पितृसता, जातिवाद, राजशाही और धार्मिक पाखंड के गंठजोड़ को अपनी कविताओं के माध्यम से जर्बदस्त शिकस्त देते विद्रोही समकालीन हिन्दी काव्य में अपने किस्म के विरल कवि थे, जिन्हें उनकी रचनात्मकता के लिए सम्मानित किया जाना था, हिन्दी समाज ने उन्हें विक्षिप्त होने के लिए छोड़ दिया। अरुण नारायण की समीक्षा