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अपने संघर्ष के लिए मंच तलाशो

सोचो कि महात्मा फुले भी वह सब कुछ नहीं कर पाते, जो उन्होंने किया, यदि वे स्काटिश मिशन हाईस्कूल में न पढ़े होते, उन्होंने अपनी पत्नी को शिक्षित न किया होता (जो कि उन दिनों एक क्रांतिकारी कदम था), लड़कियोें के लिए स्कूल न शुरू किया होता (जो उससे भी ज्यादा क्रांतिकारी कदम था), विधवाओं का पुनर्विवाह करवाने की पहल न की होती (जो अभूतपूर्व क्रांतिकारी कदम था), सत्यशोधक समाज की स्थापना न की होती और पुणे नगरपालिका में काम न किया होता

प्रिय दादू,

दुनिया में इतना अन्याय है।

इससे लड़ने के लिए हमारी संघर्ष नीति क्या होनी चाहिए?

सप्रेम
आकांक्षा

प्रिय आकांक्षा,

मुझे बहुत खुशी है कि अन्य कई लोगों की तरह, तुम भी हमारी दुनिया में व्याप्त अन्याय से लड़ना चाहती हो। जहां तक इसकी रणनीति का सवाल है, इसे हम दो भागों में बांट सकते हैं-‘बाह्य स्थिति निर्धारण‘ और ‘आंतरिक शक्ति‘। इस बार मैं केवल बाह्य स्थिति निर्धारण के बारे में बात करूंगा। दूसरे मुद्दे पर चर्चा को हम, मेरे अगले पत्र पर छोड़ देते हैं।

यह अतिआवश्यक है कि हम अपनी ‘बाह्य स्थिति का निर्धारण‘ बहुत सोच-समझकर करें क्योंकि जो स्थिति किसी दूसरे व्यक्ति के लिए ठीक हो सकती है वह तुम्हारे लिए भी ठीक हो, यह आवश्यक नहीं है। तुम्हें अपने लिए एक ऐसी ‘स्थिति‘ या ‘मंच‘ की तलाश करनी है जो

1. तुम्हारी क्षमताओं और योग्यताओं के अनुरूप हो

2. जहां तक संभव हो, तुम्हारी कमियों और कमजोरियों की पूर्ति करे और

3. तुम्हें सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने का अवसर देे।

इन तीन तत्वों पर हम एक-एक कर चर्चा करेंगे।

तुम्हारा मंच क्या हो?

अन्याय या तो किसी व्यवस्था में निहित होता है या इसके पीछे किसी व्यक्ति द्वारा अपनी शक्तियों का दुरूपयोग होता है। उदाहरणार्थ, हमारे देश में बहुत से लोग गुंडागर्दी और दादागिरी इसलिए करते हैं क्योेंकि एक राष्ट्र के रूप में, हमने कानून का पालन करना नहीं सीखा है। इसलिए हमें ढेर सारे पुलिस वालों और अदालतों की जरूरत पड़ती है-और पुलिस और अदालतें भी कमजोर और भ्रष्ट हैं। तुम केवल अपने बल पर गुंडागर्दी या दादागिरी का मुकाबला कर सकती हो परंतु यदि तुम्हें कोई मजबूत मंच या स्थिति उपलब्ध होगी तो संघर्ष करने की तुम्हारी शक्ति में जबरदस्त इजाफा होगा।

उदाहरणार्थ, यदि तुम स्कूल की अध्यापिका या प्राचार्या हो तो तुम्हारी ताकत किसी विद्यार्थी के मुकाबले कहीं ज्यादा होगी। इसी तरह, अगर तुम ऊँची-पूरी और शारीरिक दृष्टि से मजबूत या बहुत लोकप्रिय होगी तो तुम्हारी ताकत अन्य विद्यार्थियों की तुलना में ज्यादा होगी। यदि तुम पुलिस अधिकारी या जज हो या किसी ऐसे समूह या संगठन की सदस्य हो जिसका गठन भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए किया गया हो तो तुम यह लड़ाई बेहतर लड़ सकोगी। इसलिए, यह सोचो कि तुम्हें किस तरह का मंच उपलब्ध है। क्या तुम किसी छात्र संगठन की नेता हो, अध्यापक या अधिकारी हो, गृहणी हो या केवल एक बेरोजगार व्यक्ति हो? सोचो कि महात्मा फुले भी वह सब कुछ नहीं कर पाते, जो उन्होंने किया, यदि वे स्काटिश मिशन हाईस्कूल में न पढ़े होते, उन्होंने अपनी पत्नी को शिक्षित न किया होता (जो कि उन दिनों एक क्रांतिकारी कदम था), लड़कियोें के लिए स्कूल न शुरू किया होता (जो उससे भी ज्यादा क्रांतिकारी कदम था), विधवाओं का पुनर्विवाह करवाने की पहल न की होती (जो अभूतपूर्व क्रांतिकारी कदम था), सत्यशोधक समाज की स्थापना न की होती और पुणे नगरपालिका में काम न किया होता।

तुम्हारी ताकत और कमजोरियों के अनुरूप मंच

तुम्हारे पास चाहे जो भी मंच हो, आदर्श स्थिति यह होगी कि वह तुम्हारी ‘योग्यताओं और क्षमताओं के अनुरूप हो‘। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारी दुनिया में बहुत कड़ी प्रतियोगिता है और तुम किस मंच पर पहुंच सकती हो, यह तुम्हारी क्षमताओं, योग्यताओं, अनुभव और ट्रेक रिकार्ड पर निर्भर करता है।

मेरे कहने का आशय यह है कि यद्यपि यह सही है कि जो मंच तुम्हें आज उपलब्ध है, वह तुम्हारे लिए अन्याय कम करने की प्रभावकारी रणनीति को लागू करने के लिए भले ही सर्वोत्तम न हो परंतु तुम्हारा अतीत, जो तुम्हें वर्तमान मंच तक लाया है, आदर्श मंच की तलाश में तुम्हारा मददगार हो सकता है। मैं यह बात तुम्हें एक उदाहरण से समझाता हूं। मान लो कि तुमने हाईस्कूल या स्नातक परीक्षा पास की है और तुम किसी बड़ी कंपनी के लिए दो या तीन सालों से काम कर रही हो। यह कई मायनों में एक शानदार मंच है। परंतु प्रश्न यह है कि क्या यह तुम्हारे लिए सर्वोत्तम मंच है, जहां से तुम अन्याय के विरूद्ध लड़ सकती हो?

इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए हमें आदर्श मंच के दूसरे पहलू पर नजर डालनी होगी और वह यह कि मंच ऐसा होना चाहिए, जो तुम्हारी कमजोरियों और कमियों की पूर्ति कर सके। इसका अर्थ यह है कि तुम्हें अपने चरित्र और व्यवहार पर विचार करना चाहिए और दूसरों से भी इस बारे में पूछना चाहिए ताकि तुम अपनी कमजोरियों और कमियों से वाकिफ हो सको। तभी तुम इस तरह से काम कर सकोगी कि तुम्हारे आसपास ऐसे लोग या व्यवस्थाएं हों जो तुम्हारी कमियों और कमजोरियों की पूर्ति कर सकें। उदाहरणार्थ, अगर तुम बहुत प्रभावी वक्ता हो परंतु प्रशासनिक काम करना तुम्हें अच्छा नहीं लगता हो तो तुम्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि तुम्हारे साथ कोई अच्छा प्रशासक हो। किसी भी रणनीति को सफलतापूर्वक लागू करने के लिए कई तरह के कौशल की आवश्यकता होती है और मैं गारंटी से कह सकता हूं कि किसी एक व्यक्ति में ये सभी कौशल नहीं हो सकते।

आदर्श मंच का तीसरा पहलू यह है कि वह उस स्तर के अनुरूप होना चाहिए, जिस स्तर के अन्याय के विरूद्ध तुम लड़ना चाहती हो। अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के कारण होने वाला अन्याय, उस अन्याय से भिन्न है जो हमारे राष्ट्रीय स्तर पर कुछ लोगों द्वारा संविधान का पालन नहीं करने से उपजता होता है। तुम्हारे शहर या गांव के स्तर पर होने वाला अन्याय इससे भिन्न होता है। इसी तरह, जिस कंपनी या संगठन में तुम काम करती हो (और इसमें स्कूल व कालेज शामिल हैं), वहां होने वाले अन्याय की प्रकृति, उपर्युक्त चारों स्तरों पर होने वाले अन्याय से भिन्न होती है।

गठजोड़ बनाओ

यहां मैं यह कहना चाहूंगा कि इन सभी स्तरों में अंतर्सबंध होता है। कोई भी वैश्विक नीति या ढांचा तब तक निरर्थक है जब तक कि उसे स्थानीय स्तर पर लागू नहीं किया जाए। दूसरी ओर, राष्ट्रीय नियमों और संस्कृति का असर स्थानीय स्तर पर अनिवार्य रूप से पड़ता है। यही कारण है कि हम चाहे किसी भी स्तर (वैश्विक, राष्ट्रीय या स्थानीय) पर संघर्ष कर रहे हों, हमें अन्य सभी स्तरों से सहायता की आवश्कता होती है। अतः तुम्हें अपने संघर्ष में मदद पाने और उसे मजबूती देने के लिए गठजोड़ों का निर्माण करना होगा। ये गठजोड़ न केवल उध्र्वाधर अर्थात स्थानीय से वैश्विक स्तर तक होने चाहिए बल्कि क्षैतिज, अर्थात स्कूल शिक्षकों से लेकर सामुदायिक नेताओं तक, पुलिस से लेकर अदालतों तक व गीत लेखकों से लेकर मीडिया तक भी होने चाहिए।

तुम यह पाओगी कि गठजोड़, अन्याय से लड़ने वाले हर महान आंदोलन का भाग रहे हैं चाहे वह मंडेला का आंदोलन हो, मदर टेरेसा का या मार्टिन लूथर किंग का। महात्मा और सावित्रीबाई फुले ने भारत की प्रथम ‘स्त्रीवादियों‘ जैसे पंडिता रमाबाई, ताराबाई शिन्दे और मुक्ताबाई के साथ मिलकर काम किया।

अंत में मैं जोर देकर कहना चाहूंगा कि अन्याय के विरूद्ध लड़ने का साहस उपलब्ध मंच की ताकत या मजबूती पर निर्भर नहीं करता और ना ही इसके मूल में हमारे गठजोड़ होते हैं। अंततः लड़ने की ताकत आंतरिक या परालौकिक स्त्रोतों से मिलती है। इनके बारे में मैं अपने अगले पत्र में बात करूंगा।
सप्रेम

दादू

(फारवर्ड प्रेस के नवम्बर 2014 अंक में प्रकाशित)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

दादू

''दादू'' एक भारतीय चाचा हैं, जिन्‍होंने भारत और विदेश में शैक्षणिक, व्‍यावसायिक और सांस्‍कृतिक क्षेत्रों में निवास और कार्य किया है। वे विस्‍तृत सामाजिक, आर्थिक और सांस्‍कृतिक मुद्दों पर आपके प्रश्‍नों का स्‍वागत करते हैं

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