भारतीय फिल्म जगत में अब भी आदिवासी समाज और उसकी संस्कृति को नकारात्मक तरीके से प्रस्तुत किया जाता है। उन्हें असभ्य और हिंसक दिखाया जाता है। रोमांस और आइटम डांस के दृश्यों में कभी-कभार जो आदिवासी संस्कृति नजर आती भी है, उसका स्वरूप विद्रूप ही होता है। बता रहे हैं राहुल खड़िया
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यह सही है कि फिल्में मुनाफा कमाने के उद्देश्य से बनाई जाती हैं और उनसे किसी सामाजिक क्रांति की उम्मीद नहीं की जा सकती। लेकिन मुनाफे के नाम पर नायक का केंद्रीय चरित्र सिर्फ उंची जाति का हो तो यह फिल्मकारों का जातिवाद ही है। बता रहे हैं कुमार भास्कर
समाज को आईना दिखाने का दावा करना वाले भारतीय सिनेमा, में संविधान निर्माण के इतने वर्षों बाद भी न तो दलित की छवि बदली है और ना ही उसे वह सम्मान मिल पाया है, जो दूसरे वर्गों को प्राप्त है।
In the world of Indian cinema – which claims to show a mirror to society – the image of the Dalits remains unchanged and they are never shown as getting the same respect as other sections of the society