जोतीराव फुले की ‘गुलामगिरी’, ‘तृतीय रत्न’ और ‘किसान का कोड़ा’ जैसी रचनाओं को आज डेढ़ शताब्दी से अधिक समय बीत चुका है। किंतु पिछले कुछ वर्षों में विकास ने जो प्रतिगामी राह पकड़ी है, उससे फुले और उनकी रचनाओं की प्रासंगिकता जितनी तब थी, उतनी ही आज भी है। बता रहे हैं ओमप्रकाश कश्यप