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गोविंद पानसरे के साथ कोल्हापुर की वह शाम

पानसरे साहब ने कहानी की शुरुआत महाराष्ट्र-कर्नाटक में सामाजिक सुधार आंदोलनों से की और बताया कि किस तरह सन् 1845 के बाद ब्राह्मणवाद-विरोधी सत्यशोधक आंदोलन तेज हुआ था। पानसरे के मुताबिक ज्योतिबा फुले की अगुवाई में यह एक शूद्र और अतिशूद्र समाज-आधारित आंदोलन था। इस आंदोलन में तमाम तरह के विषयों पर नये विचार भी सामने आये। पढ़ें, उर्मिलेश की किताब में संकलित आलेख का एक अंश

प्रस्तुत यात्रा वृतांत वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश की नवीनतम पुस्तक ‘मैम का गांव गोडसे की गली’ (संभावना प्रकाशन, हापुड़ से प्रकाशित) में संकलित अध्याय ‘गोविंद पानसरे के साथ कोल्हापुर की वह शाम’ का अंश है। इसे लेखक की अनुमति से यहां प्रकाशित किया गया है

स्थानीय राजनीति और स्थितियों को समझने के लिए मुझे कोल्हापुर में जिन कुछ प्रमुख लोगों से मिलना था, उनमें एक नाम गोविंद राव पानसरे का था। उनका फोन नंबर पहले ही मिल गया था। उनसे बातचीत भी हो गयी। उन्होंने मिलने की जगह और वहाँ पहुँचने का रास्ता मुझे अच्छे से समझा दिया। उसे मैंने अपने नोटबुक पर नोट कर लिया। लंच के कुछ देर बाद हम लोग निकल पड़े। पानसरे साहब के बारे में इस मुलाकात से पहले मैं कुछ भी नहीं जानता था। अजीब बात है, मैं हिंदी का एक ऐसा पत्रकार, जिसकी पढ़ाई-लिखाई देश के दो बड़े प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में हुई, उसे गोविंद पानसरे के बारे में कुछ भी नहीं मालूम था। हम हिंदी वालों की दुनिया कितनी सीमित है। हम अपने हिंदी वालों को पढ़ते हैं या फिर विदेशी विद्वानों को अंग्रेज़ी में पढ़ लेते हैं। हम पंजाबी, तेलुगू, मराठी, कन्नड़, बांग्ला, ओडिया या मलयालम के कितने विद्वानों को पढ़ते हैं! एक और बात, मैं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी या उसके छात्र-संगठन-एआईएसएफ से कभी संबद्ध नहीं रहा। अगर होता तो निश्चय ही पानसरे साहब को मैं जानता होता। मुझे बाद में पता चला था कि पानसरे साहब भाकपा से संबद्ध महाराष्ट्र के जाने-माने बौद्धिक हैं। औद्योगीकरण, श्रमिकों के मसले व आंदोलन, सामाजिक सुधार आंदोलन और महाराष्ट्र-कर्नाटक की राजनीति, उनकी विशेषज्ञता के प्रमुख विषय नज़र आये।

उस दिन गोविंद पानसरे साहब ने बातचीत में मुझे बेहद प्रभावित किया। पर, इस बात का आभास तक नहीं होने दिया कि वह कितने बड़े लेखक और विद्वान हैं! मैं उन्हें एक वाम बौद्धिक-कार्यकर्ता समझकर ही बात कर रहा था। ‘सकाल’ अख़बार से जुड़े मेरे मराठी पत्रकार-मित्र ने मुझे उनका यही परिचय दिया था। पानसरे साहब न सिर्फ कोल्हापुर या पश्चिम महाराष्ट्र अपितु संपूर्ण महाराष्ट्र की राजनीति और सामाजिक-आर्थिक संदर्भों को बहुत अच्छी तरह समझते थे। दूसरों को बताने और समझाने का उनका कौशल भी बेजोड़ था। उन्होंने मेरे सामने महाराष्ट्र में सन् 1845 से लेकर अब तक के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य का चित्र सा पेश कर दिया। बाहर से आया एक पत्रकार समझ, उन्होंने महाराष्ट्र के लंबे राजनैतिक सफ़र की कहानी जिस तरह कम शब्दों और ठोस तथ्यों के साथ सुनाई, वह सबके वश की बात नहीं है। एक तो उन्हें महाराष्ट्र के इतिहास के हरेक चरण के ढेरों तथ्य स्वयं के किसी सफ़र की तरह याद थे और दूसरी बात थी इस कहानी को प्रस्तुत करने का अद्भुत कौशल! उन्होंने कहानी की शुरुआत महाराष्ट्र-कर्नाटक में सामाजिक सुधार आंदोलनों से की और बताया कि किस तरह सन् 1845 के बाद ब्राह्मणवाद-विरोधी सत्यशोधक आंदोलन तेज हुआ था। पानसरे के मुताबिक ज्योतिबा फुले की अगुवाई में यह एक शूद्र और अति-शूद्र समाज-आधारित आंदोलन था। इस आंदोलन में तमाम तरह के विषयों पर नये विचार भी सामने आये। फुले ने ‘किसानों के हत्यारे’ शीर्षक पुस्तक भी लिखी थी। हंटर कमीशन को जो उन्होंने ज्ञापन दिया था, वह देखने लायक है। शिक्षा और नयी चेतना के महान प्रचारक थे— फुले दम्पत्ति! हर स्तर के आधुनिक विचारों के बीज फुले में दिखाई देते हैं। कांग्रेस पार्टी की स्थापना से पहले उन्होंने ‘एजूकेशन फॉर ऑल’ का नारा दिया था। उन सामाजिक सुधार आंदोलनों के समर्थन और संरक्षण के लिए उन्होंने कोल्हापुर के राजा की भूरि-भूरि प्रशंसा की।

गोविंद पानसरे और उर्मिलेश की तस्वीर

महाराष्ट्र में सामाजिक सुधार आंदोलन की पृष्ठभूमि की चर्चा करते हुए उन्होंने स्वतंत्रयोत्तर भारत में सूबे की राजनीति और कांग्रेस के विभिन्न खेमों की भूमिका पर विस्तार से प्रकाश डाला। सन् 1970 तक सूबे में कांग्रेस का संपूर्ण वर्चस्व रहा। उसके बाद वह जैसे-जैसे कमज़ोर होती गई, उसकी राजनीति और रणनीति भी पटरी से उतरती नजर आई। उसने वामपंथी और सोशलिस्ट संगठनों, खासतौर पर श्रमिक आंदोलनों से निपटने के लिए आरएसएस-शिवसेना द्वारा संरक्षित संगठनों और गुटों का सहारा लेना शुरू किया। इनमें असामाजिक और आपराधिक किस्म के लोग भी थे। बसंत राव नाइक और बसंत दादा पाटिल जैसे कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों की ऐसी भूमिका से आरएसएस-शिवसेना को ताकत मिलती गई। इसीलिए महाराष्ट्र की राजनीति के एक दौर में शिवसेना को ‘बसंत सेना’ (मुख्यमंत्री बसंत राव नाइक के नाम पर) कहा करते थे। नाइक के दौर में ही शिवसेना ने काफी ताकत बटोरी।

गोविंद पानसरे ने कोल्हापुर जिले और आसपास के क्षेत्रों में प्रगति और खुशहाली के पीछे मुख्य पहलू चीनी मिलों, दुग्ध-उत्पादन सहकारी समितियों और अन्य उद्योगों के विस्तार को बताया। उनके मुताबिक सिर्फ कोल्हापुर में 19 चीनी मिलें हैं। यहाँ की कोआपरेटिव मिल्क समितियाँ रोजाना 10 लाख लीटर दूध खरीदती हैं। यहाँ का दूध रोजाना मुंबई और गोवा में बेचा जाता है। चीनी, दूध, स्पीनिंग और अन्य छोटे-मझोले उपक्रम ही कोल्हापुर इलाके की प्रगति और अपेक्षाकृत खुशहाली के मुख्य कारण हैं। यहाँ की प्रति व्यक्ति आय पूरे देश में तीसरे नंबर पर है। यहाँ के सहकारी आंदोलन से स्थानीय नया नेतृत्व भी उभरा। शुरू में तो विकेंद्रीकरण हुआ इस सहकारी आंदोलन से। लेकिन, बाद में निहित स्वार्थों का यह अड्डा बनता गया। कुछ परिवारों का कब्ज़ा होता गया। महाराष्ट्र की राजनीति में शरद पवार इसी प्रक्रिया की देन हैं। इस आंदोलन ने महाराष्ट्र के श्रमिक आंदोलन और जेनुइन वामपंथी एवं सोशलिस्ट आंदोलन को भी कमजोर किया। कमजोर किया कहना भी शायद ठीक नहीं। ऐसे नेताओं के प्रपंच के चलते वह आंदोलन उठ ही नहीं सका।

गोंविद पानसरे ने मुझे बातचीत के लिए जिस इलाके में बुलाया था, वह किसी स्कूल या कॉलेज के पास था। यहाँ से कुछ ही दूरी पर छोटी-मोटी मिलों का इलाका था, जिनमें अनेक अब रुग्ण थीं या ठप्प हो चुकी थीं। इस खुशहाल इलाके में बेहाली भी अब दबे पाँव दाख़िल हो चुकी थी। अगर मेरे पास समय होता तो गोविंद पानसरे मुझे उस इलाके में ले जाने को भी तैयार थे। पर मुझे कल रत्नागिरी के लिए निकलना था और आज के बचे हुए समय का उपयोग कोल्हापुर में कुछ और लोगों से मुलाकात में करना था। मुझे क्या मालूम था कि ऐसे सुसंगत वामपंथी बुद्धिजीवी और नेता से ये मेरी पहली और आख़िरी मुलाकात होगी!

उर्मिलश द्वारा लिखित यात्रा वृतांत ‘मैम का गांव गोडसे की गली’ का आवरण पृष्ठ

हमारी मुलाकात के तकरीबन दस साल बाद इन्हीं गोविंद पानसरे को सांप्रदायिक-कट्टरपंथियों के एक गिरोह ने मार डाला। 16 फरवरी, 2015 को पानसरे दंपत्ति सुबह की सैर से अपने घर की तरफ लौट रहे थे कि मोटरसाइकिल से आये दो हत्यारों ने उन पर बिल्कुल पास से ही गोलियाँ बरसानी शुरू कर दीं। गोविंद पानसरे और उनकी पत्नी उमा पानसरे दोनों को गोलियाँ दागी गईं। दोनों को कोल्हापुर के एक अस्पताल में भर्ती कराया गया। उनकी पत्नी शल्यचिकित्सा और दवाओं से ठीक हो गईं लेकिन, गोविंद पानसरे को गोलियाँ छाती में लगी थीं। उनकी स्थिति बिगड़ती गई। अंततः उन्हें 20 फरवरी को एयरलिफ्ट कर मुंबई के ब्रिच कैंडी अस्पताल में भर्ती कराया गया। लेकिन उन्हें बचाया नहीं जा सका। उसी दिन उनका मुंबई में निधन हो गया। गोविंद पानसरे और उनकी पत्नी पर हमला करने वालों का तरीका बिल्कुल वैसा ही था, जैसा नरेंद्र दाभोलकर के हत्यारों ने अगस्त, सन् 2013 में अपनाया था। दाभोलकर की हत्या पुणे में सुबह की सैर के समय ही की गई थी। दाभोलकर देश के जाने-माने तर्कवादी विचारक और सामाजिक कार्यकर्ता थे।

पानसरे की हत्या जिस वक़्त हुई, राज्य में भाजपा नेता देवेंद्र फणनवीस की अगुवाई में भाजपा-शिवसेना गठबंधन की सरकार थी। जबकि दाभोलकर की हत्या के समय कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन की सरकार थी। इस तरह की हत्याओं के लिए महाराष्ट्र के सामाजिक संगठनों और मारे गये लोगों के परिजनों ने अपराधिक प्रवृत्ति के कुछ सांप्रदायिक कट्टरपंथी गिरोहों को जिम्मेदार ठहराया। ऐसे ज्यादातर गिरोहों के ठिकाने पुणे, मुंबई, सांगली या नागपुर, खासतौर पर पुणे में बताये गये। इन कट्टरपंथी गुटों के कुछ लोग गिरफ्तार भी हुए। पर इन मामलों में आज तक किसी को सजा नहीं हुई। ऐसी हत्याएँ सिर्फ महाराष्ट्र तक सीमित नहीं रहीं, कर्नाटक में भी होने लगीं। कर्नाटक के बेंगलूरु में दो शख्सियतों की बिल्कुल उसी तरह हत्या हुई थीं, जिस तरह नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे की हुई थीं। ये दोनों शख्सियतें थीं—कन्नड़ के बड़े लेखक और पूर्व कुलपति प्रो. एम एम कलबुर्गी और जानी-मानी पत्रकार-लेखिका गौरी लंकेश। इनके हत्यारों को आज तक कोर्ट में दोषी साबित कर दंडित नहीं किया गया। हत्या के आरोपी, भगोड़े या अज्ञात अपराधी जिन संस्थाओं या गिरोहों से जुड़े बताये जाते हैं, उनका देश के बड़े हिंदुत्ववादी कट्टरपंथी संगठनो से न सिर्फ संपर्क है अपितु उनका संरक्षण भी प्राप्त है।

नरेंद्र दाभोलकर, पानसरे, कलबुर्गी और गौरी लंकेश जैसों को योजना के तहत ख़त्म किया गया ताकि उनका वैचारिक अभियान भी खत्म हो जाये। लेकिन, वे सभी लोग अपने पीछे सुंदर और समावेशी समाज का सपना और अपने शब्द व कर्म की समृद्ध विरासत छोड़ गये हैं। पूरे देश में उनके रास्ते पर चलने वाले लाखों हैं। कुछ साल पहले मैंने गोविंद पानसरे की ‘शिवाजी कौन थे’ शीर्षक किताब पढ़ी थी। मैं इतिहास का जिज्ञासु विद्यार्थी रहा हूँ। लेकिन, शिवाजी पर मैंने इतना साफ और सुस्पष्ट लेखन कभी नहीं पढ़ा था। हालाँकि इस किताब को पानसरे महत्वपूर्ण शोधकर्ताओं के काम पर आधारित प्रस्तुति भर बताते हैं। इसकी भूमिका में वह लिखते हैं— “पुस्तिका में मेरी तरफ से नाम-मात्र का भी शोध नहीं है। पूर्व में अन्यान्य लोगों द्वारा जो कुछ उद्धृत किया गया है, पुस्तिका उन्हीं की ऋणी है; यानी कि तफसील और संदर्भ औरों के हैं, मेरी तो केवल प्रस्तुति है।” लेकिन, पानसरे साहब की यह प्रस्तुति बेजोड़ है। कोल्हापुर में हुई उनसे वह मुलाकात मुझे कभी नहीं भूलती! अपने ऊपर थोड़ी ग्लानि भी होती है कि मैं उनको पहले से क्यों नहीं जानता था, उन्हें पढ़ा और सुना क्यों नहीं था!

(अक्तूबर, सन् 2004 के नोट्स के आधार पर अप्रैल, सन् 2021 में लिखी यात्रा-कथा)

(प्रस्तुति : समीक्षा सहनी)   


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लेखक के बारे में

उर्मिलेश

करीब 38 वर्षों से सक्रिय वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश की गिनती देश के प्रमुख हिंदी पत्रकारों में होती है। उनकी प्रकाशित कृतियों में ‘बिहार का सच’ (1991), ‘योद्धा महापंडित’ (1993), ‘राहुल सांकृत्यायन : सृजन और संघर्ष’ (1994), ‘झारखंड : जादू जमीन का अंधेरा’ (1999), ‘झेलम किनारे दहकते चिनार’ (2004), ‘कश्मीर : विरासत और सियासत’ (2006), ‘भारत में आर्थिक सुधार के दो दशक’ (संपादन, 2010), ‘क्रिस्टेनिया मेरी जान’ (2016) और ‘गाजीपुर में क्रिस्टोफर कॉडवेल’ (2021) शामिल हैं।

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