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लेखक हरेराम सिंह बता रहे हैं ओबीसी रचनाकारों के बारे में, जिन्होंने वही रचा-लिखा जो उन्होंने भोगा। उनकी रचनाओं में काल्पनिक पात्र नहीं होते। उनकी गवाही समाज देता है। साथ ही यह भी कि ओबीसी रचनाकारों ने अपनी रचनाओं से साहित्य जगत को समृद्ध किया है और इस कारण साहित्य पहले से अधिक लोकतांत्रिक हुआ है
क्या राष्ट्र शब्द आज भी पहेली बना हुआ है? शायद राष्ट्रवाद के शोर ने उसके अर्थ को ही पलटकर रख दिया है। देश और राष्ट्र के फर्क के अलावा भारतीय समाज के पहचान को लेकर 31 जुलाई 2019 को मुंशी प्रेमचंद की जयंती के मौके पर प्रतिष्ठित साहित्यिक मासिक ‘हंस’ की मेजबानी में दिल्ली में जानेमाने विचारक एक मंच पर होंगे। बता रहे हैं कमल चंद्रवंशी
Besides Hans, his participation in literary-cultural events in India and abroad and his insightful interventions in discourses on women and Dalits kept Yadav constantly in the limelight
देश-विदेश के साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों में भागीदारी और ‘हंस’ के संपादन के साथ-साथ स्त्री व दलित विमर्श में सार्थक हस्तक्षेप के कारण राजेंद्र यादव लगातार चर्चा में बने रहे
OBC is a dynamic concept, wherein castes are being transformed into class, and OBC Literature accepts this dynamic concept, says Ramkrishna Yadav, in his review of the book OBC Sahitya Ka Darshanik Aadhaar
ओबीसी की अवधारणा एक गतिशील अवधारणा है, जहाँ जातियों का वर्ग में रूपांतरण हो गया है और हो रहा है। ओबीसी साहित्य इसी प्रगतिशील अर्थ में ओबीसी की अवधारणा को स्वीकार करता है। ‘ओबीसी साहित्य का दार्शनिक आधार’ पुस्तक की समीक्षा कर रहे हैं रामकृष्ण यादव :
The fundamental thrust of a society is not based on any particular caste or community but on the basic problems of that society. Humanism is its core and all ideologies and literatures aim at preserving this humanism
समाज का स्थायी भाव किसी खास जाति या संप्रदाय की बजाय, समाज की मूलभूत समस्याओं से निर्मित होता है। उसमें मनुष्यता का भाव केंद्रीय भाव होता है और साहित्य या विचार इसी मनुष्यता के भाव को बचाने का प्रयास करते हैं
Jotiba Phule was an OBC and so was Periyar. In North India, Lalaisingh Yadav and Ramswaroop Verma were strong advocates of the Dalit movement
जोतिबा फुले ओबीसी थे। साहूजी महाराज ओबीसी थे। पेरियार ओबीसी थे और उत्तर भारत में ललईसिंह यादव, रामस्वरूप वर्मा और सभी लोग दलित आंदोलन के मजबूत पक्षधर थे
Rajendra Yadav believed that it is the women and workers who are the biggest contributors to the development of languages. Scholars may claim that they corrupt the language but that is what real development of languages is all about
राजेन्द्र यादव मानते थे कि भाषा का विकास सबसे अधिक औरतें और श्रम से जुड़े लोग किया करते हैं। आचार्यगण उन्हें भले ही भाषा को भ्रष्ट करने वालों की श्रेणी में रखें, पर भाषा के विकास का सत्य यही है