दलित कविताओं के मूल में सामाजिक भेदभाव जनित पीड़ा और हर प्रकार की वंचनाएं हैं। लेकिन वे केवल इस तक सीमित नहीं हैं। दलित कविताओं में शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति के स्वर भी हैं। द्विजवादी काव्य के बरक्स दलित कविताओं के विषय, शिल्प और निहितार्थ बता रहे हैं कालीचरण ‘स्नेही’
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अपनी आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ में डॉ. तुलसीराम ने एक साथ दो पीड़ाओं की अभिव्यक्ति की है। इनमें से एक तो जातिगत भेदभाव जनित पीड़ा है जो उन्हें समाज में झेलनी पड़ी। वहीं दूसरी पीड़ा उनके एक आंख के चले जाने के बाद झेलनी पड़ी। खास यह कि यह पीड़ा देने वालों में उनका अपना परिवार भी शामिल रहा जो उन्हें ‘कनवा’ कहकर संबोधित करता था। बता रही हैं संध्या कुमारी
प्रगतिशील केवल सामाजिक न्याय की लकीर पीट रहे हैं। उन्हें डर है कि दलित और स्त्री विमर्श की मार तो वे झेल ही नहीं पा रहे हैं, ओबीसी विमर्श स्थापित हो गया तो उनका क्या हश्र होगा
The “progressives” are only harping on social justice. Already, unable to bear the onslaught of Dalit and Women discourse, they fear what would happen to them if the OBC discourse gains ground.