जहां एक ओर भारत में दलितों, आदिवासियों, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और महिलाओं को आरक्षण देने में आनाकानी की जाती है, वहीं दूसरी ओर यूरोप में नयी पहल की जा रही है। नीदरलैंड के एक प्रमुख शैक्षणिक संस्थान, आइंडहोवेन तकनीकी विश्वविद्यालय प्रबंधन ने निर्णय लिया है कि अगले कम से कम 18 महीने तक सिर्फ महिला उम्मीदवारों को ही नौकरी दी जाएगी। यह क़दम ‘निहित लिंग पूर्वाग्रह’ को दूर करने के लिए उठाया गया है।
विश्वविद्यालय में यह नई भर्ती नीति 1 जुलाई, 2019 से लागू की गई है। इसके तहत के तहत किसी भी पद पर पुरुषों का आवेदन तभी स्वीकार किया जाएगा अगर छह महीने के भीतर उस पद के लिए कोई योग्य महिला उम्मीदवार नहीं मिलती है। आइंडहोवेन तकनीकी विश्वविद्यालय की स्थापना जून 1956 में नीदरलैंड सरकार ने की थी। यह संस्थान यूरोप के प्रमुख तकनीकी और इंजीनियरिंग विश्वविद्यालयों में से एक है। 2012 से इस विश्वविद्यालय की रैंकिंग दुनिया के टॉप 60 संस्थानों में लगातार बनी हुई है। लेकिन संस्थान में महिला कर्मियों की संख्या को लेकर लगातार चिंता बनी हुई है।

ध्यातव्य है कि आइंडहोवेन तकनीकी विश्वविद्यालय का कैंपस कुल 75 हेक्टेयर में फैला है। यहां 80 देशों के 11 हज़ार से ज़्यादा छात्र पंजीकृत हैं। इनमें 7,116 बैचलर जबकि 4,179 मास्टर कोर्स में अध्ययन कर रहे हैं। विश्वविद्यालय की वेबसाइट के मुताबिक़ विश्वविद्यालय में 240 प्रोफेसरों समेत कुल अकादमिक कर्मियों की संख्या 3,221 है, जिसमें 1854 रिसर्च से जुड़े हैं। कुल कर्मियों में 63 फीसदी पुरुष जबकि 37 फीसदी महिलाएं हैं।
बताया गया है कि विश्वविद्यालय में अगले पांच साल में करीब 150 पद ख़ाली होंगे। विश्वविद्यालय प्रबंधन को उम्मीद है कि इन पांच वर्ष के दौरान नियुक्ति पाने वाले तमाम सहायक प्रोफेसरों में से कम से कम आधी महिलाएं होंगी। इसी तरह एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसरों की भर्ती में महिलाओं की हिस्सेदारी न्यूनतम 35 फीसदी होगी। विश्वविद्यालय के रेक्टर फ्रेंक बाइजेंस के मुताबिक़ अगर योजना सफल रही तो विश्वविद्यालय अपनी फैकल्टी में महिलाओं की संख्या पुरुषों की तादाद के क़रीब ला पाने में कामयाब हो जाएगा।

दरअसल यूरोपीय संघ का क़ानून संस्थानों में किसी विशिष्ट वर्ग के लिए विशेष प्रबंध करने की छूट देता है। यूरोपीय संघ से जुड़े आंकड़े बताते हैं कि यूरोपियन यूनियन के सिर्फ 5 देश, लिथुआनिया (57 प्रतिशत), बल्गेरिया (53 प्रतिशत), लात्विया (53 प्रतिशत), पुर्तगाल (51 प्रतिशत) और डेनमार्क (50.03 प्रतिशत) ऐसे हैं जहां महिला वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की संख्या पुरुषों से अधिक है।
बहरहाल, भारत में हम अभी महिलाओं को आरक्षण देना तो दूर सामाजिक बराबरी देने के रास्ते ही तलाशने में जुटे हैं। भारत में क़रीब 2.40 लाख वैज्ञानिकों में से महज़ 14 प्रतिशत महिलाएं हैं। इसरो जैसे प्रमुख तकनीकी संस्थान में तकनीकी स्टाफ में महिलाओं की भागीदारी 8 प्रतिशत से भी कम है। 2017 में आईआईटी में विभिन्न संकायों के कुल आवेदकों में महज़ 10 प्रतिशत ही महिलाएं थीं। ज़ाहिर सी बात है, जिस दौर में हम लैंगिक समानता, फेमिनिज़्म और महिला अधिकारों की कभी न ख़त्म होने वाली बहस में उलझे हैं, उस काल में आइंटहॉवन इंजीनियरिंग विश्वविद्यालय में सिर्फ महिलाओं को नौकरी देने का फैसला पूरी दुनिया को नई राह दिखाता है।
(कॉपी संपादन : नवल)
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