मौजूदा समय इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक का है। कायदे से होना तो यह चाहिए कि समाज में जातिगत भेदभाव और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता खत्म हो और समता आधारित लोकतांत्रिक भारत का निर्माण हो। दिल्ली का प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय इस मामले में एक हद तक नजीर था। जिसकी मूल खूबी हर स्तर पर लोकतांत्रिक मूल्यों और परिवेश की उपस्थिति रही है। इस परिवेश में दलित-बहुजन छात्र-छात्राएं हर स्तर पर समता के लिए संघर्ष करते रहे हैं और उसे काफी हद तक हासिल भी किया। लेकिन अब यहां भी भारतीय समाज के रग-रग में व्याप्त अलोकतांत्रिक बीमारी को प्रश्रय दिया जा रहा है। जेएनयू प्रशासन की ओर से नये-नये नियम बनाए जा रहे हैं। इस संस्था में दलित-बहुजनों के प्रवेश और समता के साथ जीने के हक को बाधित करने की हर कोशिश की जा रही है।बिरसा-आंबेडकर-फुले स्टूडेंट्स एसोसिएशन (बापसा) के सदस्यों ने भी अपनी आवाज दर्ज कराई है।
महाराष्ट्र के दलित-बहुजन परिवार से आने वाली छात्रा संध्या के मुताबिक, “मैं महाराष्ट्र से जेएनयू इसलिए आयी कि मुझे पढ़ने का बेहतर माहौल मिलेगा। मैंने जेएनयू के बारे में बहुत सुन रखा था। यहां के डेमोक्रेटिक वातावरण और समानता वाले माहौल के बारे में। लेकिन अब लगता है कि हमें हमारे हॉस्टल में कैद किया जा रहा है। हम कब लाइब्रेरी जाएं और कब न जाएं, यह भी हमारे कुलपति की मर्जी पर निर्भर है। यह सब हम दलित, आदिवासी और पिछड़ा वर्ग के छात्रों को हतोत्साहित करने के लिए किया जा रहा है। हॉस्टल की फीस में वृद्धि के पीछे भी उनकी यही मंशा है।”
ऐसे ही सवाल आसाम के निर्बान रे ने उठाए हैं। फेसबुक पर जारी वीडियो में उन्होंने कहा है कि जेएनयू में हम दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों को परेशान किया जा रहा है। प्रशासन द्वारा जो कदम उठाए जा रहे हैं, उसके सबसे अधिक शिकार हम दलित-बहुजन ही होंगे। जेएनयू प्रशासन का रवैया पूरी तरह तानाशाहीपूर्ण है।

दरअसल, जेएनयू के ये दलित-बहुजन छात्र इसलिए आक्रोशित हैं क्योंकि प्रशासन ने हॉस्टल के लिए नए नियम बनाए हैं और पूराने नियमों में बदलाव किया है। अब नये नियमों के मुताबिक, कोई भी बाहरी व्यक्ति रात साढ़े दस बजे के बाद प्रवेश नहीं करेगा। छात्राओं के हॉस्टल में पुरूष छात्रों और पुरूष मेहमानों का आना प्रतिबंधित होगा। केवल उन मेहमानों को हास्टल के डायनिंग हॉल में खाने के वक्त प्रवेश की अनुमति होगी, जिन्हें विश्वविद्यालय द्वारा सर्टिफिकेट जारी किया जाएगा। गौरतलब है कि जेएनयू में पोस्ट डिनर परिचर्चाओं की परंपरा रही है। इन आयोजनों में बाहरी बुद्धिजीवी और चिंतक आदि भी शामिल होते रहे हैं। लेकिन जेएनयू के नये फरमान के बाद ऐसा नहीं हो सकेगा।
निर्बान के जैसा ही आक्रोश बापसा के उपाध्यक्ष श्रीरमण ने व्यक्त किया है। वे तामिलनाडु से हैं। उनका कहना है कि जेएनयू के कुलपति मामिडाला जगदेश कुमार हम लोगों पर कर्फ्यू थोप रहे हैं। वे हमसे हमारे लोकतांत्रिक अधिकारों को छीन रहे हैं। वह परिसर में ब्राह्मणवादी पितृसत्ता स्थापित करना चाहते हैं। वे लाइब्रेरी में पढ़ने की समय-सीमा तय कर रहे हैं।
बहरहाल, बापसा के इन छात्रों का यह आक्रोश गैरवाजिब नहीं है। इसके मूल में है जेएनयू जैसी उत्कृष्ट शिक्षण संस्थाओं पर सामाजिक वर्चस्व को बनाए रखने की मंशा। दरअसल, उच्च शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़े वर्गों के लोगों को आरक्षण का लाभ मिलने से जेएनयू में इस वर्ग के छात्रों की संख्या बढ़ी है। इसका एक परिणाम यह भी हुआ है कि अब दलित-बहुजन छात्र एकजुट भी हुए हैं। वामपंथ और दक्षिणपंथ के नाम पर द्विजों के वर्चस्व को कड़ी चुनौती मिली है। अभी हाल ही में जेएनयू छात्र संघ अध्यक्ष पद के चुनाव में बापसा उम्मीदवार जितेंद्र सुना को 1122 मत मिले जबकि दूसरे स्थान पर रहे एबीवीपी के उम्मीदवार मनीष जांगिड को 1128 मत। ऐसे में कहना गैर वाजिब नहीं कि जेएनयू को एंटी नेशनल कह बदनाम करने की साजिश के पीछे असली मंशा दलित-बहुजनों को जेएनयू में मिलने वाली उत्कृष्ट शिक्षा से वंचित रखना है।
(कॉपी संपादन : सिद्धार्थ/अनिल)
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