राम हिन्दुओं के लिये आदर्श महापुरुष ही नहीं परम पूजनीय देवता भी हैं। उनके जीवन को लेकर जितनी बड़ी संख्या में हिन्दी, संस्कृत के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाओं में रामकाव्य लिखा गया है वह उनको अतिमानवीय तो प्रदर्शित करता ही है, दुनिया भर के सारे अनुकरणीय गुणों से सम्पन्न भी दिखाता है। यदि कोई समस्त श्रेष्ठ विशेषणों से विभूषित धीरोदात्त नायक की छवि को अविकल रूप में देखना चाहता है तो उसकी यह इच्छा राम पर लिखे किसी भी महाकाव्य को पढ़ कर पूरी हो सकती है। इसलिये उन पर लिखे गये काव्यों को न केवल भक्ति भाव से पढ़ा व सुना जाता है बल्कि उनके चरित्र की रंगमंच प्रस्तुति को भाव विभोर होकर देखा भी जाता है। लेकिन ऐसे भी लोग हैं और उनकी संख्या निश्चय ही नगण्य नहीं है, जो राम के इस महिमा मंडन से अभिभूत नहीं होते और उनकी सर्वश्रेष्ठता को चुनौती देते हैं। उन्हें लगता है कि राम को पुरुषोत्तम के रूप में प्रतिष्ठित करने की हठीली मनोवृत्ति ने जान बूझकर उनके आसपास विचरने वाले चरित्रों को बौना बनाया है, साथ ही उनका विरोध करने वालों को दुनिया की सारी बुराइयों का प्रतीक बनाकर लोगों की नजरों में घृणास्पद भी बना दिया है। ऐसे लोग जब पत्र-पत्रिकाओं या पुस्तकों के जरिये अपनी बात रखने लगते हैं, तो उन्हें नास्तिक, धर्मद्रोही एवं बुराई के प्रतीक रावण का वंशज घोषित कर उनकी आवाज को दबाने की कोशिश की जाती है और अधिसंख्य हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं को आहत करने की कुचेष्टा बताकर प्रतिबन्धित कर दिया जाता है। लेकिन सारे खतरों का मुकाबला करते हुए भी लोग अपनी बात कहने से चूकते नहीं। राम के आदर्श चरित्र का गुणगान करने वाली सैकड़ो रामकथाओं के बरक्स कई ऐसी किताबें आई हैं या आ रही हैं जो रामायण की अपने ढंग से व्याख्या करती हैं और राम के विशालकाय व्यक्तित्व के सामने निरीह या दुष्ट बनाये गये चरित्रों की व्यथा कथा कहती हैं। राम के चरित्रगत दोषों को उजागर कर वे इन उपेक्षित, उत्पीड़ित लोगों के अपने प्रति हुए अन्यायों, अत्याचारों को सामने रखती हैं। ऐसी ही एक किताब का नाम है ‘सच्ची रामायाण’, जिसे 14 सितम्बर 1999 को महज इस वजह से इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अस्थायी तौर पर प्रतिबंधित कर दिया था क्योंकि वह अधिकतर अन्य रामायणों की तरह राम के विश्ववन्द्य स्वरूप को ज्यों का त्यों प्रस्तुत नहीं करती।
इस रामायण के मूल लेखक हैं ई. वी. रामास्वामी पेरियार, जो 1879 में जन्मे और 1973 तक जीवित रहे। वह एक सक्रिय स्वाधीनता सेनानी, कट्टर नास्तिक, प्रखर समाजवादी चिन्तक, नशाबन्दी के घनघोर समर्थक और क्रांतिकारी समाज सुधारक थे। उन्होंने, अस्पृश्यता, जमींदारी, सूदखोरी, स्त्रियों के साथ भेदभाव तथा हिन्दी भाषा के साम्राज्यवादी फैलाव के विरुद्ध आजीवन, पूरे दमखम के साथ, संघर्ष किया। कांग्रेस के राष्ट्रीयतावाद को वह मान्यता नहीं देते थे तथा गांधी जी के सिद्धांतों को प्रच्छन्न ब्राह्मणवाद बताते हुए उनकी तीखी आलोचना करते थे। वह द्रविड़ों के अविवाद्य रहनुमा तो थे ही, दक्षिण में तर्क-बुद्धिवाद के अनन्य प्रचारक व प्रसारक भी थे। संक्षेप में यदि उन्हें दक्षिण का आंबेडकर कहा जाय तो शायद ही किसी को कोई आपत्ति हो। 1925 में उन्होंने ‘कुडियारासु’ (गणराज्य) नामक एक समाचार पत्र तमिल में निकालना शुरू किया। 1926 में ‘सैल्फ रेस्पेक्ट लीग’` की स्थापना की और 1938 में जस्टिस पार्टी को पुनर्जीवित किया। 1941 में ‘द्रविडार कषगम’ के झण्डे तले उन्होंने सारी ब्राह्मणेत्तर पार्टियों को इकट्ठा किया और मृत्युपर्यन्त समाजसुधार के कार्यों में पूरी निष्ठा के साथ जुटे रहे।
लगभग 50 साल पहले उन्होंने तमिल में एक पुस्तक लिखी, जिसमें वाल्मीकि द्वारा प्रणीत एवं उत्तर भारत में विशेष रूप से लोकप्रिय रामायण की इस आधार पर कटु आलोचना की कि इसमें उत्तर भारत आर्य जातियों को अत्यधिक महत्व दिया गया है और दक्षिण भारतीय द्रविड़ों को क्रूर, हिंसक, अत्याचारी जैसे विशेषण लगाकर न केवल अपमानित किया गया है बल्कि राम-रावण कलह को केन्द्र बनाकर राम की रावण पर विजय को दैवी शक्ति की आसुरी शक्ति पर, सत्य की असत्य पर और अच्छाई की बुराई पर विजय के रूप में गौरवान्वित किया गया है। इसका अंग्रजी अनुवाद ‘द रामायण : ए ट्रू रीडिंग` के नाम से सन् 1969 में किया गया। इस अंग्रेजी अनुवाद का हिन्दी में रूपान्तरण 1978 में ‘रामायण : एक अध्ययन` के नाम से किया। उल्लेखनीय है कि ये तीनों ही संस्करण काफी लोकप्रिय हुए। क्योंकि इसके माध्यम से पाठक अपने आदर्श नायक-नायिकाओं के उन पहलुओं से अवगत हुए जो अब तक उनके लिये वर्जित एवं अज्ञात बने हुए थे। ध्यान देने योग्य तथ्य यह सामने आया कि इनकी मानवोचित कमजोरियों के प्रकटीकरण ने लोगों में किसी तरह का विक्षोभ या आक्रोश पैदा नहीं किया, बल्कि इन्हें अपने जैसा पाकर इनके प्रति उनकी आत्मीयता बढ़ी और अन्याय, उत्पीड़न ग्रस्त पात्रों के प्रति सहानुभूति पैदा हुई।
लेकिन जो लोग धर्म को व्यवसाय बना राम कथा को बेचकर अपना पेट पाल रहे थे, उनके लिये यह पुस्तक आंख की किरकिरी बन गई। क्योंकि राम को अवतार बनाकर ही वे उनके चमत्कारों को मनोग्राह्य और कार्यों को श्रद्धास्पद बनाये रख सकते थे। यदि राम सामान्य मनुष्य बन जाते हैं और लोगों को कष्टों से मुक्त करने की क्षमता खो देते हैं तो उनकी कथा भला कौन सुनेगा और कैसे उनकी व उन जैसों की आजीविका चलेगी! इसीलिये प्रचारित यह किया गया कि इससे सारी दुनिया में बसे करोड़ो राम भक्तों की भावनाओं के आहत होने का खतरा पैदा हो गया है। इसलिए इस पर पाबन्दी लगाया जाना जरूरी है। और पाबन्दी लगा भी दी गई। लेकिन उसी न्यायालय ने बाद में अस्थायी प्रतिबंध को हटा दिया और अपने फैसले में स्पष्ट कहा-‘हमें यह मानना संभव नहीं लग रहा है कि इसमें लिखी बातें आर्य लोगों के धर्म को अथवा धार्मिक विश्वासों को चोट पहुंचायेंगी। ध्यान देने लायक तथ्य यह है कि मूल पुस्तक तमिल में लिखी गई थी और इसका स्पष्ट उद्देश्य तमिल भाषी द्रविड़ों को यह बताना था कि रामायण में उत्तर भारत के आर्य-राम, सीता, लक्ष्मण आदि का उदात्त चरित्र और दक्षिण भारत के द्रविड़-रावण, कुंभकरण, शूर्पणखा आदि का घृणित चरित्र दिखला कर तमिलों का अपमान किया गया है। उनके आचरणों, रीति-रिवाजों को निन्दनीय दिखलाया गया है। लेखक का उद्देश्य जानबूझकर हिन्दुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचाने की बजाय अपनी जाति के साथ हुए अन्याय को दिखलाना भी तो हो सकता है। निश्चय ही ऐसा करना असंवैधानिक नहीं माना जा सकता। ऐसा करके उसने उसी तरह अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार का उपयोग किया है जैसे रामकथा प्रेमी आर्यों को श्रेष्ठ बताकर करते आ रहे हैं। इस तरह तो कल दलितों का वह सारा साहित्य भी प्रतिबंधित हो सकता है जो दलितों के प्रति हुए अमानवीय व्यवहार के लिये खुल्लम-खुल्ला सवर्ण लोगों को कठघरे में खड़ा करता है।
पेरियार की इस पुस्तक को तमिल में छपे लगभग 50 साल और हिन्दी, अंग्रेजी में छपे लगभग तीन दशक हो चले हैं। अब तक इसके पढ़ने से कहीं कोई हिंसक प्रतिक्रिया नहीं दर्ज है। फिर अब ऐसी कौन सी नई परिस्थितियां पैदा हो गई हैं कि इससे हिन्दू समाज खतरा महसूस करने लगा है? यह कैसे हो सकता है कि संविधान लोगों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार तो दे परन्तु धर्म के बारे में कुछ भी पढ़ने व जानने के अधिकार पर अंकुश लगा दे। यह कैसे न्यायसंगत हो सकता है कि लोग रामायण, महाभारत, गीता आदि धार्मिक ग्रन्थों को तो पढ़ते रहें पर उनकी आलोचनाओं को पढ़ने से उन्हें रोक दिया जाय। जहां तक जनभावनाओं का सवाल है, इसका इकरतफा पक्ष नहीं हो सकता। यदि राम और सीता की आलोचना से लोगों को चोट लगती है तो शूद्रों, दलितों व स्त्रियों के बारे में जो कुछ हिन्दू धर्म ग्रन्थों में लिखा गया है क्या उससे वे आहत नहीं होते? यह बात भी विचारणीय है।
वस्तुत: पेरियार की ‘सच्ची रामायण` ऐसी अकेली रामायण नहीं है, जो लोक प्रचलित मिथकों को चुनौती देती है और रावण के बहाने द्रविड़ों के प्रति किये गये अन्याय का पर्दाफाश कर उनके साथ मानवोचित न्यायपूर्ण व्यवहार करने की मांग करती है। दक्षिण से ही एक और रामायण अगस्त 2004 में आई है, जो उसकी अन्तर्वस्तु का समाजशास्त्रियों विश्लेषण करती है और पूरी विश्वासोत्पादक तार्किकता के साथ प्रमाणित करती है कि राम में और अन्य राजाओं में चरित्रिक दृष्टि से कहीं कोई फर्क नहीं है। वह भी अन्य राजाओं की तरह प्रजाशोषक, साम्राज्य विस्तारक और स्वार्थ सिद्धि हेतु कुछ भी कर गुजरने के लिये सदा तत्पर दिखाई देते हैं। परन्तु यहां हम पेरियार की नजरों से ही वाल्मीकि की रामायण को देखने की कोशिश करते हैं।
वाल्मीकि रामायण में अनेक प्रसंग ऐसे हैं, जो तर्क की कसौटी पर तो खरे उतरते ही नहीं। जैसे वह कहती है कि दशरथ 60 हजार बरस तक जीवित रह चुकने पर भी कामवासना से मुक्त नहीं हो पाये। इसी तरह वह यह भी प्रकट करती है कि उनकी केवल तीन ही पत्नियां नहीं थी। इन उद्धरणों के जरिये पेरियार दशरथ के कामुक चरित्र पर से तो पर्दा उठाते ही हैं, यह भी साबित करते हैं कि उस जमाने में स्त्रियों केवल भोग्या थीं। समाज में इससे अधिक उनका कोई महत्व नहीं था। दशरथ को अपनी किसी स्त्री से प्रेम नहीं था। क्योंकि यदि होता तो अन्य स्त्रियों की उन्हें आवश्यकता ही नहीं होती। सच्चाई यह भी है कि कैकेयी से उनका विवाह ही इस शर्त पर हुआ था कि उससे पैदा होने वाला पुत्र उनका उत्तराधिकारी होगा। इस शर्त को नजरन्दाज करते हुए जब उन्होंने राम को राजपाट देना चाहा तो वह उनका गलत निर्णय था। राम को भी पता था कि असली राजगद्दी का हकदार भरत है, वह नहीं। यह जानते हुए भी वह राजा बनने को तैयार हो जाते हैं। पेरियार के मतानुसार यह उनके राज्यलोलुप होने का प्रमाण है।
कैकेयी जब अपनी शर्तें याद दिलाती है और राम को वन भेजने की जिद पर अड़ जाती है, तो दशरथ उसे मनाने के लिये कहते हैं-‘मैं तुम्हारे पैर पकड़ लेने को तैयार हूं यदि तुम राम को वन भेजने की जिद को छोड़ दो।` पेरियार एक राजा के इस तरह के व्यवहार को बहुत निम्नकोटि का करार देते हैं और उन पर वचन भंग करने तथा राम के प्रति अन्धा मोह रखने का आरोप लगाते हैं।
राम के बारे में पेरियार का मत है कि वाल्मीकि के राम विचार और कर्म से धूर्त थे। झूठ, कृतघ्नता, दिखावटीपन, चालाकी, कठोरता, लोलुपता, निर्दोष लोगों को सताना और कुसंगति जैसे अवगुण उनमें कूट-कूट कर भरे थे। पेरियार कहते हैं कि जब राम ऐसे ही थे और रावण भी ऐसा ही था तो फिर राम अच्छे और रावण बुरा कैसे हो गया?
उनका मत है कि चालाक ब्राह्मणों ने इस तरह के गैर ईमानदार, निर्वीर्य, अयोग्य और चरित्रहीन व्यक्ति को देवता बना दिया और अब वे हमसे अपेक्षा करते हैं कि हम उनकी पूजा करें। जबकि वाल्मीकि स्वयं मानते हैं कि राम न तो कोई देवता थे और न उनमें कोई दैवी विशेषताएं थी। लेकिन रामायण तो आरम्भ ही इस प्रसंग से होती है कि राम में विष्णु के अंश विद्यमान थे। उनके अनेक कृत्य अतिमानवीय हैं। जैसे उनका लोगों को शापमुक्त करना, जगह-जगह दैवी शक्तियों से संवाद करना आदि। क्या ये काम उनके अतिमानवीय गुणों से संपन्न होने को नहीं दर्शाते?
उचित प्यार और सम्मान न मिलने के कारण सुमित्रा और कौशल्या दशरथ की देखभाल पर विशेष ध्यान नहीं देतीं थी। वाल्मीकि रामायण के अनुसार जब दशरथ की मृत्यु हुई तब भी वे सो रही थीं और विलाप करती दासियों ने जब उन्हें यह दुखद खबर दी तब भी वे बड़े आराम से उठकर खड़ी हुई। इस प्रसंग को लेकर पेरियार की टिप्पणी है-‘इन आर्य महिलाओं को देखिये! अपने पति की देखभाल के प्रति भी वे कितनी लापरवाह थी।` फिर वे इस लापरवाही के औचित्य पर भी प्रकाश डालते हैं।
पेरियार राम में तो इतनी कमियां निकालते हैं, किन्तु रावण को वे सर्वथा दोषमुक्त मानते हैं। वे कहते हैं कि स्वयं वाल्मीकि रावण की प्रशंसा करते हैं और उनमें दस गुणों का होना स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार रावण महापंडित, महायोद्धा, सुन्दर, दयालु, तपस्वी और उदार हृदय जैसे गुणों से विभूषित था। जब हम वाल्मीकि के कथनानुसार राम को पुरुषोत्तम मानते हैं तो उसके द्वारा दर्शाये इन गुणों से संपन्न रावण को उत्तम पुरुष क्यों नहीं मान सकते? सीताहरण के लिए रावण को दोषी ठहराया जाता है, लेकिन पेरियार कहते हैं कि वह सीता को जबर्दस्ती उठाकर नहीं ले गया था, बल्कि सीता स्वेच्छा से उसके साथ गई थी। इससे भी आगे पेरियार यह तक कहते हैं कि सीता अन्य व्यक्ति के साथ इसलिये चली गई थी क्योंकि उसकी प्रकृति ही चंचल थी और उसके पुत्र लव और कुश रावण के संसर्ग से ही उत्पन्न हुए थे। सीता की प्रशंसा में पेरियार एक शब्द तक नहीं कहते। अपनी इस स्थापना को पुष्ट करने के लिये वह निम्न दस तर्क देते हैं-
१. सीता के जन्म की प्रामाणिकता संदेहास्पद है। उन्हें भूमिपुत्री प्रचारित करते हुए यह कहा जाता है कि राजा जनक को वह पृथ्वी के गर्भ से प्राप्त हुई थीं। जबकि पेरियार का कथन है कि वह वास्तव में किसी बदचलन की सन्तान थी, जिसे उसने अपना दुष्कर्म छुपाने के लिये फेंक दिया था। बदचलन स्त्री की सन्तान का भी वैसा ही होना अस्वाभाविक नहीं है। इस सम्बंध में पेरियार स्वयं सीता के शब्द उद्धृत करते हैं-‘मेरे तरुणाई प्राप्त कर लेने के बाद भी कोई राजकुमार मेरा हाथ मांगने नहीं आया क्योंकि मेरे जन्म को लेकर मुझ पर एक कलंक लगा हुआ है।` इसी बात को आगे बढ़ाते हुए वह कहते हैं-‘जनक सीता की आयु 25 वर्ष की हो जाने तक कोई उपयुक्त वर नहीं तलाश पाये। हारकर उन्होंने अपनी व्यथा से ऋषि विश्वामित्र को अवगत करवाया और सहायता की याचना की। तब विश्वामित्र सीता की आयु से काफी छोटे राम को लेकर आये और सीता ने उनसे विवाह करने में तनिक भी आपत्ति नहीं की। इससे प्रमाणित होता है कि सीता हताश हो किसी को भी पति के रूप में स्वीकार करने के लिये व्याकुल थी।`
2. पेरियार का दूसरा तर्क भरत और सीता के संबंधों को लेकर है। जब राम ने वन जाने का निर्णय कर लिया तो सीता ने अयोध्या में रहने से बिल्कुल इन्कार कर दिया। इसका कारण यह था कि विवाह के कुछ दिनों बाद से ही भरत ने सीता का तिरस्कार करना शुरू कर दिया था। राम स्वयं भी सीता से कहते हैं कि तुम भरत की प्रशंसा के लायक नहीं हो। आगे सीता फिर कहती है-‘मैं भरत के साथ नहीं रह सकती, क्योंकि वह मेरी अवज्ञा करता है। मैं क्या करूं? वह मुझे पसन्द नहीं करता। मैं उसके साथ कैसे रह सकती हूं।` सीता की ये स्वीकारोक्तियां भी उसके चरित्र को सन्देहास्पद बनाती हैं। आखिर भरत सीता को क्यों नापसन्द करते थे। यह सवाल सीधा-सीधा सीता के चरित्र पर उंगली उठाता है।
३. सीता हीरे जवाहरात के आभूषणों के पीछे पागल रहती है। राम जब उसे अपने साथ वन ले जाने को तैयार हो जाते हैं, तो उसे सारे आभूषण उतार कर वहीं रख देने को कहते हैं। सीता अनिच्छापूर्वक ऐसा करती तो है पर चोरी छुपे कुछ अपने साथ भी रख लेती है। रावण जब उसे हर कर ले जाता है तब वह उनमें से एक-एक उतार कर डालती जाती है। अशोक वाटिका में भी वह अपनी मुद्रिका हनुमान को पहचान के लिये देती है। तात्पर्य यह कि आभूषणों के प्रति उसका इस हद तक मोह यह तो स्पष्ट करता ही है कि वह इनके लिये अपने पति की आज्ञा की भी अवहेलना कर सकती है यह भी जताता है कि वह इनके लिये अनैतिक समझौते भी कर सकती है।
४. सीता मिथ्याभाषिणी है। वह उम्र में बड़ी होकर भी राम को तथा रावण को अपनी उम्र कम बताती है। उसकी आदत उसके चरित्र पर शंका उत्पन्न करती है।
५. सीता को वन में अकेला इसीलिये छोड़ा जाता है ताकि रावण उसे आसानी से ले जा सके। वह स्वयं भी राम को स्वर्ण मृग के पीछे और लक्ष्मण को राम की रक्षा के लिये भेजती है जिससे वह अकेली हो और स्वेच्छा से काम करे।
६. सीता लक्ष्मण को बहुत कठोर शब्दों में फटकारती है और यहां तक कह देती है कि वह उसे पाना चाहता है। इसीलिये राम को बचाने नहीं जाता। उसके इस तरह के आरोप उसकी कलुषित मानसिकता को प्रकट करते हैं।
७. एक बाहरी व्यक्ति (रावण) आता है और सीता के अंग-प्रत्यंगों की सुन्दरता का, यहां तक कि स्तनों की स्थूलता व गोलाई का भी वर्णन करता है और वह चुपचाप सुनती रहती है। इससे भी उसकी चारित्रिक दुर्बलता प्रकट होती है।
८. सीता का अपहरण कर ले जाते समय वह रावण को अनेक प्रकार का शाप देती है। यदि वह सचमुच सती पतिव्रता होती तो रावण को तभी भस्मीभूत हो जाना चाहिये था। लेकिन वह तो जैसे ही रावण के महल में प्रविष्ट होती है उसका रावण के प्रति प्रेम बढ़ने लगता है।
९. जब रावण सीता से शादी करने के लिये निवेदन करता है, तो वह मना तो करती है लेकिन आंखें बन्द करके सुबकने भी लगती है। पेरियार उसके इस व्यवहार पर शंका जताते हैं।
१०. वह सीता के रावण के प्रति आकर्षित होने के दो प्रमाण और देतें हैं-(क) चन्द्रावती की बंगाली रामायण से एक घटना का वह उल्लेख करते हैं-राम की बड़ी बहन कुंकुवती उन्हें धीरे से यह बताती है कि सीता ने कोई तस्वीर बनाई है और वह उसे किसी को दिखाती नहीं है। उस तस्वीर को वह छाती से लगाये हुए है। राम स्वयं सीता के कमरे में जाते हैं और वैसा ही पाते हैं। वह तस्वीर रावण की होती है। (ख) सी.आर.श्रीनिवास अयंगार की पुस्तक ‘नोट्स ऑन रामायण` में भी सीता रावण की तस्वीर बनाते हुए राम के द्वारा रंगे हाथों पकड़ी जाती है।
अन्त में पेरियार उस प्रसंग का वर्णन करते हैं जब अयोध्या में राम सीता से अपने सतीत्त्व को साबित करने के लिये शपथ खाने को कहते हैं। वह ऐसा करने से मना कर देती है और पृथ्वी में समा जाती है। रामभक्त इसे सीता के सतीत्व की चरमावस्था घोषित करते हैं, जबकि पेरियार कहते हैं कि अपने को सच्चरित्र प्रमाणित न कर पाने के कारण ही सीता जमीन में गड़ जाती है।
ऐसे राम और ऐसी रामायण कथा आदर व श्रद्धा के लायक बन सकते हैं? यह सवाल है पेरियार का। दरअसल पेरियार ने इसे एक ऐसे लम्बे निबंध के रूप में लिखा है जिसमें पहले रामायण पर उनके विचार दिये गये हैं और बाद में उसके हर चरित्र की आलोचना की गई है।
रामायण के बारे में वह बड़ी साफगोई से कहते हैं कि रामायण वास्तव में कभी घटित नहीं हुई। वह तो एक काल्पनिक गल्प मात्र है। राम न तो तमिल थे और न तमिलनाडू से उनका कोई सम्बन्ध था। वह तो धुर उत्तर भारतीय थे। इसके विपरीत रावण उस लंका के राजा थे जो तमिलनाडू के दक्षिण में है। यही कारण है राम और सीता न केवल तमिल विशेषताओं से रहित हैं बल्कि उनमें देवत्व के लक्षण भी दिखाई नहीं देते। महाभारत की तरह यह भी एक पौराणिक कथा है जिसे आर्यों ने यह दिखाने के लिये रचा है कि वे जन्मजात उदात्त मानव हैं, जबकि द्रविड़ लोग जन्मना अधम, अनाचारी हैं। इसका मुख्य उद्देश्य ब्राह्मणों की श्रेष्ठता, स्त्रियों की दोयम दर्जे की हैसियत और द्रविड़ों को निन्दनीय प्रदर्शित करना है। इस तरह के महाकाव्य जानबूझकर उस संस्कृत भाषा में लिखे गये जिसे वे देवभाषा कहते थे और जिसका पढ़ना निम्न जातियों के लिये निषिद्ध था। वे इन्हें ऐसी महान आत्माओं द्वारा रचित प्रचारित करते हैं जो सीधे स्वर्ग से दुनिया का उद्धार करने के लिये अवतरित हुई थी। ताकि इनकी कथाओं को सच्चा माना जाय और इनके पात्रों व घटनाओं पर कोई सवाल न उठाये जायें। आर्यों ने जब प्राचीन द्रविड़ भूमि पर आक्रमण किया, तब उनके साथ दुर्व्यवहार तो किया ही उनका अपमान भी किया और अपने इस कृत्य को न्यायोचित व प्रतिष्ठा योग्य बनाने के लिये उन्होंने इन्हें ऐसे राक्षस बनाकर पेश किया जो सज्जनों के हर अच्छे कामों में बाधा डालते थे। श्रेष्ठ जनों को तपस्या करने से रोकना, धार्मिक अनुष्ठानों को अपवित्र करना, पराई स्त्रियों का अपहरण करना, मदिरापान, मांसभक्षण एवं अन्य सभी प्रकार के दुराचरण करना इन्हें अच्छा लगता था। इसलिये ऐसे आततायियों को दंडित करना आर्य पुरुषों की कर्तव्य परायणता को दर्शाता है। अब यदि तमिलजन इस तरह की रामायण की प्रशंसा करते हैं तो वे अपने अपमान को एक तरह से सही ठहराते हैं और स्वयं अपने आत्मसम्मान को क्षति पहुंचाते हैं।
शिक्षित तमिल जब कभी रामायण की चर्चा करते हैं तो उनका आशय ‘कम्ब रामायण` से होता है। यह रामायण वाल्मीकि की संस्कृत में लिखी रामायण का कम्बन कवि द्वारा तमिल में किया गया अनुवाद है। लेकिन पेरियार मानते हैं कि कम्बन ने भी वाल्मीकि की रामायण की विकारग्रस्त प्रवृत्ति और सच्चाई को छुपाया है और कथा को कुछ ऐसा मोड़ दिया है जो तमिल पाठकों को भरमाता है। इसलिये वे इस रामायण की जगह आनन्द चारियार, नटेश शाय़िार, सी.आर. श्रीनिवास अयंगार और नरसिंह चारियार के अनुवादों को पढ़ने की सिफारिश करते हैं।
लेकिन अफसोस है पेरियार भी रावण की प्रशंसा उसी तरह आंख मूंदकर करते हैं जिस तरह वाल्मीकि ने राम की की है। वह वाल्मीकि पर यह आरोप लगाते हैं कि उन्होंने स्त्रियों की न केवल अवहेलना की है बल्कि उन्हें हीन दिखाने की कोशिश भी की है। लेकिन वह स्वयं भी सीता की मन्थरा व शूर्पणखा की तरह अवमानना करते हैं। क्योंकि वह एक आर्य महिला है। क्या आर्य होने पर स्त्री स्त्री नहीं रहती? इस तरह पेरियार कई जगह द्रविड़ों का पक्ष लेते हुए रामायण के आर्य चरित्रों के साथ अन्याय भी करते हैं। अनेक कमियों के बावजूद यह पठनीय है। क्योंकि इससे तस्वीर का एक और पहलू सामने आता है।
(जनविकल्प, पटना, सम्पादक : प्रेमकुमार मणि, प्रमोद रंजन के संयुक्तांक सितम्बर-अक्टूबर, 2007 से साभार)
पेरियार जी क्या रामायण की घटना अपनी आँखों से देख कर लिखे है जो उनकी बात सही हो और सही माने क्यों?
बाल्मीकि जी द्वारा लिखे रामायण को पढ़ कर उसमे कुछ जोड़ कर या हटा कर लिख देने से कोई विद्वान नही हो जाता।
जय श्री राम जय सनातन
बढ़िया लिखा आपने । परन्तु आँखे मूँद कर विश्वास करना ठीक नहीं चाहे वो पेरियार हो या बाल्मीकि ।
तो क्या तुलसी की राम से यारी थी उनको बता गए थे श्री राम
मान लेते है तुलसी जी से मिले होंगे तो मानो उन्ही की उन्ही के आधार पर अपनी बहन ,माता,बेटी,के साथ उन्ही अनुसार करो
वाह पेरियरजी… रामायण को काल्पनिक बताते हैं.. और काल्पनिक बातो पर इतने तर्क वितर्क…..ह ह ह ह ह ह ह ह
Jo ram ko mante he achchha he unka ram nam sat ho
रामायण एक काल्पनिक कहानी नही है तो पूरी तरह सच्चाई भी नही है ।शम्भुक ऋषि के राम द्वारा हत्या क्या साबित करता है ।
Sachai samne lane ke liye jagah jagah dikhana chahiye
अथ पेरियार रचित *सच्ची रामायण* खंडनम्। – कार्तिक अय्यर
धर्मप्रेमी सज्जनों! मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम तथा योगेश्वर श्रीकृष्ण भारतीय संस्कृति के दो आधार स्तंभ हैं।केवल सनातनधर्म के लिये ही नहीं अपितु मानव मात्र के लिये श्रीराम और श्रीकृष्ण आदर्श हैं।किसी के लिये श्रीरामचंद्र जी साक्षात् ईश्वरावतार हैं तो किसी के लिये एक राष्ट्रपुरुष,आप्तपुरुष और मर्यादा पुरुषोत्तम हैं।परंतु इन दोनों श्रेणियों ने श्रीराम का गुण-कर्म-स्वभाव सर्वश्रेष्ठ तथा अनुकरणीय माना है। समय- समय पर भारतीय संस्कृति पर कुठाराघात करने के लिये नास्तिक,वामपंथी अथवा विधर्मी विचारधारा वाले लोगों ने ” कृष्ण तेरी गीता जलानी पड़ेगी”, “सीता का छिनाला”,” रंगीला कृष्ण ” जैसे घृणास्पद साहित्य की रचना की।इन पुस्तकोॉ का खंडन भी आर्यविद्वानों ने किया है।इसी परंपरा ( या कहें कुपरंपरा) में श्री पेरियार रामास्वामी नाइकर” की पुस्तक ” सच्ची रामायण ” है।मूलतः यह पुस्तक तमिल व आंग्लभाषा में लिखी गई थी। परंतु आर्यभाषा में भी यह उपलब्ध है। पेरियार महोदय ने उपरोक्त पुस्तक में श्रीराम,भगवती सीता,महाप्राज्ञ हनुमान् जी, वीरवर लक्ष्मण जी आदि आदर्श पात्रों( जो जीवंत व्यक्तित्व भी थे)पर अनर्गल आक्षेप तथा तथ्यों को तोड़- मरोड़कर आलोचना की है। पुस्तक क्या है, गालियों कापुलिंदा है। लेखक न तो रामजी को न ईश्वरावतार मानते हैं न ही कोई ऐतिहासिक व्यक्ति । लेखक ने श्रीराम को धूर्त,कपटी,लोभी,हत्यारा और जाने क्या-क्या लिखा है।वहीं रावण रो महान संत,वीर,ईश्वर का सच्चा पुत्र तथा वरदानी सिद्ध करने की भरसक प्रयास किया है। जहां भगवती,महासती,प्रातःस्मरणीया मां सीता को व्यभिचारिणी,कुलटा,कुरुपा,अंत्यज संतान होने के मनमानै आक्षेप लगाये हैं,वहीं शूर्पणखा को निर्दोष बताया है। पेरियार साहब की इस पुस्तक ने धर्म विरोधियों का बहुत उत्साह वर्धन किया है।आज सोशल मीडिया के युग में हमारे आदर्शों तथा महापुरुषों का अपमान करने का सुनियोजित षड्यंत्र चल रहा है। यह पुस्तक स्वयं वामपंथी,नास्तिक तथा स्वयं को महामहिम डॉ बाबा साहब भीमराव अंबेडकर का अनुयायी कहने वालों में खासी प्रचलित है।आजकल ऐसा दौर है कि भोगवाद में फंसे हिंदुओं(आर्यों) को अपने सद्ग्रंथों का ज्ञान नहीं होता। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं:- *कलिमल ग्रसे ग्रंथ सब,लुप्त हुये सदग्रंथ। दंभिन्ह निज मत कल्प करि,प्रगट किये बहु पंथ।।* ( मानस,उत्तरकांड दोहा ९७ क ) अर्थात् ” कलियुग में पापों ने सब धर्मों को ग्रस लिया।दंभियों ने अपनी बुद्धि कल्पना कर करके बहुत से पंथ प्रकट कर दिये।” इसी विडंबना के कारण *जब भोले भाले हिंदू के समक्ष जब इस घृणास्पद पुस्तक के अंश उद्धृत किये जाते हैं तो धर्मभीरू हिंदू का खून खौर उठता है।परंतु कई हिंदू भाई अपने धर्म,सत्यशास्त्रों का ज्ञान न होने के कारण ग्लानि ग्रस्त हो जाते हैं।उनका स्वाभिमान घट जाता है, अपने आदर्शों पर से उनका विश्वास उठ जाता है। फलस्वरूप वे नास्तिक हो जाते हैं या मतांतरण करके ईसाई ,बौद्ध या मुसलमान बन जाते हैं।* “सच्ची रामायण” का आजतक किसी विद्वान ने सटीक मुकम्मल जवाब दिया हो, ऐसा हमारे संज्ञान में नहीं है।अतः हमने इस पुस्तक को जवाब के रूप में लिखने का कार्य आरंभ किया है। *इस पुस्तक को लिखने का उद्देश्य* १:- पेरियार साहब की पुस्तक जो श्रीराम जी के निष्पाप चरित्र रर लांछन लगाती है का समुचित उत्तर देना। २:-आम हिंदू आर्यजन को ग्लानि से बचाकर अपने धर्म संस्कृति तथा राष्ट्र के प्रति गौरवान्वित कराना। ३:-श्रीराम के दुष्प्रचार,रावण को अपना महान पूर्वज बताते,तथा आर्य द्रविड़ के नाम पर राजनैतिक स्वार्थपरता, छद्मदलितोद्धार तथा अराष्ट्रीय कृत्य का पर्दाफाश करना। ४:- मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र जी के पावन,निर्मल,आदर्श चरित्र को मानव मात्र के लिये श्लाघनीय तथा अनुकरणीय सिद्धकरना। *ओ३म विश्वानिदेव सवितर्दुरितानी परासुव यद्भद्रं तन्न आसुव।* यजुर्वेद:-३०/३ *अर्थात् ” हे सकल जगत् के उत्पत्ति कर्ता,शुद्धस्वरूप,समग्र ऐश्वर्य को देने हारे परमेश्वर!आप ह मारे सभी दुर्गुणों,दुर्व्यसनों और दुःखो को दूर कीजिये।जो कल्याणकारक गुण-कर्म-स्वभाव तथा पदार्थ हैं वे हमें प्राप्त कराइये ताकि हम वितंडावादी,असत्यवादी,ना स्तिक पेरियारवादियों के आक्षेपों का खंडन करके भगवान श्री रामचंद्र का निर्मल यश गानकर वैदिक धर्म की विजय पताका फहरावें।* ।।ओ३म शांतिः शांतिः शांतिः।। ( पूरी पोस्ट पढ़ने के लिये धन्यवाद । खंडन कार्य अगली पोस्ट से प्रारंभ होगा। पुस्तक लेखन का कार्य चल रहा है। कृपया खंडन पुस्तक का नाम भी सुझावें। पोस्ट जितना अधिक हो प्रचार करें ताकि नास्तिक छद्मता का पर्दाफाश हो।) मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम चंद्र की जय। योगेश्वर श्रीकृष्ण चंद् की जय | नोट : यह लेखक का अपना विचार है | लेख में कुछ गलत होने पर इसका जिम्मेदार पंडित लेखराम वैदिक मिशन या आर्य मंतव्य टीम नहीं होगा |
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*अथ पेरियार दर्प भंजनम्* सच्ची रामायण का जवाब -१
– कार्तिक अय्यर
नमस्ते मित्रों!
पिछली पोस्ट में हमने प्रस्तावना तथा पेरियार रचित पुस्तक “सच्ची रामायण” का खंडन करने का उद्देश्य लिखा था। अब इस लेख में पेरियार जी के आक्षेपों का क्रमवार खंडन किया जाता है। परंतु इसके पहले *ग्रंथ प्रमाणाप्रमाण्य* विषय पर लिखते हैं। १: *वाल्मीकीय रामायण* – वाल्मीकि मुनिकृत रामायण श्रीरामचंद्र जी के जीवन इतिहास पर सबसे प्रामाणिक पुस्तक है। महर्षि वाल्मीकि राम जी के समकालीन थे अतः उनके द्वारा रचित रामायण ग्रंथ ही सबसे प्रामाणिक तथा आदिकाव्य कहलाने का अधिकारी है। अन्य रामायणें जैसे रामचरितमानस, चंपूरामायण, भुषुंडि रामायण, आध्यात्म रामायण,उत्तररामचरित ,खोतानी रामायण, मसीही रामायण, जैनों और बौद्धों के रामायण ग्रंथ जैसे पउमचरिउ आदि बहुत बाद में बने हैं । इनमें वाल्मीकि की मूल कथा के साथ कई नई कल्पनायें, असंभव बातें, इतिहास ,बुद्धि ,तथा वेदविरोधी बातें समावेश की गई हैं। रामायण की मूल कथा में भी काफी हेर-फेर है। साथ ही स्वयं वाल्मीकि रामायण में भी काफी प्रक्षेप हुये हैं। अतः वाल्मीकि रामायण श्रीरामचंद्रादि के इतिहास के लिये परम प्रमाण है तथा इसमें मिलाये गये प्रक्षेप इतिहास,विज्ञान,बुद्धि तथा वेदविरुद्ध होने से अप्रमाण हैं ।अन्य रामायणें तब तक मानने योग्य हैं जब तक वाल्मीकि की मूल कथा से मेल खाये। अन्यथा उनका प्रमाण भी मानने योग्य नहीं। २:- *महाभारत में वर्णित रामोपाख्यानपर्व* तथा *जैमिनीय अश्वमेध* :- महाभारत में रामोपाख्यान का वर्णन है तथा जैमिनीय अश्वमेध में भी । चूंकि महाभारत महर्षि वेदव्यास रचित है परंतु राम जी के काल का बना हुआ नहीं है और महाभारत में प्रक्षेप होने से पूर्णतः शुद्ध नहीं है, तथापि आर्षग्रंथ होने से इसका *अंशप्रमाण* मान्य होगा। यही बात जैमिनीय अश्वमेध पर भी लागू होती है। ३:- *उत्तरकांड* पूर्ण रूप से प्रक्षिप्त तथा नवीन रचना है। यह वाल्मीकि मुनि ने नहीं रचा है। क्योंकि युद्धकांड के अंत में ग्रंथ की फल-श्रुति होने से ग्रंथ का समापन घोषित करता है। यदि उत्तरकांड लिखी होता तो वाल्मीकि जी उत्तरकांड के अंत में फल श्रुति देते। इस कांड में वेद,बुद्धि,विज्ञान तथा राम जी के मूल चरित्र के विरुद्ध बातें जोड़ी गई हैं। साथ ही राम जी पर शंबूक वध,सीता त्याग,लक्ष्मण त्याग के झूठे आरोप,रावणादि की विचित्र उत्पत्ति,रामजी का मद्यपान आदि मिथ्या बातें रामजी तथा आर्य संस्कृति को बदनाम करने के लिये किसी दुष्ट ने बनाकर मिला दी हैं। अतः उत्तरकांड पूरा का पूरा प्रक्षिप्त होने से खारिज करने योग्य तथा अप्रामाणिक है। उत्तरकांड की प्रक्षिप्त होने के विषय में विस्तृत लेख में आंतरिक तथा बाह्य साक्ष्यों सहित लेख दिया जायेगा। फिलहाल उत्तरकांड अप्रामाणिक है, ऐसा जान लेना चाहिये । ४:- *वेद* – वेद परमेश्वर का निर्भ्रांत ज्ञान है। ऋक्,यजु,साम तथा अथर्ववेद धर्माधर्म निर्णय की कसौटी हैं। वेद तथा अन्य ग्रंथों में विरोध होने पर वेद का प्रमाण अंतिम कसौटी है। अतः रामायण की कोई बात यदि वेद सम्मत हो तो मान्य हैं, वेदविरुद्ध होने पर मान्य नहीं। यदि रामायण के किसी भी चरित्र के आचरण वेदसम्मत हों,तभी माननीय हैं अन्यथा नहीं। ५:- कोई भी पुस्तक चाहे मैथिलीशरण गुप्त रचित *साकेत* हो अथवा कामिल बुल्के रचित *रामकथा* , वे हमारे लिये अप्रमाण हैं। क्योंकि मैथिलीशरण जी, फादर कामिल बुल्के आदि सज्जन ऋषि-मुनि नहीं थे/हैं और न ही श्रीराम के समकालीन ही हैं जो उनका सच्चा खरा इतिहास लिख सके। अत: *आर्यसमाज के लिये यह सभी ग्रंथ अनार्ष होने से अप्रमाण हैं।इन ग्रंथों के प्रमाणों का उत्तरदायी आर्यसमाज या लेखक नहीं है* । *निष्कर्ष*- *अतः यह परिणाम आता है कि ऐतिहासिक रूप में वाल्मीकि रामायण परमप्रमाण तथा धर्माधर्म के निर्णय में चारों वेद( ऋक्, यजु,साम तथा अथर्ववेद)परमप्रमाण हैं। अन्य आर्ष ग्रंथ जैसे महाभारतोक्त रामोपाख्यान आदि आर्ष व परतः प्रमाण हैं। मानवरचित ग्रंथ जैसे साकेत,कैकेयी,रामकथा,पउमचरिउ,उत्तरपुराण आदि ग्रंथ अप्रमाण हैं क्योंकि ये अनार्ष , नवीन तथा कल्पित हैं।* जारी………. अब पेरियार साहब के आक्षेपों का क्रमवार उत्तर लिखते हैं। *भूमिका* शीर्षक से लिखे लेख का उत्तर:- *प्रश्र-1* – *रामायण किसी ऐतिहासिक कथा पर आधारित नहीं है। यह एक कल्पना तथा कथा है।……रावण लंका का राजा था।। १।।* ( मूल लेख चित्र में देखा जा सकता है।हम केवल कुछ अंश उद्धृत करके खंडन लिख रहे हैं) *समीक्षक:-* धन्य हो पेरियार साहब! यदि रामायण नामकी कोई घटना घटी ही नहीं थी तो आपने इस पुस्तक को लिखने का कष्ट क्यों किया?जब आपके पास निशाना ही नहीं है तो तीर किस पर चला रहे हैं। उस घटना पर,जिसे आप सत्य नहीं मानते पर अनर्गल आक्षेप लगाकर जनसामान्य को दिग्भ्रमित करना किसी सत्यान्वेशी अथवा विद्वान का काम नहीं हो सकता। आपके अनुसार यदि श्रीराम, लक्ष्मण, सीता,हनुमान आदि महामानव यदि काल्पनिक थे तो परस्त्रीगामी,कामी,दुराचारी रावण महात्मा,सच्चा भक्त, सच्चा संत व आदर्श कैसे हो गया? जब पूरी रामायण ही काल्पनिक है तो फिर विवाद कैसा? या तो पूरी रामायण को सच्ची घटना मानिये अन्यथा रावण को पूर्वज मसीहा आदि लिखकर राजनीतिक रोटियां सेंकने का प्रयास न करें। यहां हम अंबेडकर साहब के अनुयायी मित्रों से यह पूछना चाहते हैं कि एक ओर वे रावण को अपना वीर पूर्वज मानकर उसको आदर्श मानते हैं, वहीं उनके दूसरे नेता पेरियार साहब पूरी रामायण को काल्पनिक कहकर रावण को भी काल्पनिक सिद्ध कर रहे हैं। अहो मूलनिवासी मित्रों! आपके दोनों नेताओं में से आप किसकी बात मानेंगे? यह फैसला हम आप पर छोड़ते हैं। आगे रामायण के ऐतिहासिक होने के प्रबल साक्ष्य दिये जायेंगे। किसी पेरियार भक्त में सामर्थ्य हो तो उचित तर्क-प्रमाण से रामायण को काल्पनिक सिद्ध करे। *प्रश्न*:- पेरियार जी ने रामायण को उपन्यास मानकर लेखनी चलाई। इसमें क्या आपत्ति है? *उत्तर*:- यदि उपन्यास माना है तो रावण भी स्पाइडर मैन ,बैटमैन,सुपरमैन जैसे काल्पनिक पात्रों से बढ़कर कोई हैसियत नहीं रखता। तो आप लोग उसे अपना आदर्श पूर्वज क्यों कहते हो? और एक उपन्यास के पात्रों पर लेखनी चलाकर लोगों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना तथा आर्य-द्रविड़ राजनीति का मंतव्य साधना क्या धूर्तता की श्रेणी में नहीं आता? यदि उपन्यास मानते हो तो धर्म को घसीटकर दलित-आर्य का कार्ड खेलकर समाज में वैमनस्य क्यों फैलाया? अतः इस पुस्तक को लिखना न केवल अनुचित है, अपितु धूर्तता भी है। नोट : यह लेखक का अपना विचार है | लेख में कुछ गलत होने पर इसका जिम्मेदार पंडित लेखराम वैदिक मिशन या आर्य मंतव्य टीम नहीं होगा |
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