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विश्वविद्यालयों में तैनात होंगे सरकारी लोकपाल, कानून में होगा बदलाव

2019 के चुनावी महासमर में जाने से पहले केंद्र उच्च शिक्षण संस्थानों में लोकपाल की भर्ती को लेकर गंभीर है। वह पहले से मौजूद नियमों में बदलाव करने की तैयारी में है और आगामी 29 नवंबर तक संशोधनों को सुझावों के लिए रखने वाली है। फारवर्ड प्रेस की रिपोर्ट :

विश्वविद्यालय के छात्रों की शिकायतों को देखते हुए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) लोकपाल संबंधी पुरानी अधिसूचना में बदलाव करते हुए नया नियम ला रहा है। वर्ष 2012 में यूजीसी की अधिसूचना के अनुसार विश्वविद्यालयी छात्रों की शिकायतों के निवारण के लिए ऐसे लोकपाल की नियुक्ति की सिफारिश की गई थी जो कम से कम जिला जज रहे हों या फिर जिन्हें विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के तौर पर काम करने का कम से कम दस साल का अनुभव रहा हो।

लोकपाल नियुक्त करने की यूजीसी की चिंता को 2019 के चुनावों से जोड़कर भी देखा जा रहा है ताकि केंद्र सरकार यह बता सके कि उसने उच्च शिक्षा में पारदर्शिता लाने के प्रयासों में कोई कमी नहीं की। वैसे यह देखने वाली बात होगी कि नए नियम किस स्वरूप में सामने आते हैं। वह वाकई में कोई सुधार की दिशा में कारगर कदम बनता है या फिर जुमला साबित होता है।

पहले से बने कानून में होगा सुधार, यूजीसी लेगा फीडबैक

यूजीसी के एक अधिकारी ने बताया कि आयोग ने शिकायतों से जुड़े नियमों में ‘सुधार’ किया गया है और जल्द ही इसके नए स्वरूप को लोगों के फीडबैक के लिए सामने लाया जा रहा है। इसमें लोकपाल की नियुक्ति से संबंधित नियम में भी संशोधन किया जा रहा है।

यूजीसी की शिकायत निवारण अधिसूचना 2012  के अनुसार सभी उच्च शिक्षण संस्थानों को छात्रों की शिकायतों को हल करने के लिए लोकपाल नियुक्त करना आवश्यक है। लेकिन मोटे तौर पर जो जानकारियां उपलब्ध हैं उनसे पता चलता है किसी भी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में, खासकर दिल्ली की बात करें तो इसका पालन नहीं हुआ है या उनके पास यदि इसकी व्यवस्था है भी तो तो उन्हें पात्रता संबंधी मानदंडों या नियमों की अनदेखी करते हुए नियुक्तियां की गई हैं।

रजनीश जैन, यूजीसी के सचिव

यूजीसी के सचिव रजनीश जैन के मुताबिक, “हम शिकायतों को हल करने के लिए नई प्रक्रिया को अपनाने का सुझाव दे रहे हैं और तीसरी या चौथी स्टेज पर प्रक्रिया में लोकपाल कैसे काम करेगा या उसकी नियुक्ति के संबंध में दिशा-निर्देश क्या होंगे- उन्हें भी संशोधित किया जा रहा है।”

यह पूछे जाने पर कि आयोग से लोकपाल की नियुक्ति करने को लेकर कहां कमी रही, जैन ने कहा- “हम हर एक संस्थान में लोकपाल रखने का दबाव बनाते रहे, लेकिन इन संस्थानों ने तरह-तरह की समस्याओं का उल्लेख किया…। लेकिन अब कार्यान्वयन से संबंधित सभी समस्याएं नए नियम से हल हो जाएंगी।”

नियम का उल्लंघन कर जेएनयू में नियुक्त हुए लोकपाल

हालांकि रजनीश जैन ने यह नहीं बताया कि ये शिकायतें किस तरह की थीं या किस पहलू से जुड़ी रहीं या क्या इनमें नियुक्तियों के लिए तय मानदंडों नहीं अपनाए जाने की बात सामने आई थी। 2012 के नियम में यह निर्धारित किया गया है कि लोकपाल वह “एक व्यक्ति होगा जो जिला न्यायाधीश रह चुका हो या एक सेवानिवृत्त प्रोफेसर जिसके पास प्रोफेसर के रूप में काम करने का कम से कम 10 वर्ष का अनुभव हो”।

इस मामले में देखें तो इन नियमों का जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में उल्लंघन हुआ जहां विश्वविद्यालय ने अपने ही कुलसचिव को विश्वविद्यालय में प्रोफेसर को लोकपाल के रूप में नियुक्त किया। इस लोकपाल के पास भी केवल फैकल्टी सदस्य ही शिकायत लेकर जा सकते थे और छात्रों की सुनवाई से इससे कोई लेना देना नहीं था।

वहीं दो अन्य केंद्रीय विश्वविद्यालयों दिल्ली विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया इस्लामिया में शिकायत निवारण सेल या समितियां हैं, लेकिन कोई लोकपाल नहीं है। छात्रों की शिकायतों को लेकर प्रावधान किया गया है कि उनकी सुनवाई तभी होगी जब कि उन्होंने संस्थान में मौजूद शिकायत निवारण संबंधी प्रकोष्ठ में अपनी बात पहले रखी हो और वहां से कोई कोई समाधान न मिल पाया हो।

दस्तावेजों के मुतबिक अगर कोई विश्वविद्यालय लोकपाल की नियुक्ति में समर्थ नहीं है तो वह उस स्थिति में वो मदद के लिए यूजीसी से मदद मांग सकता है। हालांकि यह भी केवल कहने की बात है। टेरी विश्वविद्यालय ने 2016-17 में उस समय के यूजीसी के सचिव को लोकपाल के चयन करने के लिए तीन से अधिक बार लिखा, लेकिन यूजीसी की ओर से कोई मदद नहीं मिली।

टेरी ने यूजीसी को लिखा, “अधिसूचना के मुताबिक… विश्वविद्यालयों को छात्रों की शिकायतों के निवारण करने के लिए एक लोकपाल नियुक्त करने की आवश्यकता है। यह अनुरोध किया जाता है कि सर्च कमेटी के अनुशंसित नामों के पैनल में से लोकपाल की नियुक्ति के संबंध में विश्वविद्यालय को सूचित किया जाए।” टेरी के रजिस्टार ने अप्रैल 2016 ये यूजीसी को ये बात पत्र लिखकर पूछी। इसके बाद भी अगले वर्ष यानी 2017 के फरवरी और जुलाई में भी इस आशय के पत्र लिखे गए।

यूजीसी, नई दिल्ली

वहीं वर्ष 2012 में यूजीसी द्वारा जारी अधिसूचना यह कहती है कि लोकपाल की नियुक्ति तीन लोगों में से की जाएगी जिसे सर्च कमेटी फाइनल करेगी और उनके नाम को अग्रसारित करेगी। इस पांच सदस्यीय सर्च कमेटी में यूजीसी चेयरमैन और किसी केंद्रीय विश्वविद्यालय के वीसी को होना चाहिए।

कहना न होगा कि विश्वविद्यालयों की शीर्ष वित्त पोषण संस्था यूजीसी अपने ही बनाए नियम और सुझाए गए शिकायत निवारण तंत्र को भूल चुकी है और जिसके चलते छात्र हितों की अनदेखी हो रही है। छात्रों की ढेरों समस्याओं में फीस रिफंड का मामला और मूल शैक्षणिक दस्तावेजों की ‘जब्ती’ जैसे मामले हैं।

यूजीसी के सचिव रजनीश जैन ने कहा कि अधिसूचना संबंधी नया मसौदा तैयार है और इसके कुछ बिंदुओं को अंतिम रूप देने के बाद आयोग की वेबसाइट पर जनता की फीडबैक और प्रतिक्रिया के लिए पब्लिश कर दिया जाएगा। उन्होंने कहा कि हम इसी महीने 29 नवंबर तक इस अधिसूचना को जारी कर देंगे।

यूजीसी में लोकपाल लाने के पीछे मूल भावना विश्वविद्यालय में हो रहे भ्रष्टाचार को खत्म करने की थी और वह कारगर भी हो सकती थी। लेकिन 23 अप्रैल 2012 प्रकाशित जांच समिति के गठन संबंधी अधिसूचना को ज्यादातर विश्वविद्यालयों ने गंभीरता से लिया ही नहीं। 2016 तक यूजीसी इस बारे में संज्ञान लेते हुए विश्वविद्यालयों के द्वारा उठाए गए कदमों की जानकारी मांगती रहती थी। मध्यप्रदेश की कई विश्वविद्यालय में लोकपाल नियुक्त हुए तो अधिकतर छात्र समुदाय को इसकी जानकारी नहीं पहुंची। मसलन उनके यहां लोकपाल है तो इसके अधिकार क्या हैं और किसके लिए काम करते हैं। कई विश्वविद्यालयों के छात्र जो आंदोलन करने के लिए यूजीसी के दिल्ली कार्यालय में दस्तक देते हैं, वो शायद आने बंद हो जाते अगर संबंधित उच्च शिक्षण संस्थानों और विश्वविद्यालयों में लोकपाल की नियुक्ति हो गई होती। लोकपाल की नियुक्ति नहीं होने से सबसे अधिक समस्याएं केंद्रीय विश्वविद्यालयों के छात्रों के सामने आती हैं।

ईश मिश्र, दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापक

क्या लोकपाल की नियुक्ति में होगा आरक्षण का प्रावधान?

बहरहाल, जैसा कि अब यह साफ हो चुका है कि यूजीसी 2012 में अपनी अधिसूचना में संशोधन करने जा रही है, ऐसे में यह सवाल भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि लोकपाल की नियुक्ति में आरक्षण का कोई प्रावधान होगा या नहीं। इस संबंध में दिल्ली विश्वविद्यालय मेंं हिंदू कॉलेज के प्राध्यापक और चिंतक ईश मिश्र ने कहा, “केंद्र सरकार को विश्वविद्यालयों में लोकपाल की नियुक्ति में आरक्षण का प्रावधान करना ही चाहिए। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि शिकायतों के निवारण के लिए लोकपाल की नियुक्ति का कोई मतलब मुझे बहुत नजर नहीं आता। हम देखेंगे कि सरकार की मंशा क्या है। आरक्षण को इस सरकार ने पहले ही अप्रासंगिक बना दिया है क्योंकि उच्च शिक्षा को या तो प्राइवेट हाथों में दिया जाने लगा है या फिर शिक्षण संस्थानों को सरकार की ओर से कोई ग्रांट बंद करने की कोशिशें हो रही हैं। सरकार आईआईटी आदि कई संस्थानों में फीस इतनी बढ़ा चुकी है कि इस स्थिति में आप पाएंगे कि ज्यादातर छात्रों की समस्या फीस बढ़ोतरी होगी, उसे महंगी फीस से मुक्ति चाहिए होगी। इसमें लोकपाल क्या करेगा जब सरकार ही सब तय करने में लगेगी। सामाजिक न्याय के सिद्धांत से काम करने का सरकार का कोई इरादा नहीं है। लोकपाल की नियुक्ति और उस पर भी पिछड़े तबकों को प्रतिनिधित्व देने की व्यावहारिकता मेरे लिहाज से बहुत संदिग्ध है। कमजोर पिछड़े तबकों को सरकार हाशिए पर धकेल चुकी है।”

बहरहाल, अगले कुछ दिनों में पता चल जाएगा कि यूजीसी के मूल मसौदे में नए नियमों से लोकपाल की नियुक्ति के लिए क्या आधार बनाए जाते हैं और किस वर्ग को क्या प्रतिनिधित्व मिलने के आसार हैं और यह भी कि क्या इन नियुक्तियों में कमजोर तबकों को भी प्रतिनिधित्व देने की यूजीसी की मंशा है भी या नहीं?

(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)


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लेखक दिल्ली के एक प्रमुख मीडिया संस्थान में कार्यरत टीवी पत्रकार हैं।

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