बहुजन साहित्य निरा साहित्यिक आयोजन नहीं है। न ही वह केवल समाजार्थिक असमानता के प्रतिकार का स्वर है। अपने समग्र रूप में वह वर्चस्वकारी संस्कृति के विरुद्ध जनसाधारण का, उन लोगों की ओर से जो धर्म, संस्कृति, जातीयता आदि के आधार पर किसी भी प्रकार के शोषण का शिकार हैं—आजादी और समानता के लिए किया गया शंखनाद है। इस सच से डॉ. रामशरण शर्मा जैसे प्रगतिशील इतिहासकारों ने भी मुंह चुराया है। ओमप्रकाश कश्यप का विश्लेषण :