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सहायक प्राध्यापक की नियुक्ति : प्रतिस्पर्धा से डर क्यों?

दूसरे कार्यकाल के प्रारंभ में ही केंद्र सरकार ने उच्च शिक्षण संस्थानों में रिक्त पड़ी नियुक्तियों को भरने के लिए स्पेशल ड्राइव चलाया है। लेकिन इसके  साथ ही विश्वविद्यालय अपनी ओर से योग्य अभ्यर्थियों को रोकने के लिए नई तरकीबें भी इजाद कर रहे हैं

देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में अब हालात बदले हैं। आरक्षित वर्गों के शोधार्थियों की संख्या में इजाफा हुआ है([1] इस इजाफे ने उच्च शिक्षण संस्थानों के परंपरागत वर्चस्ववादी संरचना को चुनौती दी है। एमफिल और पीएचडी करने वाले छात्रों की संख्या में आरक्षित वर्गों की हिस्सेदारी और दावेदारी पहले की तुलना में बढ़ी है। अब जहां कहीं भी शिक्षक पदों – विशेषरूप से सहायक प्राध्यापक के पद – के लिए विज्ञापन जारी किए जाते हैं, वहां इन वर्गों के अभ्यर्थी पहले की तुलना में अधिक संख्या में आवेदन कर रहे हैं। दूसरी ओर यूनिवर्सिर्टियों में काबिज लोग जाने-अनजाने इन तबकों को रोकने के लिए नए-नए नियम बना रहे हैं। कोशिश यह है कि कैसे आरक्षित वर्गों के प्रतिभाशाली युवाओं  को उच्च शिक्षण संस्थानों में शिक्षक बनने का मौका कम से कम मिले।

सूचनाओं के सार्वजनीकरण से परेशान गुरूगण

पहले जब एमफिल और पीएचडी करने वालो छात्रों में आरक्षित वर्ग के छात्रों की संख्या न्यून रहती थी तब उन्हें कोई समस्या नहीं थी जो  खुली प्रतियोगिता के बजाय ‘अपने’ को महत्व देते थे। उन दिनों विश्वविद्यालयों में फैकल्टी पदों पर नियुक्ति के लिए कम आवेदन आते थे, जिनमें से ‘अपने लोगों’ को चुन लिया जाता था।

पूर्व में कई ऐसे वाकये सार्वजनिक हो चुके हैं जिनमें विश्वविद्यालय द्वारा शिक्षक के पद पर नियोजन के विज्ञापन से पहले ही उम्मीदवार तय कर लिए जाते थे। फिर खानापूर्ति करने के लिए किसी ऐसे अखबार में विज्ञापन छपवा दिया जाता था जिसकी पहुंच या तो कम से कम हो या फिर बिल्कुल भी न हो। कई बार तो ऐसे भी मामले सामने आए कि वैकेंसी दिल्ली में थी और विज्ञापन दूरदराज  के इलाकों में प्रकाशित होने वाले अखबार में छपवा दिया गया। लेकिन इंटरनेट के आगमन और सरकार की नीतियों ने इसमें अहम बदलाव किया है। यूजीसी के द्वारा गाइडलाइन के हिसाब से सभी विश्वविद्यालयों को विज्ञापन किसी अखबार में प्रकाशित करवाने होते हैं, साथ ही उन्हें अपने वेबसाइट पर भी अपलोड करना पड़ता है। इस प्रकार पहले जो सूचना हड़प लिए जाने की तकनीक होती थी, उस पर बहुत हद का रोक लग गई।  अब सबकुछ व्हाट्सएप पर वायरल हो जाता है, और सूचनाएं संबंधित सभी लोगों तक पहुंच जाती हैं।

चूंकि दावेदार बढ़े हैं इसलिए कोशिश की जा रही है कि कैसे ‘अवांछित’ उम्मीदवारों को नियोजन की प्रक्रिया के पहले चरण में ही बाहर कर दिया जाय। दरअसल नियोजन के मामले में विश्वविद्यालयों को बहुत हद तक  स्वायत्तता  प्राप्त है जिसका सदुपयोग से अधिक दुरूपयोग ही होता है।

स्क्रूटनी का खेल

विज्ञापित पदों के लिए आए आवेदनों की जांच के लिए विश्वविद्यालयों के संबंधित विभाग के स्तर पर  स्क्रूटनी की जाती है। फारवर्ड प्रेस को विभिन्न विश्वविद्यालयों से मिली जानकारी के अनुसार ये स्क्रूटनी कमिटियां बड़ी संख्या में आवेदनों को खारिज कर रही है, जिससे प्रतिस्पर्धी उम्मीदवार दौड़ से पहले ही बाहर हो जाएं।


जबकि यूजीसी ने सहायक-प्राध्यापक पद के लिए न्यूनतम योग्यता घोषित कर रखी है।[2] इसके तहत स्नातकोत्तर में 55 प्रतिशत अंक पाने वाले तथा 2009 की नियमावली के तहत पीएचडी करने वाले अभ्यर्थियों को साक्षात्कार के लिए बुलाया जाना चाहिए। इसी प्रकार एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफसर पद के लिए भी न्यूनतम अर्हताएं यूजीसी द्वारा पूर्व निर्धारित हैं। आखिर, विश्वविद्यालय इस नियम का इनका पालन क्यों नहीं करना चाहते हैं? आवेदन पत्रों की छंटाई के लिए बनाए जाने वाले ये अवसरानुकूल नियम, न सिर्फ समान अवसर के सिद्धांत का उल्लंघन है बल्कि नियुक्तियों में धांधली का भी मुख्य कारण है।

अकादमिक अनैतिकता के श्रेष्ठ पैमाने : कथित शोध-पत्र और सेमिनार

कुछ केंद्रीय विश्वविद्यालयों ने यह नियम बनाया है कि जिन अभ्यर्थियों ने अपने आवेदन में शोध-आलेखों के प्रकाशन की भारी-भरकम संख्या नहीं दर्शायी है, उन्हें साक्षात्कार के लिए बुलाया ही न जाय। जबकि यूजीसी ने यूनिवर्सिर्टियों को परामर्श दिया है कि वे शोध-पत्रों की संख्या नहीं, बल्कि उनकी गुणवत्ता देखें।[3]

कुछ अन्य विश्वविद्यालय योग्य आवेदकों को बाहर करने के लिए यह पैमाना बना रहे हैं कि आवेदक ने कितने सेमिनारों में भागीदारी की है। इसी प्रकार कुछ यूनिविर्सिर्टियां ‘शिक्षण का अनुभव नहीं होने’ के आधार पर आवेदनों की छंटाई कर रही हैं।

मसलन, रिसर्च-पेपर के प्रकाशन के आधार पर छंटाई के मामले को देखें।  पिछले एक-डेढ वर्षों में  यूजीसी ने इस संबंध में नियमों में लगातार बदलाव किए हैं। उसने हिंदी में प्रकाशित होने वाली ऐसी श्रेष्ठ पत्रिकाओं को जो, दलित-बहुजन मुद्दों अथवा प्रगतिशील मूल्यों को प्रमुखता देती थीं, उन्हें अपनी सूची से बाहर कर दिया है। हिंदी में शोध करने वाले अनेक प्रतिभाशाली शोधार्थियों के शोध-आलेख  प्राय: इन्हीं पत्रिकाओं में छपे हैं। दूसरी ओर ऐसी पत्रिकाओं की भरमार है, जो पैसे लेकर शोध-पत्रों का प्रकाशन करती हैं। यूजीसी द्वारा वर्ष 2017 में कथित तौर पर इन पर लगाम लगाने की कोशिश आरंभ की गई थी। इसके लिए ‘यूजीसी केयर’ नामक एक कमिटी का गठन किया गया है। लेकिन इसमें अनेक प्रकार के भ्रष्टाचार की सूचनाएं अब उजागर होने लगी हैं। दिल्ली से दूर स्थित यूनिवर्सिटियों के संबंधित पदाधिकारी गुणवत्ताहीन पत्रिकाओं को केयर की सूची में शामिल करवाने के लिए पैसे वसूल रहे हैं। पिछले एक साल में ऐसी कई पत्रिकाएं केयर की सूची में शामिल भी हो चुकी हैं।

ऐसे में अनुमान लगाया जा सकता है कि  शोध-पत्रों के प्रकाशनों की संख्या के आधार पर आवेदनों की छंटनी से किस प्रकार के अभ्यर्थी साक्षात्कार के लिए पहुंच पाएंगे।

यही हाल कथित ‘शिक्षण के अनुभव’ का भी है। जिस तरह  नियुक्तियों में गुरू-चेला परंपरा का पालन यूनिवर्सिर्टियों में होता रहा है, उसमें कुछ खास वर्गों और विचारधाराओं के शोधार्थियों को ही एडहॉक, गेस्ट-लेक्चरर के पद पर पढ़ाने का अवसर मिलता है। इसके अलावा दूर-दराज के विश्वविद्यालयों में इन अस्थाई पदों पर आरक्षण के नियमों की भी आसानी से अनदेखी कर दी जाती है।  ऐसे में यह कहां तक उचित है कि जिन लोगों को अस्थाई पद पर काम करने का अवसर नहीं मिला, उन्हें स्थाई पद के लिए विज्ञापन में भी अवसर न दिये जाएं?

इसी प्रकार, आवेदन पत्रों की छंटनी में यूनिवर्सिटियां एक और शर्त यूजीसी/यूनिवर्सिटी फंडेड सेमिनारों में पर्चा प्रस्तुत करने अथवा भागीदारी करने के संबंध में लगा रही हैं। ये वे सेमिनार हैं, जिनमें बौद्धिक-अनैतिकता का नंगा नाच होता है। अभ्यर्थियों से दो-दो हजार रूपए वसूले जाते हैं तथा उसके बदले उन्हें एक प्रमाण दिया जाता है। इसके लिए बजाप्ता पोस्टर-पंफलेट छापे जाते हैं और उन्हें बिना किसी शर्म के सार्वजनिक रूप से वितरित किया जाता है।  क्या कोई भी शोधार्थी, जिसमें जरा भी गैरत हो और जिसे अपने शोध-कर्म की गुणवत्ता पर विश्वास हो, ऐसे प्रमाण-पत्रों के लिए लगने वाली लाइन में लगना चाहेगा?

आवेदन पत्रों की छंटनी की इस प्रकिया में न तो द्विज तबके के, न ही वंचित तबके के  प्रतिभाशाली उम्मीदवार साक्षात्कार तक पहुंच ही नहीं पाएंगे।

इसकी अधिक मार आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों पर पड़ती है। वे प्राय: अपने परिवार की पहली पीढ़ी के युवा होते हैं जो उच्च शिक्षण संस्थानों में पहुंचते हैं, इसलिए उन्हें समझाने वाला भी कोई नहीं होता कि स्क्रूटनी कमेटी किस-किस तरीके से आवेदनों को खारिज कर सकती है। साथ ही ये तरीके न तो पूर्व निश्चित होते हैं, न ही यूनिवर्सिटियां इन्हें सार्वजनिक करती हैं, और न ही स्क्रूटनी के तरीके में बदलाव के बाद अभ्यर्थी को अपने आवेदन में परिवर्तन की छूट देती हैं।

वंचित तबकों को मिले अवसर

ऐसी स्थिति में, यूनिवर्सिर्टियों द्वारा स्क्रूटनी के मनमाने नियम बनाने पर रोक लगानी चाहिए तथा उन्हें बाध्य किया जाना चाहिए कि अगर उन्होंने विज्ञापन में स्क्रूटनी के नियम घोषित न किए हों तो सिर्फ साक्षात्कारकर्ताओं की बढ़ती संख्या को रोकने के लिए स्क्रूटनी के दौरान बहिष्कृत करने के नियम न बनाएं। न्यूनतम अर्हता रखने वाले हर अभ्यर्थी को चाहे वह द्विज तबके को अथवा आरक्षित श्रेणी का, साक्षात्कार में अपनी योग्यता साबित करने का अवसर दें। फारवर्ड प्रेस को मिल रही शिकायतों के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि दलित-पिछड़े- आदिवासी समूहों से आने वाले (न्यूनतम अर्हता रखने वाले) सभी अभ्यर्थियों को साक्षात्कार में बुलाए जाने के लिए विशेष तौर पर प्रावधान किए जाने चाहिए क्योंकि इन वंचित तबकों से आने वाले शिक्षकों की संख्या अभी भी नगण्य है। हमारी यूनिविर्सिर्टियों के स्तर को ऊंचा उठाने के लिए इन वंचित तबकों के ज्ञान और अनुभव का समावेश आवश्यक है।

(कॉपी संपादन : फारवर्ड प्रेस)

[1] https://www.financialexpress.com/education-2/higher-education-survey-2018-growth-in-obc-scheduled-caste-students-enrolment-of-girls-dwindle/1261268/

[2] https://www.ugc.ac.in/pdfnews/4033931_UGC-Regulation_min_Qualification_Jul2018.pdf

[3] https://www.ugc.ac.in/pdfnews/6315352_UGC-Public-Notice-CARE.pdf


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नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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