प्रिय दादू,
कुछ दिन पहले, मुझे मेरी नौकरी में स्थाई किया गया। मुझे मेरे बॉस व सभी सहकर्मियों ने बधाई दी। उसी शाम, जब मैं एक बर्थडे पार्टी में थी, मुझे फोन पर सूचना मिली कि मेरे एक अजीज मित्र की कैंसर से मौत हो गई है।
इस तरह की परिस्थिति में हम अपना भावनात्मक संतुलन कैसे बनाएं रखें?
सप्रेम,
शांति
प्रिय शांति,
मैं जब तुम्हारी उम्र का या तुमसे छोटा था, तब मैं ऐसे अनुभवों से नहीं गुजरा। परंतु जैसे-जैसे मेरी आयु बढ़ती गई, इस तरह के अनुभवों से मेरा साबका पडऩे लगा।
बात कई साल पहले की है। लगभग सत्रह साल के लंबे संघर्ष के बाद, मेरी जिंदगी ढर्रे पर आती दिख रही थी। मेरी नई नौकरी में मुझे पदोन्नति मिली थी। उसी शाम, जब मैं अपने एक मिलनसार पड़ोसी के घर जन्मदिन की पार्टी में था, मुझे टेलीफोन पर खबर मिली कि मेरे एक अत्यंत प्रिय रिश्तेदार की हत्या हो गई है।
मैंने बड़ी मुश्किल से स्वयं पर नियंत्रण किया और मेजबान से कहा कि चूंकि मैं ठीक महसूस नहीं कर रहा हूं (जो कि सही था) इसलिए मैं वहां से जा रहा हूं। ठीक महसूस न करने का असली कारण मैंने उन्हें नहीं बताया क्योंकि उससे पार्टी खराब हो जाती। घर पहुंचने के बाद मैं फूटफूट कर रोया।
मैंने पाया है कि नकारात्मक भाव, लगभग हमेशा सकारात्मक भावों पर भारी पड़ते हैं। चाहे अच्छी चीज कितनी ही महत्वपूर्ण और खराब चीज कितनी ही महत्वहीन हो, बुरी चीज मेरे मनो-मस्तिष्क पर छा जाती हैं।
दूसरी ओर, मैं कई ऐसे लोगों को जानता हूं, जिन्हें दु:ख छू तक नहीं पाता।
बात यह है कि जो लोग इतने संवेदनाहीन (या ‘सामान्य’) नहीं होते, उन्हें भी ऐसा बनाने के लिए हमारी संस्कृति ने ‘ध्यान’ सहित कई तकनीकें विकसित की हैं और इन तकनीको को हमारे समाज में बहुत महत्व दिया जाता है। परंतु यह मानवीय नहीं है। संवेदनहीनता, जीते-जी मर जाने जैसा है।
भावुक बने रहें
मैं यह कैसे कह सकता हूं कि ‘ध्यान’ या अन्य तकनीकों के जरिए स्वयं को स्थितप्रज्ञ बनाने से भावुक होना अधिक मानवीय है? मैं तुम्हें इसके दो कारण बताता हूं। पहला तार्किक और दूसरा परालौकिक।
परालौकिक कारण यह है कि हमें दु:ख और कष्ट से मुकाबला करने के दो प्रतिस्पर्धी व विरोधाभासी तरीकों में से एक को चुनने में हमारी मदद करने के लिए मार्गदर्शी सिद्धांत या मानक तय करने होंगे। अगर एक गुरू कहते हैं कि सबसे बेहतर तरीका, दु:ख को महसूस ही न करना है और दूसरे यह कहें कि हमें दु:ख को पूरी शिद्दत से महसूस करना चाहिए तो स्पष्टत: दोनों सही नहीं हो सकते। अपने मित्र लाजस्र्स की मृत्यु पर ईसा मसीह बहुत रोये। परंतु उसके बाद, उन्होंने हालात को सुधारने का बीड़ा भी उठाया।
यहां से हम सीधे तार्किक कारण की ओर जा सकते हैं। अगर हम खुशी या दु:ख को महसूस करना बंद कर देंगे तो हमारे लिए दूसरों के दु:ख या खुशी को समझना असंभव हो जाएगा। और तब हम न तो दूसरों की खुशी के लिए कुछ करेंगे और ना ही उनके गम बांटेगे।
अगर हम रोने से परहेज नहीं करेंगे तो हमारा हृदय कोमल बना रहेगा। अगर हमारा हृदय कोमल नहीं होगा तो हम अपने आसपास की दुनिया को बेहतर बनाने के लिए कुछ नहीं करेंगे और जो गलत है, वह गलत ही बना रहेगा। अगर हमारा हृदय कोमल होगा तो हम अपनी क्षमतानुसार चीजों को ठीक करने का यत्न करेंगे, हममें कुछ कर गुजरने की इच्छा होगी।
दूसरे शब्दों में, ध्यान और इसी तरह की अन्य तकनिकें, जो हमने विकसित की हैं, के कारण ही हम हमारे देश में व्याप्त घोर अन्याय और दु:ख को चुपचाप सहते रहते हैं। ध्यान की तकनिकें व्यक्तिगत शांति और संतोष पाने के लिए बहुत उपयोगी हैं परंतु ये अन्याय और पीड़ा को कम करने में हमारी मदद नहीं कर सकतीं। क्या यह उन कई कारणों में से एक है, जिनके चलते कुछ राजनैतिक दल राष्ट्रव्यापी ‘ध्यान’ का कार्यक्रम चलाने को उद्यत हैं?
अब हम उस दिन के मेरे अनुभव पर लौटते हैं। मेरी पदोन्नति पर मैंने स्वयं को खुश होने से रोका नहीं। मैंने जश्न मनाया। मेरे पड़ोसी के जन्मदिन पर प्रसन्नता अनुभव करने से भी मैंने स्वयं को नहीं रोका। यह अशिष्टता और ओछापन होता। इसके विपरीत जब मैंने बुरी खबर सुनी, तब मैं खूब रोया भी।
मैंने ऐसा क्यों किया? क्योंकि मैं जानता हूं कि ‘मानव होने का अर्थ है मनोभावों को महसूस करना’। नि:संदेह दु:ख और खुशी को पूरी तरह महसूस करना, अपने दिल को उन्हें महसूस करने से रोकने से कहीं अधिक कठिन है। इसलिए हमें ईश्वर की उपस्थिति और उसकी मदद चाहिए होती है ताकि हम इतने मजबूत बन सकें कि दु:खों को झेल सकें।
तुम्हारे प्रश्न का उत्तर यह रहा-जीवन के तूफानों से जूझने का तरीका यह है कि हम जीवन की त्रासदियों और खुशियों – दोनों को पूरी शिद्दत से महसूस करें। इस तरह हम एक बेहतर मनुष्य बन सकेंगे जो अंदर से प्रसन्न होगा और दूसरों के प्रति संवेदनशील भी।
प्रिय शांति, पत्थरदिल बनने के लोभ में मत फंसो। अपने हृदय को कोमल बनाए रखो।
सप्रेम
दादू
(फारवर्ड प्रेस के मार्च, 2015 अंक में प्रकाशित )
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, सस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in