रांची : 14 और 15 जून को झारखंडी भाषा साहित्य-संस्कृति अखाड़ा की ओर से आयोजित दो दिवसीय सेमिनार में देश भर से आए विद्वानों के विचार-विमर्श के दौरान यह विचार सामने आया कि आदिवासी साहित्य की बुनियादी शर्त है उसमें आदिवासी दर्शन के तत्वों का होना। जिस साहित्य में प्रकृति की लय-ताल और संगीत का अनुसरण नहीं हो, संपूर्ण जीव-जगत की अवहेलना हो, जो धनलोलुप और बाजारवादी हिंसा और लालसा का नकार नहीं करे, जहां सहानुभूति स्वानुभूति की बजाय सामूहिक अनुभूति का प्रबल स्वर हो, जहां संगीत न हो और जो मूल आदिवासी भाषाओं में नहीं रचा गया हो वह आदिवासी साहित्य नहीं है। सेमिनार में आदिवासी साहित्यि का 15 सूत्रीय रांची घोषणापत्र भी जारी किया गया।
फारवर्ड प्रेस के जुलाई, 2014 अंक में प्रकाशित)
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