अंकुश लगाने हेतु किया गया या फिर साहित्यिक हलकों में भीतर तक फैले जातीय पूर्वाग्रह के कारण हुआ, कह पाना मुश्किल है। स्मरण कर रही हैं पूनम तुषामड़
हिंदी नवजागरण में, चाहे वह उन्नसीवीं शताब्दी का हो या बीसवीं शताब्दी का, दलित कहीं केंद्र में नहीं है। इससे यह बात साफ हो जाती है कि शूद्र और अछूत को इस नवजागरण के प्रवर्त्तक हिंदू समाज का अंग नहीं मानते थे। वे अपने रचनाकर्म में हिंदुत्व और हिंदू धर्मशास्त्रों पर जिस तरह मुग्ध नजर आते हैं, उससे दलित-शूद्रों का जीवन उनके लिये चिंतनीय हो भी कैसे सकता था? पढ़ें, कंवल भारती के इस विस्तृत आलेख का पहला भाग
जगदीश पंकज ऐसे ही नवगीतकार हैं, जिनके नवगीतों में न केवल उनका समय पूरी शिद्दत से रेखांकित हुआ है, बल्कि धर्म, जाति, समाज, राष्ट्र और सत्ता की परख भी उनके मानवीय और लोकतांत्रिक विवेक से हुई है। बता रहे हैं कंवल भारती
उन्मेष के दोनों कविता-संग्रहों में ‘छिछले प्रश्न : गहरे उत्तर’ कविता को छोडकर, जिसमें ‘कौन जात हो भाई’ के अंतर्गत चुनाव के बहाने दलित-व्यथा की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है, दूसरी कोई कविता जातीय दंश की नहीं है, जो उन्हें ओमप्रकाश वाल्मीकि और मलखान सिंह जैसे सशक्त दलित कवियों की परंपरा से जोड़ सके। बता रहे हैं कंवल भारती
‘यह ओबीसी और बहुजन साहित्य भला क्या है? एक प्रभुताशाली सुविधाभोगी वर्ग है और एक वंचित और शोषित समुदाय है, उसमें दलित हो, ओबीसी या बहुजन समुदाय हो, सबको एक ही जगह रखना चाहिए। साहित्य हमेशा वंचितों व शोषितों के पक्ष की बात करता है और उनके साथ खड़ा होता है।’ पढ़ें, प्रसिद्ध साहित्यकार सुधा अरोड़ा से यह बातचीत
“What is this talk of OBC and Bahujan literature? There is one dominant and privileged class. There is another deprived and exploited class. The latter, whether they are Dalits, OBCs or Bahujans – they should be placed together. Literature always speaks for the deprived and the exploited and stands by them,” says writer Sudha Arora
देश का बंटवारा मनुवादियों ने कूटनीतिक ढंग से किया। उन्होंने बंगाल के नमोशूद्र बहुल चार जिलों को पूर्वी पाकिस्तान में ढकेल दिया ताकि नमोशूद्र और महार लोग मिलकर मनुवादियों के लिए बाधा उत्पन्न ना कर पाएं। देश के बंटवारे के बाद जब उन्हें इस क्षेत्र में आना पड़ा, वे शरणार्थियों का जीवन जीने के लिए विवश थे। पढ़ें, बांग्ला दलित साहित्य अकादमी के दो साल पूरे होने पर अकादमी के अध्यक्ष व विधायक मनोरंजन ब्यापारी से ज्योति पासवान की यह बातचीत
‘The Dalit literature in Bangla is the result of the work done over the past 20 years. Dalit communities in other parts of the country didn’t have to face the horrendous fallout of the Partition. They got jobs and they wrote literature’, says Manoranjan Byapari
दलित कहानीकार श्यौराज सिंह बेचैन की कहानियों में 1990 के दशक का समय मुखरित रूप में सामने आता है। अपने पुनर्पाठ में कंवल भारती ने बेचैन की कहानियों में इसी कालखंड के दौरान की राजनीतिक और सामाजिक घटनाओं को विश्लेषित किया है। पढ़ें, इस आलेख श्रृंखला की यह अंतिम कड़ी
श्यौराज सिंह बेचैन की कहानियों का रचना-काल 1990 और 2020 के बीच का है। इस प्रकार दलित कहानी में उनका समय ओमप्रकाश वाल्मीकि के बाद का है, जब सरकारी आरक्षण से नौकरियों में दलितों की दूसरी-तीसरी पीढ़ी तैयार हो रही थी और सवर्णों में उसके विरुद्ध रोष पैदा हो रहा था। बता रहे हैं कंवल भारती