प्रिय दादू,
आप जो कहना चाह रहे हैं वह मैं समझ सकती हूं। अधिकांश मामलों में असहिष्णुता की जड़ें अहंकार, मूर्खता और लिप्सा में रहती हैं।तो फिर ऐसी कौन सी चीजें हो सकती हैं, जिनके प्रति हमें अहंकारी, मूर्ख और लोभी न होते हुए भी असहिष्णु होना चाहिए।
सप्रेम,
शांति
प्रिय शांति,
कहने की आवश्यकता नहीं कि अगर ऐसा करना संभव हो तो हमें दु:ख, रोग और अज्ञानता को नहीं सहना चाहिए-न तो अपनी जिंदगी में और न दूसरों की जिंदगियों में। परंतु तथ्य यह है कि हमारे देश में जिन विचारधाराओं का प्राधान्य है, वे हमें यह सिखाती हैं कि दु:ख, रोग और अज्ञानता को, कम से कम नीची जातियों के मामले में, न केवल सहन किया जाना चाहिए बल्कि उन्हें किसी कथित पूर्व जन्म के पापों का उचित और न्यायपूर्ण दंड माना जाना चाहिए।
सच तो यह है कि हमारे देश में व्याप्त सभी गलत और झूठे विचारों को सहन नहीं किया जाना चाहिए। कब जब यह पता लगाना मुश्किल होता है कि कौन से विचार सही हैं और कौन से गलत। और ऐसी स्थिति में हमें तब तक धैर्य रखना चाहिए जब तक यह स्पष्ट न हो जाए कि कोई विशेष विचार सही है या गलत।
परंतु यह स्वीकार करते हुए भी कि पूर्ण सत्य से हमारा साक्षात्कार अभी नहीं हुआ है, हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि ऐसे कुछ विचार हैं, जिनके बारे में हम निश्चित तौर पर जानते हैं कि वे सत्य हैं और कुछ ऐसे विचार भी हैं, जिनके बारे में हमें पता है कि वे असत्य हैं। अगर हमें किसी विचार की सत्यता का ज्ञान है तो हमारा यह कर्तव्य है कि हम उसकी रक्षा और संरक्षण करें। इसके विपरीत, अगर हमें यह पता है कि कोई विचार असत्य है तो हमारा यह कर्तव्य है कि हम उसके खिलाफ लड़ें या कम से कम उसका प्रतिरोध करें। चाहे ईश्वर हो या हमारी दुनिया, चाहे अंतरराष्ट्रीय राजनीति हो या हमारा समाज, चाहे हमारे आसपास की दुनिया या हमारे पड़ोसी व परिवार हों या हम स्वयं – असत्य का विरोध, सत्यान्वेषण का अविभाज्य हिस्सा है।
निश्चित तौर पर हमें ऐसी सरकारी नीतियों को सहन नहीं करना चाहिए जो हमारे देश को बर्बादी की ओर धकेल रही हैं। जैसे वे नीतियां जो देश के हर नागरिक को अच्छी शिक्षा और अच्छे स्वास्थ्य की गारंटी नहीं देतीं। इस तरह के मामलों में कौन सी नीति सही है और कौन सी गलत, यह समझना आसान है। परंतु ऐसी बहुत सी गलत नीतियां हंै, जिनको समझने में हमें देर लगती है – जैसे उद्योगों को अनुदान दिया जाना, धनिकों पर अपेक्षाकृत अधिक कराधान नहीं किया जाना और ढेर सारा मुनाफा कमाने वाली बड़ी कंपनियों से ज्यादा टैक्स न वसूलना।
फिर, एक समाज और एक राष्ट्र बतौर हमें भ्रष्टाचार को सहन नहीं करना चाहिए क्योंकि वह हमारे देश की प्रगति में सबसे बड़ी बाधा है। इसी तरह, जो भी चीजें राष्ट्र के बतौर हमें नुकसान पहुंचाती हैं, वे हमारी प्रगति को बाधित करती हैं। उदाहरणार्थ, जातिवाद और खाप पंचायतों व आरएसएस सहित वह ढांचा जो उसे मजबूती देता है।
आत्मपरीक्षण
हमें अपने आलस्य को भी सहन नहीं करना चाहिए और यहां मैं केवल शारीरिक आलस्य की बात नहीं कर रहा हूं अर्थात खाली बैठे रहना और दिन भर कुछ नहीं करना। मैं भावनात्मक आलस्य की बात भी कर रहा हूं, जब मैं यह कोशिश नहीं करता कि मैं दूसरों के दर्द को समझूं और उनके दृष्टिकोण से चीजों को देखने का प्रयास करूं। आलस्य आध्यात्मिक भी हो सकता है जैसे मैं यह जानने का प्रयास न करूं कि क्या सत्य, अच्छा और सुंदर है या मैं ईश्वर को ढूंढने की कोशिश न करूं या उसके साथ न चलूं। अंत मे आलस्य मानसिक भी हो सकता है जैसे मुझमें जिज्ञासा का पूर्णत: अभाव हो और मैं अपनी दुनिया के बारे में कुछ भी जानने का कोई प्रयास न करूं। न मेरी रूचि प्रकृति में हो, न कला में, न साहित्य में, न इतिहास में, न सामाजिक परंपराओं और न राजनैतिक व्यवस्था में।
मुझे मेरी आरामतलबी को भी नहीं सहना करना चाहिए। स्पष्ट शब्दों में कहूं तो ऐसा नहीं है कि हमें सुविधाओं से पूरी तरह मुंह मोड़ लेना चाहिए। अकारण असुविधा में रहने का कोई अर्थ नहीं है परंतु कब-जब सुविधा और आराम की तलाश, हमें आलसी बना देती है और हमें हमारी राजनीति या समाज या परिवार या हमारे व्यक्तिगत जीवन में भी जो परिवर्तन होने चाहिए, उन्हें लाने का प्रयास करने से रोकती है।
तथ्य यह भी है कि जैसा कि कवि टीएस इलियट ने कहा था, मानव बहुत ज्यादा यथार्थ सहन नहीं कर सकता। यही कारण है कि अयथार्थवादी फिल्में हमारे देश में ही नहीं पूरी दुनिया में बहुत लोकप्रिय हैं। जिन देशों में बालीवुड नहीं है वहां हालीवुड और ओपेरा हैं। और यही कारण है कि हमारे अखबार, पत्रिकाएं और टीवी चैनल कई ऐसे कार्यक्रम दिखाते हैं, जो हमें यथार्थ से दूर ले जाते हैं जैसे सनसनी फैलाने वाले और खेल व ज्योतिष पर आधारित कार्यक्रम। दूसरे शब्दों में, ऐसी चीजें जो पलायनवादी हैं या कुछ हद तक अच्छी भी हैं, जैसे मनोरंजन (जो कि काम के बीच हमें आराम देने और तरोताजा करने के लिए उपयोगी है) हमारे जीवन में इतना महत्वपूर्ण स्थान ले लेती हैं कि जो चीजें असल में महत्वपूर्ण हैं, उन्हें हम देख ही नहीं पाते और ना ही उनकी ओर ध्यान दे पाते हैं।
प्रिय शांति, मुझे आशा है कि तुम्हें यह समझ में आ गया होगा कि कई ऐसी चीजें हैं जिनके प्रति हमें असहिष्णु होना चाहिए और इसके साथ ही कई ऐसी चीजें भी हैं जिनके प्रति हमें सहिष्णु होना चाहिए। यह विडंबना है कि हमारे देश और हमारी संस्कृति में हम अक्सर गलत चीजों को सहते हैं और सही चीजों के प्रति असहिष्णु होते हैं।
सप्रेम,
दादू
(फारवर्ड प्रेस के जनवरी, 2016 अंक में प्रकाशित )