h n

एससी-एसटी और ओबीसी के आरक्षण के खिलाफ क्यों हैं कुछ लोग

संविधान में आरक्षण की व्यवस्था सदियों से वंचित वर्गों के प्रतिनिधित्व का माध्यम है। जो लोग वंचित वर्गों के प्रतिनिधित्व के खिलाफ हैं, वे किस तरह से आरक्षण को निष्प्रभावी बनाना चाहते हैं, बता रहे हैं, प्रोफेसर कमलेश कुमार गुप्त

सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े लोगों को प्रतिनिधित्व देने के लिए संविधान निर्माताओं ने आरक्षण की व्यवस्था दी थी। लेकिन जो लोग इस प्रतिनिधित्व के विरुद्ध थे, उन्होंने इसे निष्प्रभावी बनाने में ही अपनी प्रतिभा खर्च की। यही कारण है कि विभिन्न क्षेत्रों में एससी एसटी और ओबीसी को बहुत कम प्रतिनिधित्व मिल पाया।

उच्च पदों पर प्रतिनिधित्व के बिना प्रतिनिधित्व निष्प्रभावी है। सर्वाधिक चेतनासंपन्न समुदायों वाले इस देश के उच्चशिक्षण संस्थानों में एसोसिएट प्रोफेसर से लेकर कुलपति पद पर एससी/एसटी और ओबीसी का प्रतिनिधित्व यदि 2% ही है, तो इसका कारण क्या है? क्या यह प्रतिनिधित्व न्यायपूर्ण है? पर्याप्त है? सामाजिक समरसता के अनुरूप है? संविधान की भावना के अनुकूल है?

19 फरवरी 2016 को उत्तर प्रदेश शासन के प्रमुख सचिव श्री जितेन्द्र कुमार की ओर से उत्तर प्रदेश के विश्वविद्यालयों में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, एसोसिएट प्रोफ़ेसर तथा प्रोफ़ेसर के पदों पर आरक्षण के सम्बन्ध में दिशानिर्देश आया. उसमें विभिन्न न्यायालयों द्वारा पारित आदेशों और राज्य सरकार के शासनादेशों का हवाला देते हुए कहा गया कि आरक्षण की अधिकतम सीमा 50%  होगी। एकल पद पर आरक्षण लागू नहीं होगा। अनुसूचित जाति  हेतु 21% आरक्षण प्रदान करने हेतु न्यूनतम 05 पद और अन्य पिछड़े वर्ग हेतु 27%आरक्षण सुनिश्चित करने हेतु न्यूनतम 04 पद आवश्यक हैं.आरक्षण के प्रतिशत की गणना में फ्रैक्शन को इग्नोर किया जाएगा। जैसे अगर 7 पद हों तो ओबीसी के लिए निर्धारित 27%के अनुसार 1.89 पद हुए. इस दिशानिर्देश के अनुसार उसे 2 न मानकर एक ही माना जाएगा।

न्याय तब सार्थक होता है, जब वह अंतिम व्यक्ति के हित में हो। इसमें 2% आरक्षण पाने वाले एसटी संवर्ग (उत्तर प्रदेश में) की बात ही नहीं की गई है, ध्यान रखना तो दूर की बात है।

इस बीच राज्य के विश्वविद्यालयों के विज्ञापन इसी दिशानिर्देश के अनुसार जारी हुए हैं/हो रहे हैं। कुछ जगह कुछ नियुक्तियां भी हुई हैं। इससे अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति और पिछड़ा वर्ग को बहुत कम और कहीं-कहीं न के बराबर ही प्रतिनिधित्व मिल पा रहा है।

चूंकि इसमें विभाग को इकाई माना गया है, इसलिए ऐसा हो रहा है। उदाहरण के तौर पर सिद्धार्थ विश्वविद्यालय, सिद्धार्थनगर का विज्ञापन देख सकते हैं जिसमें 84 पदों में से एक ही आरक्षित है।

फिर दुहरा दें, इस व्यवस्था से एसटी संवर्ग को प्रतिनिधित्व असम्भव है, क्योंकि 50 पद होने पर ही 2% के हिसाब से उन्हें एक सीट मिलेगी। जब तक विश्वविद्यालय को इकाई मानकर आरक्षण और रोस्टर लागू नहीं किया जाएगा, तब तक न तो एसटी संवर्ग को जगह मिल पाएगी और न ही दिव्यांगों को।

चाहे जो भी नियम और व्यवस्था हो, यदि उससे एससी को 21% , एसटी को 2% और ओबीसी को 27% संवैधानिक प्रतिनिधित्व मिलना सुनिश्चित हो, तभी उसे न्यायपूर्ण कहा जाएगा, अन्यथा नहीं।

प्राय: विश्वविद्यालयों में  ‘अनारक्षित’ शब्द की जगह ‘सामान्य’ शब्द का प्रयोग जाने-अनजाने किया जाता है और उसका अर्थ ‘सवर्ण’ के रूप में ग्रहण किया जाता है। ऐसी स्थिति में अनारक्षित संवर्ग में एससी, एसटी और ओबीसी संवर्ग के अभ्यर्थियों के लिए प्रवेश के द्वार बंद कर दिए जाते हैं.अर्थात, उन्हें खुली प्रतियोगिता में शामिल ही नहीं किया जाता। कहीं उन्हें अपने ही संवर्ग में दावेदारी के लिए कहा जाता है, तो कहीं दो आवेदन-पत्र भरने के लिए बाध्य किया जाता है।

नियुक्तियों में विषय विशेषज्ञ के रूप में आरक्षित संवर्ग का प्रतिनिधित्व नगण्य होता है। ऐसे में, आरक्षित संवर्ग के अभ्यर्थियों का हित बाधित होता है। प्राय: तुलनात्मक आधार पर कम योग्य व्यक्ति अनारक्षित संवर्ग में जगह पा जाता है और अधिक योग्य व्यक्ति आरक्षित संवर्ग में।

पारदर्शी प्रक्रिया की कमी के कारण कोई योग्य अभ्यर्थी यदि अनारक्षित संवर्ग में जगह नहीं पाता, तो वह इसके लिए आरक्षण को दोषी ठहराने लगता है।

अपनी बात का सारांश मैं इस रूप में रखना चाहूंग 

1. चयन हेतु पारदर्शी प्रक्रिया अपनाई जाए।

2. समस्त निर्णयकारी समितियों में एससी/एसटी और ओबीसी को प्रतिनिधित्व दिया जाए।

3. विश्वविद्यालय या संस्था को इकाई मानते हुए आरक्षण और रोस्टर को लागू किया जाए।

4. आवश्यकतानुसार पदों की संख्या बढ़ाई जाए।

सबका साथ सबका विकास का आदर्श लेकर चलनेवाली केंद्र और प्रदेश की भाजपा सरकार को एससी/एसटी और ओबीसी के पर्याप्त प्रतिनिधित्व में बाधक नियम-कानूनों-आदेशों को निरस्त करके, नए नियम-कानून बनाकर उच्च और महत्वपूर्ण पदों पर उनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना चाहिए।

अच्छा होगा कि केंद्र और प्रदेश सरकार सबको प्रतिनिधित्व देते हुए एक ‘सामाजिक समरसता समिति’ बनाएं, जो हर क्षेत्र में सबकोे पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिले इसका ध्यान रखे, प्रतिनिधित्व के आंकडो़ं पर नजर रखे, सुझाव दे और सुझावों पर अमल कराए।

सबका साथ सबका विकास का आदर्श हर क्षेत्र में सबको पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिलने पर ही चरितार्थ हो सकता है।

 


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in

 

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें :

जाति के प्रश्न पर कबीर (Jati ke Prashn Par Kabir)

https://www.amazon.in/dp/B075R7X7N5

महिषासुर : एक जननायक (Mahishasur: Ek Jannayak)

https://www.amazon.in/dp/B06XGBK1NC

चिंतन के जन सरोकार (Chintan Ke Jansarokar)

https://www.amazon.in/dp/B0721KMRGL

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना (Bahujan Sahitya Ki Prastaawanaa)

https://www.amazon.in/dp/B0749PKDCX

 

लेखक के बारे में

कमलेश कुमार गु्प्त

प्रोफेसर कमलेश कुमार गु्प्त दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय गोरखपुर के हिंदी विभाग में प्रोफेसर हैं

संबंधित आलेख

Laxman Yadav: ‘Manusmriti’ could only be taught alongside ‘Gulamgiri’ and ‘Annihilation of Caste’
‘The situation today is that even if the BJP loses the next election, teachers wedded to the RSS ideology will continue teaching students for...
Naming military action ‘Operation Sindoor’ unconstitutional, says retired CRPF commandant 
If you have still not realized who named the operation 'Sindoor' and why, look at what followed. Even more absurdly, BJP purportedly announced that...
Dhadak 2 and CBFC’s cuts: Are we ready for Pariyerum Perumal’s truth in Hindi?
'Pariyerum Perumal' was a battle cry against caste. If 'Dhadak 2' mutes that cry before its release, are we not losing a chance to...
Dominant husbands, hegemonic castes still part of Bihar’s rural landscape
In a study of Aurangabad and Rohtas districts, calls made to women mukhiyas were mostly received by their husbands or other family members. The...
Manoj Jha: A war-like situation faced the country, so we have been calm but alert on caste census
The Cabinet decision to hold a caste census revealed that there has been change in the government’s stand on the concerns of the Bahujan...