मीडिया में सवर्णों के वर्चस्व की बात लगातार चर्चा में रही है। इस मुद्दे पर कई शोध भी हुए और इस तथ्य की पुष्टि भी हुई। यानी मीडिया पर सवर्णों का वर्चस्व है। निर्विवाद। लेकिन क्या पिछड़ी और दलित जातियों के लोग मीडिया में हैं ही नहीं? हम सवर्णों के वर्चस्व पर चिंता जताते हैं, शोध व सर्वे करते हैं, लेकिन क्या हमने कभी मीडिया में मौजूद पिछड़ी एवं दलित जातियों की गिनती करने का जोखिम उठाया। वास्तविकता यह है कि मीडिया में बहुजनों की संख्या पिछले वर्षों में तेजी से बढ़ी है। जरूरत है राजनीतिक एवं सामाजिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए इन्हें एकजुट करने की। मैंने पटना में यादव पत्रकारों की गिनती की थी। मुझे लगता था कि 10-12 लोग होंगे। लेकिन जब गिनती आरंभ की तो संख्या तीस का आंकड़ा पार कर गई। इस लिस्ट को मैंने अपने प्रियवरों को ई-मेल से भेज दिया। इस उम्मीद से कि वे हताशा पर नहीं, संभावनाओं पर सोचेंगे। इस पर एक तथाकथित मुखर पत्रकार का फोन आया। आपने लिस्ट जारी कर दी, कई लोगों की नौकरी चली जाएगी।
मैंने कुछ समय तक प्रभात खबर, पटना में काम किया। माना जाता है कि इस अखबार में राजपूतों की बहुलता है। वास्तविकता यह है कि प्रभात खबर में राजपूतों से ज्यादा संख्या पिछड़ी जाति के पत्रकारों की है। उनमें भी कुर्मियों की बहुलता है। जब मैं हिन्दुस्तान पटना में था, उस समय कई पत्रकारों ने मुझे अकेले पाकर अपनी जाति बताते हुए कहा कि हम भी पिछड़ी जाति के हैं, लेकिन किसी से कहिएगा नहीं। जब भी मैंने जाति पूछना शुरू किया तो सवर्ण पत्रकारों ने तो अपनी जाति सकारात्मक रूप से बता दी लेकिन पिछड़े एवं दलित पत्रकारों ने पहले भाषण दिया कि जाति पूछते हैं, जातिवाद करते हैं। फिर एकदम पीछे पडऩे पर जाति बतायी।
यह पिछड़े एवं दलित पत्रकारों की आत्मघाती मानसिकता है कि वे सवर्णों पर जाति के नाम पर वर्चस्व का आरोप लगाते हैं, परन्तु अपनी जाति बताने के समय जातिनिरपेक्ष बन जाते हैं। जब तक पिछड़े एवं दलित पत्रकारों में जाति बताने का आत्मविश्वास नहीं आएगा, तब तक वे सवर्णों के वर्चस्व का रोना ही रोएंगे। उसे तोड़ नहीं पाएंगे। वर्चस्व तोडऩे के लिए आपको भी जाति के मुद्दे पर आक्रामक होना होगा। यही एक विकल्प है और रास्ता भी।
(फारवर्ड प्रेस के अगस्त 2013 अंक में प्रकाशित)