हरियाणा में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) लगातार तीसरी बार सत्ता में आने का दावा कर रही है। उसकी उम्मीदें इस बात पर टिकी हैं कि राज्य में इस बार भी वह तमाम पिछड़ी जातियों को कथित जाट प्रभुत्व के ख़िलाफ लामबंद करने में सफल रहेगी। पार्टी के टिकट वितरण में यह रणनीति साफ नज़र आती है। हालांकि ज़मीन पर इस रणनीति का सफलता को लेकर इस बार कई लोग संदेह जता रहे हैं।
ध्यातव्य है कि हरियाणा में संख्या और प्रभुत्व के लिहाज़ से जाट सबसे प्रमुख जाति समूह है। हालांकि जातिगत जनगणना न होने की वजह से सही-सही संख्या का अंदाज़ा लगा पाना तो मुश्किल है, फिर भी दावा है कि हरियाणा में जाट मतदाताओं की संख्या 20 से 27 फीसदी के बीच है। राज्य की कुल 90 विधानसभा सीटों में से 40 के नतीजों पर जाट सीधा असर डालते हैं। इसके अलावा और भी दस से बारह सीटों के नतीज़ों को जाट समुदाय प्रभावित कर सकता है। जाटों के प्रभुत्व का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1966 में जबसे हरियाणा पंजाब से अलग होकर नया राज्य बना तब से लेकर इन 58 वर्षों में 33 साल तक राज्य का मुख्यमंत्री जाट समुदाय से रहा है।
यही वजह है कि राज्य में राजनीति को जाट बनाम अन्य करना बेहद आसान है। भाजपा पिछले दस साल से यही कर रही है और पार्टी को इसका फायदा भी मिला है। 2014 में भाजपा का चुनावी प्रचार राज्य में जाटों के प्रभुत्व, उनकी ज़्यादतियों और दूसरे जातीय समूहों की अनदेखी के इर्द-गिर्द घूमता रहा। लोगों ने भाजपा की बात पर विश्वास किया और राज्य में पहली बार भाजपा ने अपने दम पर सरकार बनाने में सफलता हासिल की। भाजपा इससे पहले 1987 में ओम प्रकाश चौटाला के नेतृत्व वाली जनता दल सरकार और 1996 में बंसी लाल के नेतृत्व वाली हरियाणा विकास पार्टी की सरकार में शामिल रही थी। वर्ष 2014 में भाजपा के लिए अनुकूल परिस्थितियां इस कारण भी बनी थीं क्योंकि देश भर में कांग्रेस के ख़िलाफ माहौल बना हुआ था। अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और हरियाणा में भूपेंद्र सिंह हुड्डा के ख़िलाफ लोगों की नाराज़गी के बल पर भाजपा अपने दम पर 47 सीटें जीती और सरकार बनाई।
वहीं दूसरी ओर हरियाणा की कुल जनसंख्या में ओबीसी जातियां लगभग 40 फीसदी हैं। राज्य में दलितों की संख्या 20 फीसदी से थोड़ी ज्यादा है। इसके अलावा लगभग 7 फीसदी मुसलमान भी हैं, जिनकी आबादी मेवात इलाक़े में चार से पांच सीटों पर निर्णायक है। राज्य में 2014 और 2019 में हुए चुनावों में एक बड़ी समानता है। दोनों ही बार भाजपा ने चुनाव जाटों के ख़िलाफ अन्य जातियों को लामबंद करके लड़ा। इसमें सैनी, यादव (राव), गुर्जर जैसी बड़ी ओबीसी जातियों के अलावा दलितों में से वाल्मीकि और कोली जाति के मतदाताओं ने भाजपा के पक्ष में मतदान किया। जबकि मुसलमान और जाटव वोटरों ने कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया। लेकिन जाट कांग्रेस के अलावा इंडियन नेशनल लोकदल, जननायक जनता पार्टी, और कांग्रेस के बीच विभाजित हो गए। पंजाबी, बनिया, ब्राह्मण और राजपूत पहले से ही भाजपा के पक्ष में थे।
यहां यह ग़ौरतलब है कि भाजपा वर्षों से ‘दलित-पिछड़ों को बांटो और राज करो’ की राजनीति का एक बहुत ही दिलचस्प खेल सफलतापूर्वक खेल रही है। जिस राज्य में चुनाव हो, वहां ओबीसी या दलित जातियों में सबसे अधिक संख्या या राजनीतिक प्रभुत्व वाले जातीय समूह को वहां की तमाम समस्याओं का ज़िम्मेदार बताकर ख़लनायक बना दो। राज्यवार विलेन बदलता रहता है, लेकिन रणनीति वही रहती है। दिलचस्प बात यह है कि इस खेल में एक राज्य का विरोधी दूसरे राज्य में पार्टी का सहायक वोटर बन जाता है। सतही तौर पर यह करना असंभव नज़र आता है, लेकिन भाजपा ने बार-बार इस असंभव-सी रणनीति को सफल करके दिखाया है। इसका उदाहरण हरियाणा के अलावा बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान के उदाहरण से इस खेल को समझा जा सकता है।
उदाहरण के लिए हरियाणा में जिन जाट मतदाताओं के ख़िलाफ ध्रुवीकरण के सहारे भाजपा सत्ता हासिल करती है, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली और राजस्थान में वही जाट पार्टी का ठोस जनाधार हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार में जिन यादवों के ख़िलाफ ध्रुवीकरण भाजपा की राजनीति का आधार है, वही यादव हरियाणा, दिल्ली और मध्य प्रदेश में भाजपा के कोर वोटर माने जाते हैं। लेकिन इस बार हरियाणा में हालात बदले हुए नज़र आ रहे हैं। इसकी कई वजहें हैं। इनमें बढ़ती महंगाई, बेरोज़गारी, बिगड़ती कृषि व्यवस्था प्रमुख हैं। इन वजहों से तमाम किसान जातियां इस बार भाजपा से नाराज़ नज़र आ रही हैं। अग्निवीर, खिलाड़ियों के अपमान, किसान आंदोलन के दौरान की गई ज़्यादतियों को लेकर इस बार नाराज़गी न सिर्फ जाटों में, बल्कि यादव, गुर्जर, सैनी, और बाक़ी तमाम किसान जातियों में भी महसूस की जा रही है।
यादव, गुर्जर और दलितों की नाराज़गी की एक और बड़ी वजह है। यह जातियां मिलकर न सिर्फ हरियाणा में एक प्रमुख राजनीतिक शक्ति बन जाती हैं, बल्कि भाजपा की जीत का आधार भी बनती हैं। 2014 और 2019 में हरियाणा को भाजपा को सफलता ओबीसी और दलित वोटरों के ध्रुवीकरण की वजह से मिली लेकिन दोनों ही बार पार्टी ने पंजाबी खत्री जाति से संबंध रखने वाले मनोहर लाल खट्टर को मुख्यमंत्री बनाया। इसे लेकर पार्टी में सीएम बनने की महत्वाकांक्षा रखने वाले कई लोगों को ठेस लगी। हालांकि इस बार चुनाव से तक़रीबन सात महीना पहले भाजपा ने मुख्यमंत्री बदलने का फैसला किया और नायब सिंह सैनी को सीएम की गद्दी पर बैठाया गया। इसके पीछे पार्टी की सोच एक बार फिर से ओबीसी जातियों को अपने पक्ष में लामबंद करने की थी। लेकिन इससे पार्टी के भीतर निराशा और भीतरघात ही बढ़ी है।
राव इंद्रजीत सिंह, कृष्णपाल गुर्जर और अनिल विज जैसे नेता नायब सिंह सैनी के मुख्यमंत्री बनने के बाद से असंतुष्ट चल रहे हैं। इसका असर राज्य के यादव, गुर्जर और ब्राह्मण वोटरों में साफ देखा जा सकता है। पलवल निवासी सुधीर कौशिक का मानना है कि ब्राह्मण मतदाताओं का रूझान इस बार कांग्रेस की तरफ है। रोहतक के रवि शर्मा की भी यही राय है। गुरुग्राम के रहने वाले राव महेंद्र सिंह का कहना है कि गुर्जरों में असंतोष है, लेकिन फिर भी एक बड़ी संख्या भाजपा के साथ रहेगी, क्योंकि उन्हें राज्य में एक बार फिर से जाटों का प्रभुत्व लौटता हुआ दिख रहा है। फरीदाबाद के श्याम सिंह पंवार अभी वोट देने को लेकर असमंजस में हैं, लेकिन फिर भी उनका मानना है कि राज्य में भाजपा के पास न मुद्दे बचे हैं और न ही माहौल उसके पक्ष में है। इसके बावजूद अगर लोग भाजपा को वोट कर रहे हैं तो उसकी दो वजहें हैं। एक तो हुड्डा परिवार को लेकर लोग आशंकित रहते हैं, दूसरे जाटों का प्रभुत्व उन्हें डराता है।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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