हिंदी नवजागरण में, चाहे वह उन्नसीवीं शताब्दी का हो या बीसवीं शताब्दी का, दलित कहीं केंद्र में नहीं है। इससे यह बात साफ हो जाती है कि शूद्र और अछूत को इस नवजागरण के प्रवर्त्तक हिंदू समाज का अंग नहीं मानते थे। वे अपने रचनाकर्म में हिंदुत्व और हिंदू धर्मशास्त्रों पर जिस तरह मुग्ध नजर आते हैं, उससे दलित-शूद्रों का जीवन उनके लिये चिंतनीय हो भी कैसे सकता था? पढ़ें, कंवल भारती के इस विस्तृत आलेख का पहला भाग