हमारे देश में जितने भी सांस्कृतिक आंदोलन हुए, उनमें ओबीसी नायकों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही है। सामाजिक परिवर्तन में उनके योगदान को नकारना बेमानी होगा। बहुजन समाज के प्रवक्ता और आधारस्तंभ दोनों आम्बेडकर रहे हैं। इसके मद्देनजर अगर आम्बेडकर से पहले के ओबीसी नायकों पर बात की जाए तो उन्होंने दलित आंदोलन के जरिए जो सबसे पहला काम किया वह धार्मिक वर्चस्व को तोडऩे का था। चूंकि तब समाज में जाति, धर्म, संप्रदाय की श्रेष्ठता के बोध तले ब्राह्मणवादी व्यवस्था कायम थी, इसलिए सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक विषमता बहुत बुरी तरह फैली हुई थी। ओबीसी समाज से जो नायक निकले, उन्होंने इस विषमता को तोडऩे के लिए ब्राह्मणवाद और सामंतवाद के खिलाफ आवाज उठायी। चूंकि ब्राह्मणवादी विचारधारा की पोषक सामंतवादी व्यवस्था होती है, इसलिए सामाजिक विषमता को खत्म करने के लिए इसके खिलाफ आवाज उठनी भी जरूरी थी। ब्राह्मणवाद वर्ण व्यवस्था का समर्थन करने के साथ-साथ मनुष्य के ऊपर मनुष्य की श्रेष्ठता का समर्थन करता था और आदमी को आदमी से अलग करता था। इसी कारण धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक शोषण के खिलाफ आंदोलन की जरूरत महसूस हुई।
एक होता है राजनीतिक आंदोलन और दूसरा होता है सांस्कृतिक आंदोलन। राजनीतिक आंदोलन समय-समय पर लोगों ने किया। साहूजी महाराज ने किया, पेरियार ने किया और लोगों ने अपने-अपने समय पर आंदोलन चलाया। आगे चलकर डॉ.आम्बेडकर ने राजनीतिक आंदोलन बहुत व्यापक रूप में पूरे देश में चलाया। उत्तरप्रदेश में भी आम्बेडकर के आंदोलन का बहुत गहरा प्रभाव और प्रसार हुआ। शुरुआत में दलित आंदोलन और दलित साहित्य का ओबीसी के नायकों ने विकास किया। इसे अगर देश के स्तर पर देखें तो जोतिबा फुले ओबीसी थे। साहूजी महाराज ओबीसी थे। पेरियार ओबीसी थे और उत्तर भारत में ललईसिंह यादव, रामस्वरूप वर्मा और सभी लोग दलित आंदोलन के मजबूत पक्षधर थे। इन लोगों ने आंदोलन चलाया और उसको आगे बढ़ाया। इन्होंने दलितों की समस्याओं और समाज में उनकी स्थिति को लेकर नाटक लिखे। आश्चर्य की बात है कि दलित इनके महत्व को मानते हैं, लेकिन ओबीसी के लोग जानते ही नहीं कि रामस्वरूप वर्मा या ललईसिंह यादव की किताब क्या है ? इन लोगों ने दलितों के नायकों पर नाटक लिखे। ललई सिंह यादव ने पांच नाटक लिखे, जिनमें शम्बूक वध और एकलव्य काफी प्रसिद्ध हैं। इस तरह वर्चस्ववादी व्यवस्था के खिलाफ लंबा आंदोलन चला है, बाद में लालू प्रसाद यादव, मुलायम और मायावती ने इसका विकास किया, लेकिन बाद में ये लोग सत्ता की राजनीति करने लगे। यानी राजनेता से इतर ये लोग पिछड़ों-दलितों के बीच सामाजिक परिवर्तनकारी राजनीति नहीं कर सके। इनकी राजनीति कुर्सी तक सीमित हो गई।
विषमता को मिटाने के लिए जोतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले का योगदान अविस्मरणीय है। जोतिबा फुले ने इन विषमताओं को लेकर एक किताब ‘गुलामगिरी’लिखी, जिसका अंग्रेजी में भी अनुवाद हो चुका है। इस किताब में उन्होंने ब्राह्मणवाद के खिलाफ संघर्ष, स्त्री शिक्षा, किसानों और खेतिहर मजदूरों, दमितों-दलितों, शोषितों को आवाज देने का काम किया। फुले दंपत्ति के शिक्षा खासकर स्त्री शिक्षा के लिए योगदान को इसी से समझा जा सकता है कि उन्होंने महाराष्ट्र में स्त्रियों के लिए पहला स्कूल खोला, जोकि भारत में भी महिलाओं का पहला स्कूल था। स्त्री शिक्षा की दिशा में फुले दंपत्ति द्वारा उठाए गए इस कदम का सवर्णों ने खासा विरोध किया। सवर्ण समाज में स्त्री शिक्षा वर्जित थी, सवर्ण महिलाएं तो दलितों से भी महादलित थीं। वे 100-150 साल पहले तक घर से बाहर कदम नहीं रख सकती थीं। एक ऐसे समाज में फुले दंपत्ति का स्त्री शिक्षा के लिए स्कूल की स्थापना करना निश्चय ही साहसिक कदम था। सावित्रीबाई फुले घर से बाहर निकलकर पढ़ाने का काम करने वाली पहली शिक्षिका थीं। जब वो स्कूल के लिए निकलतीं थी, तो अपने साथ घर से हमेशा एक अतिरिक्त साड़ी लेकर चलती थीं क्योंकि उन्हें तंग करने और स्त्री शिक्षा का विरोध करने के लिए उन पर गोबर और पत्थर फेंके जाते थे, उन पर भद्दी फब्तियां कसी जाती थीं, मगर फि र भी वे पीछे नहीं हटीं। मगर ताज्जुब की बात यह है कि सवर्णों ने फुले दंपत्ति के शिक्षा खासकर स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में किए गए काम को कभी उस तरह तवज्जो नहीं दी, जिस तरह राजा राममोहन राय को। खास बात तो यह है कि राजा राममोहन राय के समय तक शिक्षा का काफी प्रचार-प्रसार हो चुका था। सही मायनों में देखा जाए तो फुले दंपत्ति के संघर्ष ने महाराष्ट्र में दलित आंदोलन की नींव रखने का काम किया।
दक्षिण भारत में दलित मसीहा के बतौर इरोड वेंकट नायकर रामासामी पेरियार को देखा जाना चाहिए। पेरियार ने ब्राह्मणवाद के खिलाफ वहां एक वृहद् आंदोलन की नींव रखी। उन्होंने दक्षिण भारत में दलितों के मंदिरों में प्रवेश के लिए आंदोलन किया। ताज्जुब की बात यह है कि जब पेरियार ने मंदिर आंदोलन की शुरुआत की तब दलितों का मंदिर में प्रवेश करना तो दूर, जिस रास्ते में मंदिर बना हो उस रास्ते से जाना तक वर्जित था। जानवरों से भी बदतर हालत थी दलितों की। हालांकि कुछ कांग्रेस नेताओं के कहने पर ही उन्होंने वाईकम आंदोलन का नेतृत्व स्वीकार किया, जो मन्दिरों की ओर जाने वाली सड़कों पर दलितों के चलने की मनाही को हटाने के लिए संघर्षरत् था, मगर बाद में युवाओं के लिए कांग्रेस संचालित प्रशिक्षण शिविर में ब्राह्मण प्रशिक्षकों द्वारा गैर-ब्राह्मण छात्रों के प्रति भेदभाव बरतते देख उनका मन कांग्रेस से उखडऩे लगा। उन्होंंने कांग्रेस नेताओं के समक्ष दलितों के लिए आरक्षण का प्रस्ताव भी रखा, जिसे नामंजूर कर दिया गया, इसलिए उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी। पेरियार के खिलाफ भी ब्राह्मणवादी विचारकों ने एक नए आंदोलन की शुरुआत कर दी। महात्मा गांधी ने पेरियार विरोधियों को समझाया कि उनकी बात मानकर दलितों को मंदिरों के रास्तों पर चलने की इजाजत दे दी जाए, नहीं तो पेरियार दलितों के मंदिर प्रवेश के लिए भयंकर आंदोलन करेंगे। चूंकि पिछड़ा-दलित समुदाय पेरियार के साथ था, इसलिए कांग्रेस की साख खत्म हो रही थी और गांधी को कांग्रेस की साख बचाने की चिंता थी। गांधी भी पेरियार के साथ नहीं थे।
इसी तरह कोल्हापुर के साहूजी महाराज, जो खुद आज के ओबीसी समुदाय से आते थे, दलितों के असली नायक साबितहुए। वे कोल्हापुर के राजा थे। उन्होंने अपने राज्य में सबसे पहले दलितों-पिछड़ों के लिए 51 प्रतिशत आरक्षण देकर हर क्षेत्र में समतामूलक समाज की स्थापना की शुरुआत की। उन्हें आरक्षण का जनक भी कहा जाता है, क्योंकि साहूजी महाराज ने ही सबसे पहले भारतवर्ष में दलितों-पिछड़ों को आरक्षण देने की शुरुआत की। वे महिलाओं के लिए शिक्षा सहित कई प्रगतिशील गतिविधियों के साथ भी जुड़े थे। उन्होंने गरीबों, किसानों, मजदूरों, दबे-कुचले लोगों को प्रशासन में भागीदारी दी। साहूजी महाराज शासन-प्रशासन, धन, धरती, व्यापार, शिक्षा, संस्कृति व सम्मान-प्रतिष्ठा सभी क्षेत्रों में वे आनुपातिक भागीदारी के प्रबल समर्थक थे। उनका नारा भी था ‘जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी, जिनकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी भागीदारी, जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी जिम्मेदारी।’
जहां तक ओबीसी नायकों की भारतीय समाज तथा साहित्यिक, अकादमिक अध्ययनों में वह पहचान नहीं बन सकी, जिसके वे हकदार थे, का सवाल है तो, यह समझने की जरूरत है कि ओबीसी का कोई अकादमिक केंद्र नहीं रहा है। हालांकि आज के दौर में देखा जाए तो ओबीसी वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ हर जगह मौजूद हैं। जहां तक साहित्य जगत में ओबीसी के हाशिए पर रहने का सवाल है, तो राजेंद्र यादव से पहले किसी ने इस पर बात ही नहीं की। हालांकि मौजूदा समय में काफी लोगों ने इस दिशा में पहल लेनी शुरू कर दी है।
(प्रसिद्ध आलोचक चौथीराम यादव से यह बातचीत प्रेमा नेगी ने की है)
(फारवर्ड प्रेस, बहुजन साहित्य वार्षिक, मई, 2014 अंक में प्रकाशित )
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