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ब्राह्मणवादी वर्चस्ववाद के खिलाफ था तमिलनाडु में हिंदी विरोध

जस्टिस पार्टी और फिर पेरियार ने, वहां ब्राह्मणवाद की पूरी तरह घेरेबंदी कर दी थी। वस्तुत: राजभाषा और राष्ट्रवाद जैसे नारे तो महज ब्राह्मणवाद और ब्राह्मणवादी ताकतों को मजबूत करने तथा जनता का ध्यान भटकाने की राजनीतिक चालें थीं। पेरियार ने उस राजनीति का जवाब हिंदी विरोध की राजनीति से देकर प्रतिक्रियावादी ताकतों के मंसूबों पर पानी फेरने का काम किया था। पढ़ें, ओमप्रकाश कश्यप का यह आलेख

हिंदी के राष्ट्रभाषा न बन पाने को लेकर उत्तर भारतियों के मन में अनेक भ्रांतियां हैं। अगर कोई पूछे कि हिंदी राष्ट्रभाषा क्यों नहीं बन पाई, तो तुरंत इसका उत्तर होगा– “दक्षिण भारत के विरोध के कारण।” जवाब देते समय कुछ लोग इससे भी आगे बढ़ जाएंगे। वे सीधे तमिलनाडु और तमिलवासियों के विरोध को इसके लिए जिम्मेदार ठहरा देंगे। अगर पूछा जाए कि तमिलनाडु में हिंदी विरोध का नायक कौन था, तो उत्तर होगा– पेरियार। जबकि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने का विरोध केवल तमिलवासी नहीं कर रहे थे। कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, पश्चिमी बंगाल, महाराष्ट्र सभी को लगता था कि हिंदी उनके ऊपर थोपी जा रही है। जाने-माने कांग्रेसी शंकरराव ने भाषा के मुद्दे पर बोलते हुए संविधान सभा में कहा था–

“मैं भारतीय हूं, लेकिन मेरी (मातृ)भाषा मराठी है। हिंदी के राजभाषा बनाने का यदि यह अर्थ है कि भविष्य में पूरे देश के लिए सिर्फ वही भाषा रहने वाली है, तो मैं इसका विरोध करता हूं।”[1]

फिर दक्षिण को ही इसका दोषी क्यों ठहराया जाता है? इसके साथ और भी कई सवाल जोड़े जा सकते हैं। मसलन जब महाराष्ट्र, बंगाल, कर्नाटक जैसे अहिंदी भाषी राज्य, हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाए जाने का विरोध कर रहे थे तो गांधी ने 1918 में हिंदी प्रचार की शुरुआत तमिलनाडु से ही क्यों की थी? क्या भाषा की आड़ में कोई और राजनीतिक एजेंडा साधा जा रहा था? क्या गांधी नहीं जानते थे कि तमिल संस्कृत से भी पुरानी भाषा है? उसका साहित्य संस्कृत साहित्य से किसी भी दृष्टि से कमतर नहीं है, बल्कि उससे कहीं अधिक समावेशी है?

1920 के दशक में तमिलनाडु में हिंदी

कांग्रेस ने 1917 में तय किया था कि हिंदी को देश की राष्ट्रभाषा बनाया जा सकता है। उसके बाद गांधी हिंदी के प्रचार में जुट गए थे। हालांकि राष्ट्रभाषा के रूप में गांधी जिस हिंदी का समर्थन कर रहे थे, वह ‘हिंदुस्तानी’ थी, जो उस संस्कृतनिष्ठ हिंदी से एकदम अलग थी, जिसकी वकालत पुरुषोत्तमदास टंडन जैसे राष्ट्रवादी नेता कर रहे थे। ‘हिंदुस्तानी’ को राजभाषा घोषित करने की राह में आ रही मुश्किलों के बारे में 2 फरवरी, 1921 को ‘यंग इंडिया’ में गांधी ने लिखा था–

“बंगाल और मद्रास दो ऐसे प्रांत हैं, जो ‘हिंदुस्तानी’ की जानकारी के आधार पर शेष भारत से कटे हुए हैं। बंगाल इसलिए क्योंकि वहां के लोग अपने पूर्वाग्रह के कारण किसी और भाषा को पढ़ना-समझना ही नहीं चाहते और द्रविड़ियन इसलिए कि उन्हें हिंदुस्तानी को समझने में मुश्किल होती है।”[2]

उल्लेखनीय है कि मराठी, पंजाबी, राजस्थानी, बंगाली आदि भाषाएं एक ही परिवार से निकली हैं। उनके व्याकरण में काफी हद तक एकरूपता है। जबकि दक्षिण भारतीय भाषाओं जिन्हें ‘द्रविड़ियन’ अथवा द्रविड़ परिवार की भाषाएं कहा जाता है, के व्याकरण और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि उत्तर-भारतीय भाषाओं से काफी अलग थीं।

स्वयं डॉ. आंबेडकर भी ‘हिंदुस्तानी’ के ही पक्ष में थे। भाषा-नीति को लेकर उन्होंने जो प्रारूप तैयार किया था, उसमें ‘हिंदुस्तानी’ शब्द का ही प्रयोग किया गया था। लेकिन ड्राफ्टिंग कमेटी ने कांग्रेस पार्टी में हुई बहसों के आधार पर ‘हिंदुस्तानी’ के स्थान पर ‘हिंदी’ कर दिया था। बाद में यही शब्द संविधान सभा में चर्चा के लिए गया था।[3]

हिंदी की राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाए जाने को लेकर बड़ी समस्या उसके अंकों की भी थी। राजभाषा या राष्ट्रभाषा के रूप में जो लोग हिंदी और उसकी अक्षर-लिपि को अपनाने को तैयार थे, वे भी उसके अंकों को अपनाए जाने का विरोध कर रहे थे। अंकों का संबंध व्यापारी वर्ग से था; जो अपने अनुभव के भरोसे काम करते थे। उन्हें हिंदी अंकों से एकाएक परिचित कराना आसान नहीं था। यह देखते हुए, हिंदी अंकों की जगह अंतर्राष्ट्रीय अंकों को यह कहकर अपना लिया गया कि वे भारतीय मूल के अंकों का ही विकसित रूप हैं।

पेरियार और हिंदी : भ्रांतियां और हकीकत

यह सच है कि पेरियार ने मद्रास में हिंदी विरोधी आंदोलन का नेतृत्व किया था। वह भी एक बार नहीं, बल्कि तीन-तीन बार। लेकिन वह हिंदी के पढ़ने अथवा उत्तर और दक्षिण भारत के बीच संपर्क भाषा के रूप में विकसित किए जाने का विरोध नहीं था। सितंबर, 1922 में गांधी पेरियार से मिलने इरोड पहुंचे और उन्हीं के आवास पर ठहरे थे। उस समय हुई चर्चा के दौरान दो मुद्दों पर सहमति बनी थी। पहला, नशाबंदी आंदोलन, जो उस समय तक कांग्रेस के एजेंडे में नहीं था। यह प्रस्ताव पेरियार की बहन और पत्नी की ओर से आया था। गांधी उन दिनों खादी और हिंदी के प्रचार में लगे थे। नशाबंदी आंदोलन की शुरुआत करने की जिम्मेदारी उन्होंने पेरियार तथा उनके परिजनों पर डाल दी थी। गांधी चाहते थे कि पेरियार दक्षिण में हिंदी अभियान को आगे बढ़ाने में मदद करें।

उसके थोड़े ही दिनों बाद पेरियार ने इरोड में हिंदी प्रचार सभा की स्थापना की थी। उन दिनों दक्षिण में हिंदी प्रचारकों का मिलना कठिन था। इस समस्या के समाधान हेतु उन्होंने अपने आवासीय परिसर में स्कूल खोला था, जहां हिंदी प्रशिक्षकों को ट्रेनिंग दी जाती थी। वह दक्षिण भारत में अपनी तरह का अकेला संस्थान था। उसका सारा खर्च, यहां तक कि प्रशिक्षुओं के रहन-सहन की जिम्मेदारी भी पेरियार खुद वहन करते थे। संस्थान से हिंदी-प्रशिक्षकों के एक या दो बैच ही तैयार होकर निकले थे। उसके बाद वह राजनीति की भेंट चढ़ गया।

द लेबर किसान पार्टी ऑफ हिंदुस्तान’ का घोषणापत्र और हिंदी

‘द लेबर किसान पार्टी ऑफ हिंदुस्तान’ देश की पहली साम्यवादी पार्टी थी, जिसे मजदूर इंटरनेशनल की मान्यता भी प्राप्त थी। इस पार्टी का गठन दक्षिण भारत में मजदूर राजनीति के पितामह मलयपुरम् सिंगारवेलु चेट्टियार द्वारा 1 मई 1923 को मजदूर दिवस के अवसर पर किया गया था। पार्टी ने अपने घोषणापत्र में साफ लिखा था कि केंद्रीय सरकार के कामकाज की भाषा हिंदी होगी। प्रांत सरकारें अपनी मातृभाषा अथवा हिंदी में से किसी को भी, कामकाज की भाषा बना सकती हैं।[4] यह कदाचित पहला अवसर था, जब किसी राजनीतिक दल ने अपने घोषणापत्र में हिंदी को राजभाषा का सम्मान दिया था। उस समय तक कांग्रेस भी हिंदी को लेकर स्पष्ट मत नहीं बना पाई थी। कुल मिलाकर 1920 के दशक तक प्रांत में हिंदी को पढ़ने-पढ़ाए जाने पर बहुत अधिक विरोध नहीं था।

मद्रास में एक विरोध प्रदर्शन, जिसमें दिख रहे बैनर में तमिल में तीन बार लिखा गया है– ‘हिंदी न थोपें’

दक्षिण में हिंदी विरोध की शुरुआत

1937 में कांग्रेस तमिलनाडु की सत्ता में आई तो उसके केंद्रीय नेताओं ने हिंदी के प्रचार-प्रसार हेतु योजना बनाने को कहा। राजगोपालाचारी ने उन्हें भरोसा दिलाया कि वे प्रांत में हिंदी के अध्ययन को अनिवार्य बनाने की दिशा में काम करेंगे। 14 जुलाई, 1937 को प्रीमियर का पद संभालने के मात्र दो दिनों के भीतर राजगोपालाचारी ने एक अंग्रेजी अखबार ‘द मेल’ को दिए गए साक्षात्कार में कहा था कि पूरे भारत की एक आम राष्ट्रीय भाषा होगी। यह बात उन्होंने उस तमिल प्रदेश में कही थी, जहां तमिल अनिवार्य भाषा तक नहीं थी। जहां के पढ़े-लिखे युवा बिना अंग्रेजी की मदद के एक वाक्य तक नहीं बोल सकते थे। फिर 11 अगस्त, 1937 को राजगोपालाचारी ने प्रदेश के सभी स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य भाषा के रूप में पढ़ाने की घोषणा कर दी। अध्यादेश द्वारा 125 प्रांतीय स्कूलों में हिंदी पढ़ाए जाने का ऐलान किया गया था। देखा जाए तो उस आदेश में कुछ भी नया नहीं था, क्योंकि उस आदेश के जारी होने के एक-डेढ दशक पहले से ही प्रांत के 104 माध्यमिक स्कूलों में हिंदी पढ़ाई जा रही थी।[5] अंतर बस इतना था कि पहले हिंदी को वैकल्पिक विषय के रूप में पढ़ाया जाता था, राजगोपालाचारी ने उसे अनिवार्य विषय घोषित कर दिया था।

हिंदी के अध्ययन को अनिवार्य घोषित करने से तमिलनाडु की जनता को लगा कि सरकार उनकी भावनाओं की उपेक्षा कर रही है। ‘हिंदुस्तानी सेवा दल’, ‘हिंदुस्तानी हिंदू सभा’ जैसे दल पहले से ही हिंदी के प्रचार-प्रसार में जुटे थे। पूंजीपतियों खासकर मारवाड़ी सेठों का एक वर्ग हिंदी के प्रचार-प्रसार में कांग्रेस की मदद कर रहा था। जून 1920 में कांग्रेस की तिरुनेलवेली में आयोजित सभा में एक मारवाड़ी सेठ ने मद्रास प्रेसीडेंसी में हिंदी के प्रचार के लिए 50 हजार रुपए दान में दिए थे। व्यापारियों को लगता था कि पूरे देश की एक भाषा होने से उन्हें व्यापार फैलाने में आसानी होगी। कांग्रेस उन दिनों पढे-लिखे बुर्जुआ वर्ग की पार्टी थी। गांधी की छवि जाति और धर्म पर विश्वास करने वाले परंपरावादी हिंदू की थी। ‘अहिंसा’ और ‘असहयोग’ जैसे उनके हथियार व्यवस्था-परिवर्तन के उन हथियारों से ध्यान हटाने की कोशिश थे, जिनके सहारे रूस में समाजवादी क्रांति सफल हुई थी और चीन तेजी से उस लक्ष्य की ओर बढ़ रहा था। ऐसे माहौल में सामंतों और पूंजीपतियों को गांधी में अपना तारणहार नजर आता था।

लिपि का मामला

कांग्रेस की भाषायी नीति उसकी राजनीति का हिस्सा थी, यह बात आंकड़ों से भी सिद्ध हो जाती है। सन् 1938 में हिंदी थोपने के विरुद्ध शुरू हुए संघर्ष में मुस्लिम लीग ने पेरियार का साथ दिया था। उन दिनों कर्नाटक मद्रास प्रेसीडेंसी का हिस्सा था। वहां की बहुसंख्यक मुसलमान हिंदुस्तानी ही बोलती-समझती थी। 1901 में वहां कुल 14,82,188 मुस्लिम थे। उनमें से 10,75,395 हिंदुस्तानी बोलते थे। तमिल भाषी मुस्लिमों की संख्या महज 4,06,796 थी। 1931 की जनगणना में हिंदुस्तानी को लिपि के आधार पर हिंदी और उर्दू भाषाओं में बांट दिया गया। उसके बाद देवनागरी में लिखित हिंदुस्तानी हिंदी कहलाने लगी थी और दूसरी उर्दू। 1921 और 1931 के बीच हिंदुस्तानी बोलने वालों की संख्या-वृद्धि भी ठीक-ठाक थी। 1931 में मद्रास प्रेसीडेंसी में 12,30,000 हिंदुस्तानी बोलने बाले थे, और 19,740 हिंदी। यदि हिंदुस्तानी और हिंदी को एक मान लिया जाए तो 1931 में करीब साढ़े बारह लाख हिंदी भाषी मद्रास प्रांत में थे।[6]

ब्रिटिश नौकरशाही के मदद के लिए मद्रास प्रेसीडेंसी के विभिन्न हिस्सों में हिंदी और हिंदुस्तानी पढ़ाने हेतु अनेक संस्थान खोले गए थे। हालांकि एक सच यह भी है कि मद्रास प्रांत के बाकी भाषायी क्षेत्रों के मुकाबले, तमिल भाषी क्षेत्रों में हिंदी के प्रति बहुत कम रुझान था। ‘दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा’ ने अपनी स्थापना के पहले 10 वर्षों (1918-1928) में कुल 4570 लोगों को हिंदी सिखाने में सफलता प्राप्त की थी। 1929 में हिंदी की परीक्षा देने वाले मद्रास प्रांत के विद्यार्थियों की संख्या यद्यपि 923 थी, उनमें तमिलनाडु यानी तमिल भाषी क्षेत्र के विद्यार्थियों की संख्या मात्र 66 थी। बाकी 312 केरल से तथा 390 आंध्र से थे। रंगून से आए 7 छात्रों को छोड़कर, बाकी मद्रास के दूसरे हिस्सों से थे। 1930 के दशक में हिंदी प्रचार सभा से हिंदी सीखने वाले विद्यार्थियों की संख्या में वृद्धि हुई थी। मगर तमिलनाडु से आने वाले विद्यार्थियों की संख्या में आनुपातिक वृद्धि लगभग शून्य थी। सन् 1938 में सभा द्वारा कुल 17,574 छात्रों ने हिंदी का प्रशिक्षण प्राप्त किया था। उनमें से तमिलनाडु के विद्यार्थियों की संख्या मात्र 2417 थी, जबकि केरल के विद्यार्थियों की संख्या सर्वाधिक थी।[7]

तमिलनाडु को ही क्यों

अब हम वापस पुराने सवाल पर लौटते हैं। हिंदी को राजभाषा बनाने का मुद्दा पूरे देश से संबंधित था, फिर मद्रास को ही उसकी प्रयोग स्थली क्यों बनाया गया था? खासकर जब गांधी खुद मान चुके थे कि दक्षिणवासियों के लिए हिंदी सीखना अपेक्षाकृत कठिन है। उचित होता कि पहल उन राज्यों से की जाती, जहां की भाषाएं संस्कृत से प्रभावित थीं। यथा– गुजराती, बंगाली, मराठी, पंजाबी और उड़िया आदि। ये क्षेत्र हिंदी को अपना लेते तो दक्षिण की राह अपने आप आसान हो जाती। इन क्षेत्रों में कांग्रेस दक्षिण से अधिक प्रभावशाली थी। एक बात और चौंकाने वाली है। पूरे मद्रास प्रांत (तमिलनाडु, केरल, तेलंगाना, आन्ध्रप्रदेश और कर्नाटक) में हिंदी को राजभाषा के रूप में विकसित करने के लिए राजगोपालाचारी ने दस लाख रुपयों के बजट का प्रावधान किया था। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि सरकार हिंदी को राजभाषा घोषित करने के बजाय उसकी राजनीति कर रही थी। आखिर क्यों? इसके लिए कुछ दशक पहले की हलचलों पर नजर डालनी होगी।

मसलन, बौद्ध धर्म को पुनर्जीवित करने का श्रेय तमिलनाडु को जाता है। वहां अयोथि थास ने यह कहकर कि द्रविड़ों का मूल धर्म बौद्ध धर्म है, हिंदू धर्म पर जोरदार हमला किया था। उनके आग्रह पर द्रविड़ों ने जनगणना के दौरान खुद को बौद्ध लिखवाना शुरू कर दिया था। उनके बाद जस्टिस पार्टी और फिर पेरियार ने, वहां ब्राह्मणवाद की पूरी तरह घेरेबंदी कर दी थी। वस्तुत: राजभाषा और राष्ट्रवाद जैसे नारे तो महज ब्राह्मणवाद और ब्राह्मणवादी ताकतों को मजबूत करने तथा जनता का ध्यान भटकाने की राजनीतिक चालें थीं। पेरियार ने उस राजनीति का जवाब हिंदी विरोध की राजनीति से देकर प्रतिक्रियावादी ताकतों के मंसूबों पर पानी फेरने का काम किया था।

[1] जयराम रमेश, द हिंदू, 26 अप्रैल, 2023
[2] टूवार्ड्स न्यू एजुकेशन (1953), संपादन भारतन कुमारप्पा, नवजीवन मुद्रणालय, अहमदाबाद, अध्याय 15
[3] जयराम रमेश, द हिंदू, 26 अप्रैल, 2023
[4] गंगाधर अधिकारी, ‘डॉक्यूमेंट्स ऑफ कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया’, खंड दो, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस प्रा. लिमिटेड, 1974, पृष्ठ 128
[5] यूजीन एफ इर्स्चिक, ‘तमिल रिवावलिज्म इन दि 1930ज’, क्रे-ए, मद्रास, 1986, पृष्ठ 213
[6] उपर्युक्त
[7] उपर्युक्त

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

ओमप्रकाश कश्यप

साहित्यकार एवं विचारक ओमप्रकाश कश्यप की विविध विधाओं की तैतीस पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। बाल साहित्य के भी सशक्त रचनाकार ओमप्रकाश कश्यप को 2002 में हिन्दी अकादमी दिल्ली के द्वारा और 2015 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के द्वारा समानित किया जा चुका है। विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में नियमित लेखन

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