विभिन्न विश्वविद्यालयों में पिछले दो दशकों में प्राध्यापक बने आदिवासियों का अनुभव भी कम भयानक नहीं है। वे बताते हैं कि कैसे आदिवासी विषय की मेनस्ट्रीमिंग की जाती है और गैर-आदिवासी लेखकों के लेखन के बोझ तले आदिवासी विषय की आत्मा को दबा दिया जाता है। पढ़ें, अश्विनी कुमार पंकज का यह आलेख