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‘होमबाउंड’ : दमित वर्गों की व्यथा को उजागर करता अनूठा प्रयास

नीरज घेवाण और उनकी टीम ने पत्रकार बशारत पीर द्वारा लिखित और ‘न्यूयार्क टाइम्स’ में प्रकाशित एक सच्ची कहानी के आधार पर एक शानदार फिल्म बनाया है। वे बड़े परदे पर आंबेडकर की मौजूदगी को और विस्तार दे पाए हैं। लेकिन एक चमत्कारिक व्यक्तित्व के रूप में नहीं, बल्कि लोगों को जगाकर उन्हें यह अहसास करवाने के औजार के रूप में कि उनके आसपास की दुनिया में कितनी अप्रिय और कठोर सामाजिक-ऐतिहासिक और आर्थिक असमानताएं व्याप्त हैं, बता रहे हैं अनिकेत गौतम

नीरज घेवाण की हालिया रिलीज़ हुई फिल्म ‘होमबाउंड’ हमें भारत की उस सामाजिक सच्चाई से रू-ब-रू करवाती है जिसका सामना हाशिए की बड़ी आबादी को दिन-रात करना पड़ता है। उनका भयावह अतीत, असुरक्षित वर्तमान और कलंकित भविष्य, सब हमें परदे पर दिखता है। फिल्म दो मुख्य किरदारों के आसपास घूमती है, जिन्हें उनकी जन्म-आधारित पहचान के कारण सतत भेदभाव का सामना करना पड़ता है। व्यवस्था उन्हें आशा की किरण दिखाती ज़रूर है, मगर प्रणालीगत कमियां और चूकें, जो कि बहुत आम हैं, उनकी उम्मीदों को फलीभूत नहीं होने देतीं। और कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि भेदभाव से मुक्ति की जद्दोजहद में लोगों को अपनी जान खोनी पड़ती है।

चंदन कुमार वाल्मीकि (विशाल जेठवा) और मुहम्मद शोएब (ईशान खट्टर) मेहनतकश परिवारों से हैं। चंदन के माता-पिता निर्माण मजदूर हैं और शोएब के माता-पिता खेत मजदूर। दोनों परिवार भूमिहीन हैं और अपने श्रम की बेहतर कीमत और गरिमापूर्ण जीवन के लिए लड़ रहे हैं। चंदन अपने परिवार का पहला ऐसा सदस्य है जिसने आधुनिक शिक्षा हासिल की है। उसकी निम्न जाति के कारण उसे अपमान और झिड़कियां झेलनी पड़ती हैं और उनसे बचने के लिए वह अपनी जातिगत पहचान को भुला देना चाहता है। मगर हर कदम पर उसे उसकी जाति याद दिलाई जाती है। कई मौकों पर उसे सवर्णों की मौजूदगी में अपना पूरा नाम बताने के लिए मजबूर किया जाता है। शोएब के लिए भी उसकी मुस्लिम पहचान एक बोझ है। अपने परिवार की कमज़ोर माली हालत और बीमार पिता के चलते वह पुलिस भर्ती परीक्षा में कामयाब नहीं हो पाता और एक कारखाने में अपरेंटिस बतौर काम करने लगता है। मगर यहां भी उसे अपने साथी कामगारों की इस्लामोफोबिक (मुसलमानों से तर्कहीन नफरत या डर) टिप्पणियों का सामना करना पड़ता है। उसका मजहब जानने के बाद उसका मैनेजर उससे कहता है कि वह कामगारों के लिए रखे गए पीने के पानी से अपने लिए पानी न ले।

फिल्म के पहले दृश्य में हमें एक रेलवे स्टेशन दिखलाई देता है। चंदन और शोएब पुलिस भर्ती परीक्षा में शामिल होने की हड़बड़ी में हैं। पूरा स्टेशन नौजवानों से अटा पड़ा है। वे सब पुलिस में भर्ती होकर आर्थिक सुरक्षा और सामजिक सम्मान हासिल करना चाहते हैं। भारत की आबादी के एक खासे बड़े तबके के लिए सरकारी नौकरी के लिए प्रतियोगी परीक्षाएं समाज में आगे बढ़ने और गरीबी से मुक्ति पाने की एकमात्र राह हैं।

चंदन परीक्षा में पास हो जाता है, लेकिन शोएब नहीं हो पाता। फिल्म बहुत सजीव और प्रभावी तरीके से दिखाती है कि जब नौजवानों के सपने बिखरते हैं तो उनको कैसा लगता है। मगर जिन उम्मीदवारों ने परीक्षा पास कर ली है, उनकी परेशानियां भी ख़त्म नहीं हुई हैं, बल्कि शायद शुरू हुई हैं। पेपर लीक हो जाने के कारण उनकी नियुक्ति में देरी होती है। इस तरह की घटनाएं वास्तविक जीवन में भी बहुत आम हैं और बताती हैं कि हमारी संस्थागत और प्रशासनिक प्रक्रियाओं में किस कदर भ्रष्टाचार व्याप्त है। चंदन अपनी नियुक्ति का इंतज़ार कर रहा है। बीच-बीच में वह उस ऑफिस के चक्कर भी लगाता रहता है जहां से नियुक्ति के आदेश जारी होने हैं। एक दिन वहां का एक अधिकारी चंदन से उसकी जाति और गोत्र के बारे में पूछता है। उसके बाद उसका यह कह कर उपहास उड़ाया जाता है कि वह तो आरक्षण वाला विद्यार्थी है। उसकी परेशानियां सिर्फ भौतिक नहीं हैं, मानसिक भी हैं।

‘होमबाउंड’ के एक दृश्य में ईशान खट्टर (बाएं, मुहम्मद शोएब के भूमिका में) और विशाल जेठवा (चंदन कुमार वाल्मीकि की भूमिका में)

इस बीच शोएब बहुत परेशान है। उसकी कमाई इतनी नहीं है कि वह अपने पिता के ख़राब हो चुके घुटने के जोड़ों का इलाज करवा सके। दोनों परिवारों के पास खेती की ज़मीन नहीं है और दोनों दिहाड़ी मजदूरी पर निर्भर हैं। दोनों के बीच एक और समानता है– शोएब के पिता के घुटने ख़राब हैं और चंदन की मां की एड़ियां फटी हुई हैं। दोनों प्रतीकात्मक रूप से यह बताती हैं कि हमारी अर्द्ध-सामंती, जमींदार-बुर्जुआ व्यवस्था में हाशिए के लोगों को कितना कठिन श्रम करना पड़ता है। निर्माण स्थलों और दूसरे के खेतों में हाड़तोड़ मेहनत करते परिवारों के लिए सरकारी नौकरी ही मुक्ति का द्वार खोलती है।

अंततः, चंदन और शोएब गुजरात के सूरत में एक कपड़ा मिल में प्रवासी मजदूर के रूप में काम करने लगते हैं। उनकी जिंदगी पटरी पर आ पाती, इसके पहले कोविड-19 महामारी का प्रकोप शुरू हो जाता है। इसके बाद फिल्म में जो दिखाया गया है वह मार्च 2020 में अचानक राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन लगाए जाने के बाद लाखों मजदूराें के दुखद अनुभवों की बानगी है। चंदन और शोएब भी महानगरों से गांवों की तरफ जा रहे एक कारवां का हिस्सा हैं। जिस ट्रक में वे सवार हैं, उसमें यात्रा कर रहे अन्य यात्रियों को शक हो जाता है कि चंदन कोविड-19 से संक्रमित है। दोनों को ट्रक से उतार दिया जाता हैं। फिर वे पैदल ही अपने गांवों की ओर बढ़ने लगते हैं। इसके बाद मन को द्रवित करने वाले कई दृश्य हैं।

इन दोनों हाशियाकृत परिवारों की महिलाओं की क्या स्थिति है? चंदन की मां अब निर्माण स्थलों में मजदूरी नहीं कर पातीं। उनका सपना है– अपना एक पक्का घर। उन्होंने अपनी ज़िंदगी दूसरों के पक्के घर बनाते हुए बिताई मगर उनके लिए पक्का घर एक सपना ही है। चंदन की बहन वैशाली को अपने सपनों को त्यागना पड़ता है ताकि भाई के सपने पूरे हो सकें। चंदन के परिवार की इतनी आर्थिक हैसियत नहीं है कि वह चंदन और वैशाली दोनों को पढ़ा सके। और जैसा कि ऐसे मामलों में अक्सर होता है, लड़की की शिक्षा की बलि चढ़ा दी जाती है। चंदन एक सरकारी कॉलेज में भर्ती हो जाता है और उसका परिवार उसकी फीस का इंतजाम करने के लिए दिन-रात काम करता है। सरकारी कॉलेजों की फीस भी हाशियाकृत समुदायों की पहुंच से बाहर होती है। वैशाली अपने काम के घंटे बढ़ा देती है ताकि चंदन की शिक्षा जारी रह सके। वह गांव के स्कूल में बच्चों के लिए मध्याह्न भोजन पकाना शुरू कर देती है। मगर स्कूल के प्रबंधन और बच्चों के माता-पिता को यह मंज़ूर नहीं है कि बच्चे वैशाली के हाथों का पका और परोसा गया भोजन खाएं। सवर्ण अभिभावक स्कूल प्रशासन को धमकी देते हैं कि अगर वैशाली खाना बनाएगी तो वे अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजेंगे। वे चाहते हैं कि वैशाली वही काम करे, जो जाति व्यवस्था में उसके लिए निर्धारित है। यानी शौचालयों, सेप्टिक टैंकों और सीवेज लाइनों की सफाई। वैशाली को काम से हटा दिया जाता है। अगले दृश्य में चंदन की मां, दीवार पर टंगे बाबासाहेब आंबेडकर के चित्र को ताक रही हैं। यह दृश्य दर्शकों को इतिहासविद और सामाजिक कार्यकर्ता भगवान दास के इस कथन की याद दिला देता है कि “हमारे लिए आंबेडकर, उम्मीदकर हैं।” आंबेडकर उन लाखों लोगों के लिए आशा का प्रतीक हैं जो प्रभु वर्गों के वर्चस्व का प्रतिरोध कर रहे हैं। उनमें वाल्मीकि भी शामिल हैं, जिनमें सामान्य जनधारणा के विपरीत, सभी हिंदुत्व के लड़ाका दस्ते में शामिल नहीं हो गए हैं।

इसके अलावा, जैसा कि सुधा (जाह्नवी कपूर) और चंदन की प्रेमकथा के अंजाम से पता चलता है, जाति प्रथा द्वारा अनुमोदित स्तरीकृत असमानता दलितों में भी है। सुधा की बहन की शादी बौद्ध पद्धति से की जाती है। ‘सुधा भारती’ के जाटव या चमार जाति से होने की संभावना है। सुधा के परिवार की माली हालत अच्छी है जबकि चंदन एक मेहनतकश वाल्मीकि परिवार से है। एक दृश्य में चंदन और सुधा की बीच वर्गीय अंतरों को लेकर बहस होती है।

फ़िल्म के इस हिस्से का फोकस दलितों के बीच वर्गीय और जातिगत अंतरों पर है। कुछ दलित उपजातियों ने अपनी आर्थिक दशा सुधार ली है। इससे जाति का दंश उन्हें कम चुभता है। जबकि अन्यों पर उसकी मार असहनीय होती है।

पूरी फिल्म में यह साफ़ नज़र आता है कि नीरज घेवाण दलितों व अन्य दमित समुदायों के जीवन का सही और सटीक चित्रण करने के लिए दृढ़ संकल्पित हैं। ‘होमबाउंड’ मुख्यधारा के सिनेमा में एक नई शैली की फिल्मों की शुरुआत है जिनका उद्देश्य दर्शकों को खुश करना नहीं बल्कि उनकी अंदर तक जड़ जमा चुके ब्राह्मणवाद को झकझोरना है।

नीरज घेवाण और उनकी टीम ने पत्रकार बशारत पीर द्वारा लिखित और ‘न्यूयार्क टाइम्स’ में प्रकाशित एक सच्ची कहानी के आधार पर एक शानदार फिल्म बनाया है। वे बड़े परदे पर आंबेडकर की मौजूदगी को और विस्तार दे पाए हैं। लेकिन एक चमत्कारिक व्यक्तित्व के रूप में नहीं, बल्कि लोगों को जगाकार उन्हें यह अहसास करवाने के औजार के रूप में कि उनके आसपास की दुनिया में कितनी अप्रिय और कठोर सामाजिक-ऐतिहासिक और आर्थिक असमानताएं व्याप्त हैं।

(मूल अंग्रेजी से अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अनिकेत गौतम

लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के एम.ए. के छात्र हैं

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