हुआ दरअसल यह है कि वे पत्रिकाएं जो समाज व्यवस्था के भीतर रहकर देश व उसकी आत्मा की पहरेदार हैं, उसके ब्यौरों की संवाहक हैं, यूजीसी ने उनको ही बाहर का रास्ता दिखाया। इससे अकादमिक और बौद्धिक जगत को कोई हैरानी या परेशानी अस्वाभाविक नहीं है। ये पत्रिकाएं समाज की हकीकी का आईना हैं और यूजीसी की ब्लैक लिस्टेड करने वाली बेदखली यही बताती है कि पत्रिकाएं सही मार्ग पर चल रही हैं। पत्रिकाओं के संपादक मानते हैं कि सच तो ये है कि सरकार असहमति की आवाजों को सुनना नहीं चाहती इसलिए सबसे कारगर उपाय यही है कि उसके खिलाफ हर मोर्चे पर असहयोग हो।
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