“हर सामाजिक समूह खुद अपने साथ आवयविक रूप से बुद्धिजीवियों के एक या अधिक संस्तरों का निर्माण करता है जो उसे न सिर्फ उसकी आर्थिक बल्कि सामाजिक तथा राजनीतिक भूमिका के प्रति सचेत करते हैं।”
(अंतोनियो ग्राम्शी, ‘आर्गेनिक इंटेलेक्चुअल’ की अवधारणा में बुद्धिजीवियों की स्वायत्तता और निरपेक्षता के सवाल पर)
‘न्यायाधीशों में भी एक आम आदमी की तरह भावनाएं, पूर्वाग्रह और पक्षपात जैसी बातें होती हैं।’
(डॉ. बीआर आम्बेडकर, संविधान सभा में बहस के दौरान 24 मई, 1949 को न्यायपालिका के संबंध में)
भारत का सवर्ण आभिजात्य वर्ग न्यायपालिका की निरपेक्षता और उसकी स्वायत्तता का पुरजोर समर्थक रहा है। राजनीति में पिछड़ों-दलितों के वर्चस्व के बाद यह धारणा और जोर पकड़ती गई। प्रतिक्रियास्वरूप बहुसंख्यक समाज के हितों और संसद की राय के खिलाफ न्यायपालिका अपनी ‘सुपरमेसी’ दिखाने के लिए लगातार फैसले सुनाती रही। हाल में न्यायपालिका द्वारा आरक्षण पर दिए गए ‘एम्स फैकल्टी बनाम भारत सरकार’ और पटना हाईकोर्ट द्वारा राज्य सेवाओं की प्रारंभिक परीक्षा में आरक्षण हटाने संबंधित फैसला इसके उदाहरण हैं। मंडल आयोग (1993) के समय ही न्यायपालिका ने अपनी स्वायत्तता का दावा किया तथा नियुक्तियों के लिए ‘कॉलेजियम पद्धति’ बना ली। इस पद्धति द्वारा न्यायपालिका ने अपनी नियुक्तियों में संसद और सरकार के हस्तक्षेप को दरकिनार कर दिया और अपनी नियुक्तियां खुद करने लगी! बहरहाल, गत 5 सितंबर, 2013 को संसद में प्रस्तुत ‘न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक’ और उससे पहले पी. सदाशिवम् द्वारा न्यायपालिका में आरक्षण के समर्थन से पिछड़े वर्गों की न्यायपालिका में भागीदारी की उम्मीद जागी है।
न्यायपालिका के प्रति सम्मान रखने के बावजूद हमें बहुजनों में व्याप्त उस आम धारणा को स्वीकार करना होगा कि ‘कॉलेजियम पद्धति’ की ‘स्वयं नियुक्ति’ प्रक्रिया ने न्यायपालिका में सवर्णों को कुंडली मारकर बैठने का अवसर प्रदान किया। वस्तुत: सामाजिक न्याय के विभिन्न मसलों पर न्यायपालिका के पक्षपाती रुख और लोकतंत्र में प्रतिनिधित्व और स्वायत्तता के सवालों के आलोक में निम्न जातियां अरसे से न्यायपालिका में आरक्षण की मांग करती आ रही हैं। इधर विभिन्न आयोगों की रिपोर्टों और स्वतंत्र सर्वेक्षणों के द्वारा एकत्र आंकड़ों में न्यायपालिका में ओबीसी/एससी/एसटी की अनुपस्थिति से उनकी मांग और बलवती हुई है।
19 जुलाई को भारत के 40वें मुख्य न्यायाधीश का पदभार संभालने से पहले न्यायमूर्ति पी. सदाशिवम् ने न्यायपालिका में आरक्षण की वकालत की। उन्होंने कहा कि विभिन्न समुदायों और संस्कृतियों वाले देश की न्यायपालिका में सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व जरूरी है। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में ओबीसी/एससी/एसटी न्यायाधीशों की नियुक्ति होनी चाहिए।
न्यायपालिका में आरक्षण के पक्षधर पी. सदाशिवम् तमिलनाडु के ओबीसी समुदाय से आते हैं। वे अपने परिवार के पहले ‘ग्रेजुएट’ हैं।
न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक क्या है?
120वें संविधान संशोधन द्वारा लाया गया ‘न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक-2013’ हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्तियों में 1993 से लागू ‘कॉलेजियम पद्धति’ का स्थान लेगा। 1993 से पहले न्यायाधीशों की नियुक्तियों में कार्यपालिका की मंजूरी जरूरी थी परंतु 1993 में ‘एसपी गुप्ता बनाम यूनियन ऑफ इंडिया’ और ‘सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया’ के फैसले से सुप्रीम कोर्ट ने ‘कॉलेजियम पद्धति’ को लागू किया और न्यायाधीश अपनी नियुक्तियां स्वयं करने लगे। ‘कॉलेजियम पद्धति’ से कार्यपालिका और विधायिका के नियंत्रण से न्यायपालिका ने खुद को मुक्त कर लिया। ‘कॉलेजियम’ में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और पांच वरिष्ठ जजों की एक कमेटी हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति करती है। पारदर्शिता के अभाव के कारण जजों की नियुक्ति में बड़े पैमाने पर भाई-भतीजावाद होता है। ‘कॉलेजियम पद्धति’ से विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच का नाजुक संतुलन भी बिगड़ा है और न्यायपालिका का कार्यपालिका और विधायिका से टकराव बढ़ा है। गत 5 सितंबर को राज्यसभा में विधेयक पेश करते हुए कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा- ‘1993 में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 124 (2) की नई व्याख्या कर ‘कॉलेजियम’ से जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया को बदल दिया। अदालत ने संविधान को फिर से लिखने का कार्य किया है, इसलिए सरकार को विधेयक लाना पड़ रहा है।” सभी पार्टियों के सांसदों ने लगभग एक सुर में कहा कि “कोई संस्था अपनी नियुक्तियां स्वयं कैसे कर सकती है।” ‘न्यायिक नियुक्ति आयोग’ बनने से ‘कॉलेजियम पद्धति’ समाप्त हो जाएगी। राज्यसभा में पास होने के बाद इस विधेयक को राज्यों की मंजूरी के लिए भेज दिया गया है। कानून बनने के लिए इसे कम से कम आधे राज्यों की मंजूरी मिलना जरूरी है।
‘न्यायिक नियुक्ति आयोग’ के तहत हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक समिति बनेगी, जिसके सदस्य भारत के मुख्य न्यायाधीश, सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठ जज, केन्द्रीय कानून मंत्री और दो प्रतिष्ठित व्यक्ति होंगे। इन प्रतिष्ठित व्यक्तियों का चुनाव प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और मुख्य न्यायाधीश करेंगे। कानून मंत्रालय के सचिव इसके संयोजक होंगे। मु्ख्य न्यायाधीश के न्यायपालिका में आरक्षण के आश्वासन और ‘न्यायिक सेवा आयोग’ के गठन के बावजूद भी प्रतिनिधित्व के सवाल पर अनिश्चितता बरकरार है। ‘न्यायिक सेवा आयोग’ किस प्रकार कार्य करेगा, क्या उसमें एससी/एसटी/ओबीसी को प्रतिनिधित्व दिया जाएगा आदि सवालों पर सरकार की चुप्पी को तोड़ऩा सामाजिक न्याय की ताकतों के लिए बड़ी चुनौती है।
(फारवर्ड प्रेस के अक्टूबर 2013 अंक में प्रकाशित)
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