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आदिवासी सौंदर्य-बोध और प्रतिमानों से परिचित करातीं अनुज लुगुन की कविताएं

अनुज मानते हैं कि हमें ही यह लड़ाई लड़नी होगी। हमारे लिए गीत गाने और कोई नहीं आएगा। हम साथ रहते हुए कुछ भी संभव कर सकते हैं। प्रेम करते हुए हम लड़ाई जारी रख सकते हैं और लड़ते हुए प्रेम भी कर सकते हैं। पढ़ें, डॉ. सावित्री बड़ाईक की यह समीक्षा

हिंदी कविता में सहजीविता यानि आदिवासियत को वैचारिक अवधारणा के रूप में प्रतिष्ठित करने के साथ अपनी सशक्त कविताओं के द्वारा सहजीवी सभ्यता का विकल्प प्रस्तुत करने वाले कवि अनुज लुगुन का बहुप्रतीक्षित काव्य संग्रह है– ‘अघोषित उलगुलान’। सहजीविता व स्वायत्तता के पक्षधर कवि अनुज अपनी कविताओं में इतिहास-दृष्टि की परिपक्वता, सम्पूर्ण सृष्टि की बेहतरी की स्वप्नशीलता, परिवेश के प्रति संवेदनशीलता, संवादपरक्ता के लिये जाने जाते हैं। अनुज मानते हैं कि आदिवासी कविताओं का उलगुलान वस्तुतः परंपरा और इतिहास की तहों में मौजुद प्रभु वर्ग, विजेता वर्ग के सांस्कृतिक उपनिवेशिकरण, वर्तमान सत्ता-संरचना, सभ्यता की हिंसा के विरूद्ध सहजीवी पहल है। वाचिकता में परंपरा और इतिहास की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति होती है, जो नये युग संदर्भों के साथ कागज और कलम के जरिये अभिव्यक्त हो रही है।

यह दरअसल उलगुलान का नया स्वरूप है जिसमें तीर की शक्ति कागज और कलम में उतर रही है। ‘अघोषित उलगुलान’ काव्य संग्रह को कवि ने पुरखों के गीतों को समर्पित किया है, जिनमें जंगल की लय के लिए कुर्बानी की कथाएं हैं। इस काव्य संग्रह के बीज शब्द हैं– गीत, संवाद और सहजीविता। दरअसल संवाद और प्रेम को सहजीविता के लिए अनिवार्य माना जाता है। गीतों के द्वारा संवाद स्थापित करने की आदि परंपरा है। आदिवासियों के द्वारा संघर्ष, प्रेम, प्रकृति, सहजीविता के गीत गाये जाते रहे हैं, जिनमें संवाद भी होते हैं।

वस्तुतः पारिस्थितिकी का स्वभाव बहुलता हैं और इसी को आदिवासी सहजीविता के रूप में स्वीकार करते हैं–

“कितनी शांति होती है यहां इस टीले पर
पहाड़ की तराई पर, नदी के तट पर
गीत साझा करते हुए हम सहजीवी होते हैं ….

जुगनू, तितली, फूल, पेड़, नदी, जंगल
सभी सहजीवी जानते हैं
हमारी उम्र इसी तरह बढ़ती है।”[1]

हम साथ-साथ जीना कैसे सीख सकते हैं? दरअसल इसे आदिवासी बिना किसी औपचारिक शिक्षा के धरती की पाठशाला में सीखते हैं। यह सहजीविता कवि अनुज की विश्व दृष्टि है।

‘अघोषित उलगुलान’ की कविताएं दो तरह की दुनिया को उजागर करने वाली चेतना संपन्न कविताएं हैं। एक ओर लाभ, लूट, लालच और अतिशय की आकांक्षा वाली दुनिया है, दूसरी तरफ है संतोषपूर्वक जीवन-यापन करने वाला, गीत गाने वाला, प्रकृति को बचाने वाला, अपने परिवेश के प्रति सजग व संवेदनशील रहने वाला आनंद-उल्लास में जीने वाला सहजीवी समाज, स्वायत्त समूहों का आदिवासी समाज।

दूसरी तरफ दिकू यानी गैर-आदिवासियों की दुनिया है। उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आदिवासी पूंजीपतियों के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं, क्योंकि बहुराष्ट्रीय कंपनियां जल, जंगल और जमीन पर कब्जा करना चाहती हैं। जबकि आदिवासी इनपर सिर्फ इंसानों का नहीं, बल्कि संपूर्ण जीव-जगत का सामूहिक अधिकार मानते हैं।

‘अघोषित उलगुलान’, ‘एकलव्य से संवाद’, ‘गुरिल्ले का आत्मकथन’, ‘जंगल संताल’, ‘मेरा पुनर्जन्म नहीं होगा’, ‘ससनदिरी’ आदि अनुज लुगुन की कविताएं परंपरा और इतिहास के द्वंद्व से उपजी आदिवासियत के सहजीवी-दर्शन की प्रभावी अभिव्यक्तियां हैं। इन कविताओं की बुनियाद में आदिवासी कविता के प्रतिमान, आदिवासी सौंदर्य-बोध और आलोचना की अनुगूंज भी हैं।

सहजीवी सभ्यता का विकल्प प्रस्तुत करने वाले अनुज गीतों को गणतंत्र का आधार मानते हैं। कवि अपने जंगलों और नदियों के साथ यहीं अपने जनवादी गणतंत्र का गीत गाने की आकांक्षा रखते हैं। गुरिल्ले और छापामार तरीके खूब आने पर भी पुरखो ने पहले गीत गाया। ‘मैं गीत गाना चाहता हूं’ कविता में बूढ़ा शिकारी घायल है, उसके सारे साथी मारे जा चुके हैं। वे चट्टान के टीले पर बैठकर अपनी रौंदी फसलों को देखते हैं पर वे नाउम्मीद नहीं होते। अदम्य जिजीविषा को वे मध्य भारत में पसरे चट्टानों के सदृश पाते हैं–

“मैं एक बूढ़ा शिकारी
घायल और आहत
लेकिन हौसला मेरी मुट्ठियों में है
और उम्मीद हर हमले में
मैं एक आखिरी गीत अपनी धरती के लिए गाना चाहता हूं।”[2]

इसी तरह ‘आकृतियां’ कविता में कवि ने अखड़ा, नगाड़े, मांदल और गीत को पुरखों के हथियार माना है। वे गीत गाते हुए लड़ सकते हैं और लड़ते हुए गीत गा सकते हैं। आदिवासियों के पास सर्वाधिक गीत है, पुरखा स्मृतियां हैं, जो कवि अपने समाज की वाचिकता और पुरखा स्मृतियों से गहराई से जुड़ा होता है उसकी अभिव्यक्ति निश्चय ही वर्तमान की सत्ता संरचनाओं यथा पूंजी की सत्ता, धर्म की सत्ता, राज्य सत्ता का प्रतिपक्ष होगी।

अनुज लुगुन व उनके काव्य संकलन ‘अघोषित उलगुलान’ का आवरण पृष्ठ’

‘भारत भूषण अग्रवाल सम्मान’ से सम्मानित अनुज लुगुन की कविता ‘अघोषित उलगुलान’ बेहद सशक्त कविता है, जो जल, जंगल और जमीन की स्वायत्तता के संघर्ष के लिए समूह-गान है–

“लड़ रहे हैं ये
नक्शे में घटते अपने घनत्व के खिलाफ
जनगणना में घटती संख्या के खिलाफ
गुफाओं की तरह टूटती
अपनी ही जिजीविषा के खिलाफ।”[3]

अनुज का विचार है कि आदिवासी कविता परंपरा और इतिहास के द्वंद्व से उपजी कविता है। वाचिकता के रूप में वह मौजूद थी, अब लिखित रूप में मुखर होकर सामने आ रही है। दरअसल उलगुलान 19वीं सदी के अंतिम दशकों की ऐतिहासिक घटनाएं मात्र नही हैं। उलगुलान अब भी जारी है। जहां-जहां दमन और वर्चस्व है, वहां-वहां उलगुलान है–

“लड़ रहे हैं आदिवासी
अघोषित उलगुलान में
कट रहे हैं वृक्ष
माफियाओं की कुल्हाड़ी से और
बढ़ रहे हैं कंक्रीटों के जंगल
दान्डू जाए तो कहां जाए
कटते जंगल में
या बढ़ते जंगल में।”[4]

‘एकलव्य से संवाद’ कविता के माध्यम से कवि आदिवासियों के इतिहास, उनके धनुर्विद्या की दक्षता और उनके प्रतिरोध, संघर्ष के ऐतिहासिक पक्ष को सामने रखता है। मदरा मुंडा, काण्डे हड़म, बिरसा मुंडा की तीरंदाजी में कुशलता को मुंडाओं की स्वायत्तता से जोड़ता हैं। आदिवासी दुनिया में पुरखें विशिष्ट या भिन्न नहीं हैं। आदिवासी दृष्टि में पुरखों को अलग करके नहीं देखा जाता। आदिवासी धरती की आदि पाठशाला और गीतिःओड़ा, घोटुल, आदि ज्ञान केंद्रों में प्रकृति और वरिष्ठों से देशज ज्ञान परंपरा को प्राप्त करते रहे हैं। इसलिए वे किसी व्यक्ति को गुरू न मानकर प्रकृति के उपादान यथा शेर, बाघ, हिरण, बरहा और पेड़ों की छाल के प्रति आभारी हैं, जिनसे उन्होंने तीरंदाजी में दक्षता प्राप्त की–

“एकलव्य
अब जब भी तुम आना
तीर धनुष के साथ ही आना
हां, किसी द्रोण को अपना गुरू न मानना
वह छल करता है।”[5]

अनुज अपनी कविता ‘हमारी अर्थी शाही नहीं हो सकती’ में सह अस्तित्व की भावना के साथ संपूर्ण सृष्टि के प्रति सम्मान और प्रेम का भाव रखते हैं–
“हमने चाहा कि फसलों की नस्ल बची रहे
खेतों के आसमान के साथ
हमने चाहा कि जंगल बचा रहे अपने कुल-गोत्र के साथ
पृथ्वी को हम पृथ्वी की तरह ही देखें
पेड़ की जगह पेड़ ही देखें
नदी की जगह नदी
समुद्र की जगह समुद्र और
पहाड़ की जगह पहाड़।”[6]

पुरखे जंगल की लय (संतुलन) को महत्व देते थे और इस संतुलन को बचा कर चलते थे। यह लय या संतुलन कभी टूटता नहीं था। अतः कवि जंगल की लय के लिए पुरखों की कथाओं को याद रखता है।

‘आकृतियां’ कविता में उजाले की उम्मीद कभी खत्म नहीं होती। सलवा जुडूम के दौरान अपनी मूल भूमि से पलायन करने के लिये विवश होने वाले लाखों आदिवासियों के पक्ष में कवि खड़ा है। कवि ने उम्मीदों को इन पंक्तियों में दर्शाया है–

“उन्हें उम्मीद है कि सूरज की दिशा में बढ़े भूमिगत लोग
एक दिन गुप्त ठिकानों से बाहर
सड़कों और चौराहों पर होंगे
यहीं से तय करेंगे
नदियों के लिए पहाड़
और पक्षियों के लिए पेड़ों का रास्ता।”[7]

अनुज कविता के सौंदर्य-बोध और प्रतिमानों पर कई जगह विचार करते हैं। उनके अनुसार, आदिवासी कविता में कथित मुख्य धारा के कविता के प्रतिमान काम नहीं आएंगे। कला में भी यही बात है–

“अगर तुम आना चाहो
तो आओ
हमारी नदियों पर

पंडुकों की तरह
और अपनी चोंच से
इनकी धार पर संगीत दे जाओ …

अगर ऐसा भी कुछ नहीं हुआ
तो हमारी माताओं और बहनों को
सामने खड़े पाओगे
तीर-धनुष और कुल्हाड़ी लिये हुए
हमारी कलाओं में नहीं है
कुछ भी धोखे से हासिल करना।”[8]

दरअसल तथाकथित मुख्यधारा के साहित्यकारों को लगता है कि उनके पास ही संसार के सारे आदर्श और कला साहित्य के सारे सुंदर प्रतिमान मौजूद हैं। कवि अनुज उनकी मान्यता पर सशक्त प्रतिपक्ष खड़ा करते हैं।

‘अघोषित उलगुलान’ कविता संग्रह की कविताओं में संवाद की आदि परंपरा मौजूद है। ‘गुरिल्ले का आत्मकथन’, ‘मदाईत’, ‘उन सैन्य टुकड़ियों से’, ‘तुम अगर आओ’, ‘शहर के दोस्त के नाम पत्र’, ‘पिता का एक अलिखित खत मां के नाम’ आदि कविताएं अनुज की संवादपरक कविताएं हैं। अनुज की आदिवासी कविता में संवादपरकता, सृजनात्मक गहन बेचैनी और परिवेशगत अनुभवों का परिणाम है। उनकी संवादपरकता को ‘एकलव्य से संवाद’, ‘तीतर-अस्कल संवाद’ और ‘मार्क्स-बिरसा संवाद’ कविता में भी बखूबी देखा जा सकता है।

उदाहरण के लिए ‘तीतर-अस्कल संवाद’ में अनुज लिखते हैं–

“समूचा जंगल जल रहा है
समूचा पहाड़ टूट रहा है
अब पीछे हटने के लिए और कोई जगह नहीं
अब खिसकने लायक जमीन कोई बची नहीं
हम दाना चुगने कहां जाएंगे?
हम घर बसाने कहां जाएंगे?”[9]

अनुज अपनी कविताओं के द्वारा नवउदारवाद के दौर की चुनौतियों को समझते हुए सतर्कता के साथ आत्मालोचन करते हैं, आत्मसंघर्ष करते हैं। सहधर्मियों, सहचरों की खोज करने के लिए चिंतक कवि के रूप में हमारे सामने आते हैं। सहधर्मियों की खोज, सहजीवी समाज का निर्माण कवि का वृहत उद्देश्य है, जो उनकी कविता को महत्वपूर्ण बनाता है–

“हे तीतर! अब तो उलगुलान ही रास्ता है
हे अस्कल! अब तो हूल ही उपाय है
उलगुलान के लिए सहचरों की खोज करो
हूल के लिए साथियों का जुटान करो।”[10]

जन संघर्ष और जन-आंदोलन के द्वारा ही वस्तुस्थिति में परिवर्तन लाया जा सकता है। बिरसा मुंडा ने उलगुलान का नेतृत्व किया, जिसके चलते छोटानागपुर काश्तकारी कानून बना, जिसमें आदिवासियों की जमीनों की सुरक्षा हो पाई। ‘मार्क्स-बिरसा संवाद’ इसी भावभूमि की कविता है। इस कविता में जंगलों, आदिवासियों, अखड़ा, मांदल, घोटुल, सहजीविता के बारे में मार्क्स, एंगेल्स और धरती आबा बिरसा मुंडा के बीच संवाद है–

“हे बिरसा! घोटुल तो आदिम संस्था है
हे धरती आबा! सहजीविता तो कम्यून का दर्शन है
हे मार्क्स! अगर सहजीविता कम्यून का दर्शन है
हे एंगेल्स! अगर सहचरों के बिना कम्यून संभव नहीं
तो फिर हमें असभ्य क्यों कहा जाता रहा?
क्यों हमारे गीतों को बेसुरा कहा गया?
क्यों हमारी लय ठुकराई जाती रही?”[11]

अनुज अपने काव्य संकलन ‘अघोषित उलगुलान’ की कई कविताओं में अपने अनुभव, अपनी स्मृतियों, अपने परिवेश के साथ इतिहास बोध, आदिवासी जीवन संस्कृति से बिंबों और प्रतीकों का चयन करते हैं। आदिवासी संघर्ष को सत्ता द्वारा दबाने के प्रयास का प्रतीक है– गंगाराम कलूंडीया। एकलव्य, झानु बुआ, दाण्डु, रोबड़ा सोरेन भी प्रतीकात्मक चरित्र हैं, जो कवि की काव्य व्यंजना को धारदार बनाते हैं। ‘जंगल संताल’ कविता में वे आदिवासियों के हूल, उलगुलान को इतिहास में दर्ज न किये जाने की पीड़ा को दर्शाते हैं। कविता की फाल ज्यों-ज्यों धरती में अन्दर धंसती है। इतिहास के विष-बेल उगने लगते हैं, जिन्हें राष्ट्रीय इतिहासकारों ने सभ्यता के मानक पर दफन कर दिया था।

आदिवासियों को उनकी मूल भूमि, मूल परिवेश में संरक्षित न करके उनके प्रतीकों को संग्रहालयों में रखकर उनके भूगोल के विस्तार को सीमित किया जा रहा है–

“चिड़ियाघर की जमीन फैल रही है और दीवार ऊंची
पिंजरों की संख्या बढ़ाई जा रही है
और वहां जंगल में
आदिम जनसंख्या उसके लिए तैयार की जा रही है
म्यूजियम में उसकी खाल, हड्डियां, वाद्य यंत्र, भाषा
और उसके गीत सुरक्षित किये जा रहे हैं
चिड़ियाघर में जेब्रा की मौत
केवल जेब्रा की मौत नहीं
हमारी संभावित अगामी मौत है।”[12]

आदिवासियत, सहजीविता और प्रतिरोध के स्वरों के साथ प्रेम और स्त्री विषयक कविता के लिये भी अनुज का काव्य संग्रह महत्वपूर्ण है–

“ओ मेरी युद्धरत दोस्त!
तुम कभी हारना मत
हम लड़ते हुए मारे जाएंगे
उन जंगली पगडंडियों में
उन चौराहों में
उन घाटों में
जहां जीवन सबसे अधिक संभव होगा।”[13]

वहीं ‘भंवर में प्रेम और युद्ध की कविताएं’ शीर्षक कविता में भाव, अनुभूति और यथार्थ एक साथ सामने आए हैं–

“जीवन क्या है
मुठभेड़ में मृत्यु
या, समूह का गान?
और प्रेम–
केंदु के पत्ते बेचकर
प्रियतमा के जूड़े सजाना?”[14]

अनुज मानते हैं कि हमें ही यह लड़ाई लड़नी होगी। हमारे लिए गीत गाने और कोई नहीं आएगा। हम साथ रहते हुए कुछ भी संभव कर सकते हैं। प्रेम करते हुए हम लड़ाई जारी रख सकते हैं और लड़ते हुए प्रेम भी कर सकते हैं। कवि अनुज सिम्बुआ बुरू, गीदम घाटी, इन्द्रावती, दामोदर को चूमने वाले पेड़ के रूप में बीजों को देख रहे हैं। उनका मानना है कि अभी भी कुछ पेड़ बाकी है और कुछ उग रहे हैं। बीजों का पनपना और पेड़ बनना दरअसल जल, जंगल, जमीन को बचाने के लिये नए अगुआ के द्वारा, नए उलगुलान की तैयारी है। कवि संघर्ष, लड़ाई, आंदोलन की आवश्यकता पर विचार करते हैं, क्योंकि पुरखे भी लड़ने से कभी डरे नहीं थे। अगर वे डरे होते तो स्वतंत्रता प्रेमी आदिवासी गुलाम हो गए होते।

अनुज लुगुन की कविताओं में रामदयाल मुंडा की प्रारंभिक कविताओं की तरह स्त्री की सहज छवि मौजूद है। पुरुष के विलोम के रूप में कतई नहीं। कवि अनुज की स्त्री विषयक कविताओं में प्रमुख हैं– ‘सांवली संगी’, ‘गरीब मंच की औरतें’, ‘उलगुलान की औरतें’ आदि। कवि के अनुसार–

“उन्होंने अपने जूड़े में
खोंस रखा है साहस का फूल
कानों में उम्मीद को
बालियों की तरह पिरोया है
धरती को सिर पर घड़े की तरह लिये
लचकते हुए जा रही हैं
उलगुलान की औरतें
धरती से प्यार करने वालों के लिए उतनी ही खूबसूरत
और उतनी ही खतरनाक/धरती के दुश्मनों के लिए।”[15]

गौरतलब है कि उलगुलान के समय बिरसा मुंडा की सहयोगी कई स्त्रियां थीं और हूल के समय सिदो-कान्हू, चांद-भैरव को अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में फूलो और झानो ने साथ दिया था।

अपने परिवेश के उजड़ने का दर्द, खनन और बांध परियोजनाओं के नाम पर विकास के नाम पर, आदिवासी रिहायशी स्थलों के उजड़ने और आदिवासियों के उनकी संस्कृति और अजीविका के स्रोतों से दूर होने की पीड़ा इन पंक्तियों में चित्रित है–

“यह पलाश के फूलने का समय है।
नियमगिरि से निकले नदी के तट पर
केंदू पक कर लाल है
हट चुकी है मकड़े की जाली
गुफाओं की खबर है
खदानों में वेदान्ता का विज्ञापन टेंगा है,
साखू के सागर सारंडा की लहरों में
बिछ गई है बारूदी सुरंगें
हर दस्तक का रंग यहां लाल है।”[16]

यह पीड़ा कितनी सघन है कि पहाड़ समतल हो रहे हैं, नदियां सूख रही हैं, पेड़, पानी, पहाड़, पतरा-जंगल, सभी संसाधन मान लिये गए हैं। इनपर कब्जा करके पूंजी में तब्दील करती आत्मकेंद्रित पूंजीवादी व्यवस्था आदिवासी क्षेत्रों को निशाना बना रही है–

“हमारे जंगल में लोहे के फूल खिले हैं
बाॅक्साईट के गुलदस्ते सजे हैं
अभ्रक और कोयला तो
थोक और खुदरा दोनों भावों से
मंडियों में रोज सजाए जाते हैं
यहां बड़े-बड़े बांध भी
फूल की तरह खिलते हैं
इन्हें बेचने के लिए
सैनिकों के स्कूल खुले हैं।”[17]

यह मध्य भारत का कटु यथार्थ है–

“कल एक पहाड़ को ट्रक पर जाते हुए देखा
उससे पहले नदी गई
अब खबर फैल रही है कि
मेरा गांव भी यहां से जाने वाला है।”[18]

बहरहाल, कवि अनुज अपनी हिंदी कविताओं में आदिवासी सौंदर्य के नए प्रतिमान गढ़ते हैं। आदिवासी सौंदर्य-बोध में रचाव-बचाव के साथ यानि सृजन के साथ स्वायत्तता के लिए संघर्ष स्वतः जुड़ जाते हैं। सौंदर्य तब तक अधूरा होगा जब तक कि जल, जंगल, जमीन, जीवन, जुबान की स्वायत्तता के लिए संघर्ष न होगा। मुण्डारी में एक गीत है– “सिन्देरा कोड़ा कोआ कपि जिलिब-जिलिबा”। इसका आशय है कि वे मुण्डा सुंदर दिखते हैं, जिनके हाथों में फरसे चमकते हैं, वे आदिवासी स्त्रियां सुंदर हैं, जो जल, जंगल, जमीन की सुरक्षा के लिए घरों से निकलकर धरना, प्रदर्शन करती हैं। पूंजीवादी व्यवस्था और सत्ता के क्रूर चेहरे के सामने निडर होकर खड़ी रहती हैं। अनुज लुगुन ‘अघोषित उलगुलान’ में इन सभी की सशक्ति अभिव्यक्ति करते हैं। इसलिए आदिवासी कविता के प्रतिमान, आदिवासी सौन्दर्यबोध की दृष्टि से भी उनका यह काव्य संग्रह महत्वपूर्ण है।

समीक्षित पुस्तक : अघोषित उलगुलान (काव्य संग्रह)
कवि : अनुज लुगुन
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य : 199 रुपए (अजिल्द)

संदर्भ

[1] अनुज लुगुन, अघोषित उलगुलान, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ 39-40
[2] वही, पृष्ठ 89
[3] वही, पृष्ठ 18
[4] वही, पृष्ठ 19
[5] वही, पृष्ठ 25
[6] वही, पृष्ठ 109-110
[7] वही, पृष्ठ 107-108
[8] वही, पृष्ठ 103-104
[9] वही, पृष्ठ 152
[10] वही, पृष्ठ 153
[11] वही, पृष्ठ 166-167
[12] वही, पृष्ठ 47
[13] वही, पृष्ठ 111
[14] वही, पृष्ठ 140
[15] वही, पृष्ठ 96
[16] वही, पृष्ठ 93
[17] वही, पृष्ठ 115
[18] वही, पृष्ठ 116

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, संस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

सावित्री बड़ाईक

लेखिका डॉ. सावित्री बड़ाईक रांची विश्वविद्यालय के एस.एस. मेमोरियल काॅलेज के हिंदी विभाग में सहायक प्राध्यापक हैं। इनकी प्रकाशित कृतियों में ‘शिशिर समग्र’ (संपादन), ‘आदिवासी देशज संवाद’ (संपादन) व काव्य संग्रह ‘दिसुम का सिंगार’ शामिल हैं।

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