प्रिय दादू,
मोदी जी के सत्ता में आने के बाद से देश में असहिष्णुता का जो वातावरण बन गया था, उसकी पृष्ठभूमि में, बिहार में महागठबंधन की जीत क्या सहिष्णुता की जीत है?
हमारी परंपरा सहिष्णुता की है या असहिष्णुता की?
सप्रेम,
शांति
प्रिय शांति,
इसमें दो मत नहीं हैं कि मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से देश में असहिष्णुता तेज़ी से बढ़ी। बिहार में भाजपा इतनी बुरी तरह से क्यों हारी, यह अभी पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है। हो सकता है कि कुछ लोगों ने बढ़ती असहिष्णुता के प्रति विरोध व्यक्त करने के लिए भाजपा को मत न दिया हो। परंतु बिहार का जनादेश, केवल असहिष्णुता के विरूद्ध जनादेश नहीं है। इस विजय के पीछे भाजपा में किसी विश्वसनीय बिहारी नेता का अभाव व गठबंधन का गणित भी है। जो मूल बात उभर कर आई है वह यह है कि भाजपा को आरएसएस पर अपनी निर्भरता खत्म करनी होगी ताकि वह परिपक्व राजनीतिक दल बन सके-एक ऐसा दल जो पूरे देश का प्रतिनिधि हो न कि एक विशेष वर्ग का। यद्यपि आरएसएस और भाजपा दावा करते हैं कि वे ‘बहुसंख्यकवादी’ हैं, परंतु वे सभी हिंदुओं के हितों का प्रतिनिधित्व भी नहीं करते। आरएसएस व भाजपा, केवल उन ऊँची जातियों के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनकी यह मान्यता है कि भारत को हिंदुत्व को अपना लेना चाहिए।
हिंदुत्व, भारतीय परंपरा की असहिष्णु धारा का सबसे नवीनतम प्रकटीकरण है। असहिष्णुता की यह धारा बहुत पुरानी है, कम से कम 2,500 साल पुरानी। जैसा कि तुम जानती ही होगी, महावीर और बुद्ध दोनों जातिवाद के विरोधी थे और इस कारण उन्हें कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। बुद्ध को शायद ज़हर देकर मारा गया था और उनके अंतिम संस्कार के स्थान को जिस तरह अपमानित किया गया, उससे यह साफ है कि उनकी मृत्यु के सैंकड़ों साल बाद तक भी उनके विचारों के प्रति देश में घोर असहिष्णुता थी।
इतिहास गवाह है कि भारत में असहिष्णुता का संबंध धर्म से कम ही रहा है। अधिकांश मामलों में असहिष्णुता जातिगत रही है। परंतु यह भी सच है कि हमारे देश में जाति और धर्म एक दूसरे से इतने गुंथे हुए हैं कि उन्हें अलग-अलग करना संभव नहीं है। पिछली दो सदियों से हम यह कोशिश कर रहे हैं परंतु हमें इसमें सफलता नहीं मिल सकी है। जहां एक ओर भारत का घोर असहिष्णु पक्ष था, वहीं सहिष्णुता की भी हमारे देश में लंबी और समृद्ध परंपरा रही है। इसके पीछे महावीर, बुद्ध व अन्य लेखकों और चिंतकों का प्रभाव भी रहा है। फुले और आंबेडकर मानते हैं कि यह 16वीं शताब्दी से जीसस के कुछ अनुयायियों (यद्यपि सभी नहीं) के प्रभाव से भी हुआ।
तुम्हारे प्रश्न से कई नए प्रश्न उपजते है : हमें सहिष्णु क्यों होना चाहिए? हमें किसके प्रति सहिष्णु होना चाहिए? क्या ऐसी कोई चीजें हैं जिनके प्रति हमें असहिष्णु होना चाहिए? हमें कब सहिष्णु होना चाहिए और कब असहिष्णु?
इस पत्र में मैं केवल इनमें से पहले प्रश्न का उत्तर दूंगा: हमें सहिष्णु क्यों होना चाहिए?
इसके कई कारण हैं, जिनमें से प्रमुख निम्नानुसार हैं: पहला, क्योंकि हम सब कुछ नहीं जानते बल्कि हम इतना कम जानते हैं कि जिसे हम अपना ज्ञान समझते हैं, दरअसल वह मूर्खता हो सकती है और जिसे हम अपना विवेक मानते हैं, वह हमें अंधकार की ओर ले जाने वाला हो सकता है (जैसा कि ईसा मसीह, ल्यूक द्वारा लिखी जीवनी के अध्याय 11 के छंद 35 में कहते हैं)।
दूसरे, यह भी संभव है कि अन्य लोग हमसे ज्यादा जानते हों या वे कुछ ऐसी चीजें जानते हों, जिन्हें हम नहीं जानते। तथ्यों के संबंध में थोड़ी सी भी अज्ञानता हमें एकदम गलत निष्कर्षों की ओर ले जा सकती है।
तीसरे, अगर आप असहिष्णु हैं तो आपके आसपास के लोग आपसे संवाद कम कर देते हैं। वे आपकी तरह सोचने नहीं लगते, वे तो वही सोचते हैं जो वे पहले से सोचते थे, परंतु वे आपके सामने अपने विचार व्यक्त नहीं करते। अगर आपके आसपास के लोगों में आपके प्रति असंतोष या रोष का भाव रहेगा तो यह निश्चित रूप से आपको और जिस संस्थान में आप कार्य करते हैं उसे नुकसान पहुंचाएगा। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि असहिष्णुता से समाज और अर्थव्यवस्था अपनी पूरी क्षमता से काम नहीं कर पाते।
तो मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इन शब्दों में देना चाहूंगा अपनी ताकत के बल पर अपने विचारों को दूसरों पर लादना असहिष्णुता है। यह मूर्खता और ताकत के दुरूपयोग से उपजती है।
आपको अपनी ताकत का इस्तेमाल आपके आसपास के लोगों की भलाई और उनकी समृद्धि के लिए करना चाहिए न कि अपने विचारों को उन पर थोपने के लिए। कोई भी दो फूल एक से नहीं होते। कोई भी दो मनुष्य एक से नहीं होते। विविधता एक ईश्वरीय भेंट है।
इस पत्र के अंत में मैं तुमसे कुछ प्रश्न पूछना चाहूंगा। तुम अपने आसपास के समाज में कितनी असहिष्णुता पाती हो? और अपने परिवार व शैक्षणिक संस्थाओं में भी। बल्कि मैं तो तुमसे यह भी जानना चाहूंगा कि तुम स्वयं कितनी असहिष्णु हो?
मेरी भी यह इच्छा होती है कि मैं अपनी ताकत का इस्तेमाल अपने विचारों को दूसरों पर थोपने के लिए करूं। परंतु ईश्वर तो यही चाहता है कि मैं विनम्र बना रहूं और मुझ में जो भी ज्ञान है, उसे दूसरों के साथ बांटू। मुझे, दरअसल एक ऐसा भिखारी होना चाहिए जिसके पास जितना भी भोजन है वह उसे दूसरों के साथ बांटकर खाना चाहता है।
सप्रेम,
दादू