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द्विजों की पाखंड भरी होली के विपरीत प्रकृति के साथ उल्लास का पर्व है कोइतूरों का “शिमगा सग्गुम”

भारत में होली का मूल स्वरुप और वैज्ञानिक अवधारणा शायद ही कोई जानता हो। सूर्या बाली बता रहे हैं कि यह कोइतुरों का शिमगा सग्गुम पर्व हैं, जो वास्तव में हिंदुओं का नहीं बल्कि कोइतूरो का शुद्ध कृषि प्रधान त्यौहार है, जिसके पीछे एक विज्ञान भी है। बता रहे हैं सूर्या बाली

प्राचीन भारत (जिसे कोयामुरी द्वीप या जंबू द्वीप कहते थे) में पशुपालन और कृषि कार्य जीवन का आधार था। आज भी भारत की अर्थव्यवस्था में यह सबसे महत्वपूर्ण अवयव है। इसका असर समाज में भी दिखता है। प्रमाण यह कि तमाम पर्व-त्यौहारों की पृष्ठभूमि कृषि और पशुपालन से जुड़ी है। हालांकि विकास के क्रम में इन त्यौहारों में कई विकृतियाँ आने लगी, जिसके चलते बहुत सारे अप्राकृतिक कथाएँ, किस्से-कहानियाँ जुड़ती गईं। फलस्वरूप वास्तविक त्यौहारों का स्वरूप बदलता गया। लेकिन आज भी मध्य भारत के हिस्से में रहने वाले कोइतूरों (कोया वंशी) में अपने पारंपरिक त्यौहारों को आर्यों के सांस्कृतिक प्रदूषण से बचाए रखने में कामयाब हैं। कोइतूर कोई जाति नहीं बल्कि भारत के मूलनिवासियों का सामूहिक नाम है। 

 

कोइतूर समुदाय के लोग प्राचीन जीववादी व्यवस्था में विश्वास रखते हैं। यही कारण है कि वे अपने आसपास के सभी जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों में जीवन देखते हैं। उनके लिए ये सभी जीव आदर सम्मान के पात्र भी हैं। 

आमतौर पर एक वर्ष में तीन तरह के फसलों की खेती होती हैं – खरीफ़, जायद और रबी। हालांकि बरसात आधारित खेती वाले इलाकों में दो तरह की खेती ही की जाती है। रबी और खरीफ। गोंड भाषा में रबी को उन्हारी और खरीफ को सियारी कहा जाता है। इन दोनों प्रकार की खेती के बीच करीब तीन महीने का अंतर होता है। लिहाजा इस अवधि में शादी-विवाह व अन्य घरेलू कार्य निपटाए जाते हैं। 

सियारी यानी खरीफ की फसल आधारित त्यौहार आषाढ़ महीने से प्रारंभ होकर कार्तिक महीने तक मनाए जाते  हैं, जिनमें जवारा, आखाड़ी, बिदरी, जीवती, पोला, पूनल वंजी, सजोरी इत्यादि पर्व शामिल हैं। इसी प्रकार अगहन से फाल्गुन मास तक उन्हारी यानी रबी फसल आधारित त्यौहार मनाए जाते हैं। इनमें  मड़ई, छेर छेरता, सय मुठोली, शंभू शेक नरका, शिमगा सग्गुम, खंडेरा गोंगोंं, गढ़ गोंगोंं इत्यादि

गोंडी भाषा में वर्ष के अंतिम महीने फाल्गुन को “पांडामान” कहते हैं। “पांडामान” में रबी की फसल पककर तैयार होने लगती है। इनमें गेहूं और दलहन की फसलें शामिल होती हैं। नई फसल को खेत से घर लाने के पहले खास तैयारी के तहत खलिहान व अनाज रखने के लिए भंडारगृहों का इंतजाम किया जाता है। इस बीच माघ मास की पूर्णिमा और फाल्गुन की पूर्णिमा तक अनेक त्यौहार मनाए जाते हैं। इनमें शंभू शेक नरका (महाशिवरात्रि) और शिमगा सग्गुम प्रमुख हैं। भारत में जिसे होली का त्यौहार के रूप मनाते हैं, उसकी मूल अवधारणा और वैज्ञानिक कारणों के बारे में कोई नहीं जानता।

शिमगा सग्गुम के मौके पर सामूहिक नृत्य करते कोयतूर समुदाय के लोग

“सावरी सग्गुम” दो शब्द हैं, जो क्रमश: सावरी याने वर्ष तथा सग्गुम याने मिलन अथवा संधि का प्रतिनिधित्व करते हैं। दोनों शब्द मिलकर “दो वर्षों का मिलन” का अर्थ देते हैं। यही सावरी सग्गुम कालांतर में अपभ्रंशित होकर  “शिमगा सग्गुम” और शिवम गवरा सग्गुम हो गया। मतलब फाल्गुन मास के पूर्णिमा के दिन “जूनल सावरी” (पुराने वर्ष) और “पूनल सावरी” (नए वर्ष) का सग्गुम का दिन होता है। इस दिन वर्ष के अंतिम माह फाल्गुन की पूर्णिमा और नए वर्ष के प्रथम दिन चैत्र माह के परेवा का संगम होता है। उसी दिन “शिमगा सग्गुम” मनाते है। शेष भारत में भी होली का त्यौहार इसी दिन मनाया जाता है।

हालांकि शेष भारत में होली को हिंदू मिथकों से जोड़कर धार्मिक पर्व बना दिया गया है। जबकि वास्तव में यह  कोइतूरो का शुद्ध रूप से कृषि प्रधान त्यौहार है। इसके पीछे लंबी परंपरा और वैज्ञानिक आधार भी। कोइतूर परंपरा में शिमगा सग्गुम कोई एक त्यौहार नहीं, बल्कि कई पर्वों का समुच्चय  है, जो 15 दिनों तक चलता है। इसमें मुख्य तौर पर चार पर्व शामिल हैं –

  1. रोन रजगा गोंगोंं पाबुन (घर की साफ सफाई का पर्व )
  2. अद्दीटिया पेन गोंगोंं (नई आग के स्वागत का पर्व )
  3. उन्हारी नवा खवाई पाबुन (रबी की फसल का नया खाना पर्व)
  4. शिमगा सग्गुम या सगा सग्गुम पाबुन (होली मिलन पर्व )

रोन रजगा गोंगों पाबुन

इस पर्व के पीछे कोइतुर परंपरा में वैज्ञानिक चिंतन यह है कि बरसात और जाड़े के बाद घर के आंतरिक हिस्सों में नमी बनी रहती है, जिससे अनेक हानिकारक परजीवी मानव शरीर के साथ-साथ कपड़ों और बिस्तरों में पनपने लगते हैं। स्वच्छता के लिहाज से यह पर्व मनाया जाता है, जिसमें रजगा यानी गंदगी,/ मैल व कूड़ा घर से बाहर निकाला जाता है। घर के अंदर पुराने भंडारण के स्थानों व उपकरणों यथा बखार, डेहरी, कोठरी, ड्रम, कूड़े हांडी, गगरी इत्यादि की साफ-सफाई की जाती है, ताकि रबी की फसल (उन्हारी) को सुरक्षित रखा जा सके। 

इस दौरान खेती में उपयोग किए जानेवाले सभी उपकरणों की भी साफ-सफाई की जाती है। इन उपकरणों का उपयोग फसल को काटने, ढोने, मड़ाई करने, साफ करने और इकट्ठा करने में किया जाता है। इसके साथ ही खलिहान भी बनाई जाती है, जहां खेत से लाए गए फसल को रखा जाता है और मड़ाई के उपरांत घरों में सुरक्षित रखा जाता है। 

इस दिन लोग घर के आसपास नालियों, नाले और गड्ढों की भी सफाई करते हैं, ताकि गंदे पानी न हों और मच्छरों को पनपने से रोका जा सके। चूंकि यह गंदा काम समझा जाता है, इसलिए इसे खेल और उत्सव से जोड़ दिया गया। होली में भी इसी तरह से कीचड़ व गोबर खेला का विधान है, ताकि आसपास की सफाई हो सके।

जब घर, आँगन, द्वार और खलिहान इत्यादि की सफाई हो जाती है तब लोग व्यक्तिगत साफ-सफाई करते हैं। जाड़े के दिनों में लोगों द्वारा कम स्नान करने व खेती के काम में लगे रहने के कारण शरीर पर मैल जम जाता है। चूंकि होली के साथ ही गर्मी के मौसम का आगमन होता है, इसलिए लोग बड़े ही चाव से स्नान कर खुद को साफ करते हैं। शरीर की सफाई के लिए सरसों या उड़द की दाल का उबटन पूरे शरीर में लगाया जाता है और हल्दी-तेल से शरीर की मालिस करते है। शरीर से निकलने वाली मैल को भी रजगा के साथ घर से बाहर फेंका जाता है। इस तरह से बदले मौसम और कृषि की जरूरतों के हिसाब से होली में रजगा (गंदगी) निकालने  की परंपरा है।

उन्हारी (रबी) फसल के स्वागत में नवा खवाई पर्व मनाते लोग

परंपरा के अनुसार शिमगा सग्गुम के दौरान घर और खेतों व आसपास  उगने वाले विषैले और नशीले पौधों को जड़ से उखाड़ कर जलाते हैं। ऐसे पौधों के बीजों के झड़ने से नए विषैले पौधे होंगे, जिसके संपर्क में आने से लोगों और पशुओं को नुकसान होता है। इसलिए बैगा (जड़ी-बूटी और औषघीय पौघों के ज्ञानी) और नार भूमका (गाँव के पुजारी) की अगुवाई में ऐसे पौधों की पहचान करके उन्हे उखाड़कर जला दिया जाता है। ऐसे पौधों में धतूरा, गाँजा, भांग, मदार, जंगली बेल जैसे विषैले पौधे होते हैं, जिसे शिव पर चढ़ाने का प्रचलन है। इन हानिकारक पौधों और वनस्पतियों को मानव निवास के आसपास से खत्म करने की प्राचीन काल से परंपरा रही है।।

कोइतूर सामाजिक व्यवस्था में चीजों को अनायास जलाने का कोई प्रावधान नहीं है। इसलिए रजगा से निकली गंदगी, कूड़ा-कचरा, हानिकारक और विषैले पौधों इत्यादि को गाँव के बाहर एक गड्ढे में फेकते हैं। फिर इस रजगा के उपर मिट्टी डालने की परंपरा रही है। फिर नार भूमका वहाँ पर “रजगा गोंगों” (प्रकृति में समाहित करने का कर्मकांड) सम्पन्न करवाता है। कालांतर में कुछ धर्मभीरु और शरारती लोग ब्राह्मणवादी संस्कृति के प्रभाव में आकर प्रकृति विरुद्ध बर्ताव करने लगे और रजगा को जलाकर होली मनाने लगे।

आज की प्रचलित विकृत होली दहन वास्तव में कोइतूरों का अद्दीटिया पेन गोंगोंं है!

मानव द्वारा आग की खोज एक महत्त्वपूर्ण खोज मानी जाती है क्योंकि इससे मानव जीवन पूर्णरूपेण बदल गया। आग को गोंडी भाषा में “किस” या “अड्डी” कहते हैं (विलियम्सन, 2013)। मानव ने शुरू में जंगलों में सूखे पेड़ों के आपसी रगड़ से लगने वाली आग को देखा और उसमें जलकर मरे हुए जीवों के मांस को खाया तो वह मांस उसे ज़्यादा नरम और स्वादिष्ट लगा। यहीं से मानव द्वारा आग को जानने-समझने का सिलसिला शुरू हुआ। जब मानव पत्थरों को आपस में टकराता या तोड़ता था तब चिंगारी से निकली आग को सुरक्षित रखने का कोई साधन नहीं था। धीरे-धीरे मानव ने जंगल की घटना से कुछ सीखा और खुद दो सूखी लकड़ियों या दो पत्थरों को रगड़ कर आग पैदा किया (खोड़के, 2012)

चूंकि आग को अगर बचाकर नहीं रखा गया तो यह जल्दी ही बुझ जाता है और दुबारा उसे प्राप्त करने के लिए फिर से वही लंबी जटिल और परिश्रम पूर्ण प्रक्रिया दुहरानी पड़ती थी, इसलिए आग को लंबे समय तक सुरक्षित रखना भी जरूरी हो जाता था। आग को रस्सियों के द्वारा, लकड़ी के मोटे  टुकड़ों के द्वारा या गोबर के कंडों को जलाकर लंबे समय तक रखा जाता था। फिर आग को सुरक्षित रखने के लिए गड्ढे खोदकर उसमें राख के नीचे आग को दबाकर सुरक्षित रखने का प्रयास किया जाता था।

फाल्गुन में गर्मी शुरू होते ही आग लगाने की घटनाएं आम हो जाती थीं। प्रारम्भिक मानव इसे एक दैवीय आपदा या प्रकृति के कोप के रूप में देखता था और वह आग के भयावह रूप से डरने लगा। यही वजह रही कि आग को भी प्रकृति का हिस्सा माना गया और कोइतूर इसे अद्दीटिया पेन कहा जाता है। यह फड़ापेन (पाँच महाभूत) का एक महत्त्वपूर्ण अवयव है। आग से होने वाले बुरे प्रभावों से बचाने के लिए और अगले वर्ष के लिए नयी आग पैदा करने के लिए ही कोइतूरों द्वारा अद्दीटिया पेन गोंगों (अग्नि देव पूजा) किया जाता है।

फाल्गुन पूर्णिमा की मध्य रात्रि से पहले सभी कोइतूर परिवार खाना बनाकर घर की सभी प्रकार की आग बुझा देते हैं। चूंकि यह वर्ष का अंतिम दिन होता है, इसलिए अब नए वर्ष में नई आग चाहिए होगी। आग बुझाने के साथ साथ पूरे घर का सारा कूड़ा, पुराने कपड़े-लत्ते, घर की सफाई से निकले कचरे (रोन रजगा) को निकाल कर गाँव के बाहर करते हैं और नार भुमका रोन रजगा को विदाई सम्पन्न करवाते हैं।

इसके लिए गाँव के पूर्वी हिस्से में खाली मैदान या स्थान पर मिट्टी का एक चबूतरा बनाया जाता है। कहीं-कहीं एक गड्ढा खोदकर उसमें सेमल या अरंडी के पेड़ की डाली गाड़कर अद्यीटिया  पेन गोंगोंं की शुरुआत की जाती है। नार भुमका की अगुवाई में गाँव के प्रत्येक घर से सड़ापी कंडा (गाय के गोबर के उपले) या सूखी लकड़ियों को एकत्रित किया जाता है। फिर सभी को एक साथ रखकर ढेर लगाया जाता है। तदुपरांत सेमल की सूखी लकड़ी या अन्य उपलब्ध लकड़ी को आपस में रगड़कर नई आग पैदा की जाती है। उस आग से पूरे गाँव से इकट्ठा किए गए गोबर के कंडों को जलाया जाता हैं।

इसके बाद दो लकड़ी को धनुष को बरमा (लकड़ी में छेद करने का पारंपरिक औजार) के जैसे उपकरण बनाकर नई आग पैदा कर नार भुमका गोंगोंं (पूजा) करते हैं। गाँव के सभी लोग एक साथ बैठकर अद्दीटिया पेन का सामूहिक हेत (आराधना) करते हैं और उनसे प्रार्थना करते हैं कि आने वाले समय में वे हमारे घर, पशुधन, फसल और जंगल को नुकसान न पहुंचाएँ और हमारे घरों में हमेशा विद्यमान रहें। 

नार भुमका सभी ग्राम वासियों को आग के गुण-धर्म, उसके रखरखाव और आग से बचने के तरीके के साथ आग को नियंत्रण में रखने के तरीकों की शिक्षा भी देते हैं। मध्य रात्रि में इस प्रार्थना सभा के बाद नार भुमका उस आग के ढेर से सभी को आग का छोटा सा हिस्सा देता है, जिसे लोग अपने घरों में ले आते हैं और उसे सुरक्षित रखते हैं। लोग यह कोशिश करते हैं कि यह आग साल भर न बुझे। आग बुझने की स्थिति में उन्हें किसी अन्य घर से मांगने जाना पड़ेगा, जिसे अच्छा नहीं माना जाता है। प्राचीन समय में इस प्रक्रिया का बड़ा महत्व था, क्योंकि तब लोगों के पास माचिस, लाइटर या आग जलाने के अन्य तरीके नहीं उपलब्ध थे।

भुमका द्वारा अद्दीटिया पेन गोंगों सम्पन्न करवाने के पश्चात सभी लोग इस आग के ढेर के चारों तरफ दायें से बाएँ (एंटी क्लॉक वाइज़) परिक्रमा करते हैं। इसी आग में लोग नए उन्हारी फसल (जौ, गेंहूं, मटर, चना इत्यादि ) के पौधों सहित गोबर से बनाए गए छल्ले (बल्ला) में डालकर उसे भूनते हैं और उसका स्वाद लेते हैं, जो उन्हारी की नवा खवाई का प्रतीक है।

कहीं-कहीं जनजातीय क्षेत्रों में शिमगा (होली) में इन्द्र, ब्रह्मा और विष्णु को रजगा (घर के कूड़े-कचरे) और आसपास उगे विषैले पौधों के साथ जलाते हैं और नाचते-गाते हुए कहते हैं – शिव गवरा जोहार जो! इंदेर रकास फोदाय फो! बनोर रकास फोदाय फो! बिनोर रकास फोदाय फो! अर्थात शिव गवरा की जय-जयकार हो! इन्द्र राक्षस का नाश हो! ब्रह्मा राक्षस का सत्यानाश हो! विष्णु राक्षस का सत्यानाश हो! (कंगाली, 2011; वरकड़े, 2019)। कहीं-कहीं लोग इसी अग्नि की परिक्रमा करते हुए और गीत गाते हुए सामूहिक नृत्य भी करते हैं। आग के बुझे हुए राख़ से लोग एक-दूसरे को टीका लगाते हुए सेवा जोहार करते हैं। अंत में सभी लोग अद्दीटिया पेन गोंगों द्वारा तैयार आग लेकर अपने-अपने घरों को वापस लौट जाते हैं।

इस प्रकार शिमगा सग्गुम विशुद्ध कृषि और प्रकृति पर आधारित वार्षिक पर्व है, जिसे सभी मूलनिवासी कोइतूर मनाते हैं। इस तरह वे अपनी संस्कृति और सभ्यता को अगली पीढ़ियों को हस्तांतरित करते हैं। कालांतर में आर्यों द्वारा इसमें बहुत सारी विकृतियाँ थोप दी गयीं। उन्होंने इसे हिरण्यकशिपू, प्रह्लाद और उसकी फुआ होलिका, कृष्ण, गोपिकाएं और अन्य मिथकों से जोड़कर धार्मिक बना दिया। इसे इतना वीभत्स बना दिया कि इस दौरान एक महिला को जिंदा जलाने की प्रथा आज भी दुहराई जाती है। कोइतूरों का इस कहानी से कोई लेना-देना नहीं है और न ही संस्कृति और रीतिरिवाज में इसका कोई स्थान है। क्या कोई मानव एक स्त्री की जलती चिता में अन्न भून कर खाएगा और नाच-गान करेगा?

उन्हारी नवा खवाई पाबुन

कोइतूर संस्कृति में प्रत्येक फसल के पकने पर उपयोग के पहले सर्वप्रथम उसे खेती से जुड़े पेन-पुरखों को समर्पित करते है। यह होली का पर्व उन्हारी की नई फसल के आगमन के स्वागत और उसके नवा खवाई पर्व का प्रतीक है। इस फसल में  गेंहू, जौ, चना, मटर, अलसी, सरसों आदि शामिल होते हैं। अपने पेन-पुरखों को पहले अर्पण करने के बाद वे स्वयं ग्रहण करते हैं। इस तरह यह उन्हारी की नवा खवाई का त्यौहार है। इस अवसर पर गोटुल (शिक्षा के केंद्र) में भी शिष्यों को उनके मुठवा (गुरु) इन फसलों के चक्र को समझाते हैं ताकि वे आगे चलकर अच्छी फसल उगा सकें और खेती को अच्छे से अपनी आजीविका का साधन बना सके।

शिमगा से जुड़ी मान्यताएं होली की कथा से बिल्कुल विपरीत है!

पूरे भारत में होली यानि रंगों के त्यौहार सबसे ज़्यादा प्रचलित और प्रसिद्ध है। इसे विभिन्न नामों से जाने जाता है। जैसे गोवा और कोंकण में इसे शिमगो या शिमगा कहते हैं (जोशी, 2020) और छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, तेलंगाना और महाराष्ट्र के कुछ हिस्से में गोंड़ी भाषी लोग होली को शिमगा सगगुम पाबुन कहते हैं (कंगाली, 2011; मरई, 2002)

होली के संदर्भ में हिन्दू मान्यताओं ने कई मिथक गढ़े हैं, जो भारत के प्राचीन कोइतूर सभ्यता से भिन्न हैं। ब्राह्मणवादी मिथक से अलग कोइतूरों की अपनी प्रचलित “विरोधी पौराणिक” गाथा है। कोइतूर मान्यातओं के अनुसार आर्यों ने जब कोयामूरी द्वीप पर आक्रमण किया तो यहाँ शंभू शेक (कोइतूर राजा) कोइतूरों के पोया (पोषक राजा) यानी रक्षक और पालक थे। शंभू शेक और आर्यों के राजा इन्द्र की सेना के बीच घमासान युद्ध हुआ, जिसमें इन्द्र पराजित हुआ। शंभू शेक अपनी तंत्र विद्या और योग विद्या से बहुत शक्तिशाली बने रहते थे, इसलिए आर्य उन्हें कभी परास्त नहीं कर पाए। बार-बार हारने के कारण आर्यों ने छल कर शंभू शेक को हराने के लिए षडयंत्र रचा।

इन्द्र के कहने पर आर्य राजा दक्ष ने अपनी रूपवती कन्या पारबती (पार्वती) को शंभू शेक को व्यसन (बुरी आदत) में लिप्त करने के लिए भेजा। ऐसा इसलिए कि यदि शंभू शेक व्यसनी हो गया तो उसे हराना आसान होगा। लेकिन पारबती की एक भी चाल कामयाब नहीं हुई। इसके उलट पारबती शंभू शेक की भक्तिन बन गई और मन ही मन उन्हें अपना पति मानकर उनकी सेवा करने लगी। तब पारबती ने शंभू शेक को आर्यों के षडयंत्र के बारे में बताया।

इस तरह पारबती के पलटने के बाद राजा दक्ष और अन्य राजाओं ने उसे भी मारने का षडयंत्र रचा। एक दिन राजा दक्ष ने सभी आर्य राजाओं को बुलाकर यज्ञ किया। इसमें पारबती को आमंत्रित किया। परंतु, शंभू शेक को नहीं बुलाया। शंभू शेक ने पारबती को अपने कोइतूर सैनिकों की सुरक्षा में भेज दिया, जहां आर्यों ने पारबती का बहुत अपमान किया और अग्निकुंड में धकेलने की कोशिश की। शंभू शेक को अपने गुप्तचरों से पारबती के अपमान की सूचना मिली। शंभू शेक ने तब अपने तीसरे नेत्रा से राजा दक्ष के महल को जलाकर राख़ कर दिया। शंभू शेक के सैनिकों ने उस राख को बदन पर लगाकर खुशियां मनाई और “शिवम गवरा जोहार जा! बनोर रकास फोदाय फा!” का नारा लागते हुए होली मनाई (कंगाली, 2011)। इस तरह आर्यों को हराकर यहाँ के मूलनिवासी कोइतूरों ने पहली होली मनाई। 

परंतु, आज के दौर में यह चिंतनीय है कि कोइतूरों की होली द्विजों के सांस्कृतिक हमले से संक्रमित होती जा रही है। इसमें कथित तौर पर शहरीकरण का भी योगदान है। 

इसके बावजूद शिमगा सग्गुम द्विजों की होली से अलग है। द्विजों की होली में त्यौहार के बहाने सीमाओं को लांघा जाता है। लोग रंग लगाने के बहाने बहू-बेटियों से अश्लील हरकतें करते हैं। कमजोर वर्गों की बहन-बेटियों की इज्ज़त पर भी हाथ डालने से बाज नहीं आते हैं। सवाल यही है कि क्या समाज में औरतें हंसी मज़ाक उड़ाने, अश्लील हरकतों को बर्दाश्त करने, पुरुषों का मनोरंजन करने और गालियां सुनने के लिए बनी हैं? वर्त्तमान में यह पूरी तरह से पुरुष प्रधान समाज की ओछी मानसिकता का प्रदर्शन है। होली के नाम पर स्त्रियों का अपमान करना, उनको जलाना और उनकी चिता के चारों ओर खुशियां मनाना, नाचना-गाना कोइतूर संस्कृति का हिस्सा नहीं रही है। 

पारंपरिक वादन गायन और नृत्य का उत्सव ही होली की असली पहचान है!

दरअसल, यह नई फसल के आगमन का उत्सव है। इस दिन महुआ और नए आनज से बने व्यंजनों का विशेष महत्त्व होता है। महुआ को कोइतूर लोगों पवित्र फूल मानते हैं। होली जलाने के अगले दिन सुबह स्त्रियाँ नई आग से नए पकवान और मिठाईयां बनाती हैं। लेकिन वक़्त के साथ पकवानों पर बाजारवाद हावी हो गया है और अब बाहरी खाने-पीने की चीजों ने पारंपरिक व्यंजनों का स्थान ले लिया है।

शिमगा सग्गुम में चारों तरफ उत्सव का माहौल होता है। लोग फाग गाते हैं, जिसमें वे अच्छी फसल, फसलों को आग से बचाने, प्रकृतिक आपदा से बचाने की प्रार्थना करते हैं। गीत के माध्यम से आने वाली पीढ़ियों को सावधानियों की शिक्षा दी जाती हैं। इस उत्सव में पूरा कोइतुर सगा समाज शरीक होता है। मृदंड ढ़ोल, झांझ खझड़ी, हुड़ुक, मजीरा इत्यादि बजा कर ऊंची आवाज में पारंपरिक गीत गाए जाते हैं, जिन्हे फाग कहते हैं। साथ में सभी मिलकर सामूहिक नृत्य भी करते हैं। 

इस दौरान रंगों का उपयोग भी किया जाता है क्योंकि जीवन में रंगों का बड़ा महत्त्व है। पहले लोग फूल-पत्तियों और वनस्पतियों की जड़ों और बीजों से शुद्ध देशी रंग तैयार करते थे। आजकल प्राकृतिक रंगों के बजाय बाज़ारों में हानिकारक रसायनों से बने रंगों का बोलबाला है। 

खैर, होली के दूसरे दिन पूरा सगा समाज एक-दूसरे को रंग गुलाल लगाकर गले मिलता है और इसी कारण इस त्यौहार को शिमगा सग्गुम कहते हैं। इसी को शेष भारत में द्विज हिंदू  होली मिलन कहते हैं।

शिमगा सग्गुम साल के अंत में एक दूसरे के प्रति वैमनस्य, लड़ाई-झगड़े या गिले-शिकवे मिटाने का अवसर भी है। सभी मिलकर नए साल में नए जोश नए उमंग से प्यार स रहने का संकल्प भी लेते हैं। हालांकि शिमगा सग्गुम एक वैज्ञानिक पर्व है, जिसका आज ब्राह्मणीकारण हो चुका है। आज इसमें नफरत, जातिवाद, स्त्री अपमान, दूसरे का मखौल उड़ाना, गंदगी, नशे करना, मुनाफाखोरी, गंदगी फैलाना, प्रदूषण फैलाना इत्यादि सम्मिलित हैं। पूर्वजों द्वारा सदियों से संरक्षित इस पर्व को हमें उसी शुद्धता और सच्चाई से मनाना चाहिए, जिसमें प्रकृति और स्त्री का सम्मान के अलावा सभी की सुरक्षा, खुशहाली, अच्छे स्वास्थ्य और समृद्धि की कामना शामिल है। 

संदर्भ सूची: 

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  10. वेब दुनिया समाचार (2020). होली मनाने का वैज्ञानिक कारण और महत्व. संपादक. वेब दुनिया: यहाँ से 5 मार्च 2020 को पुनः प्राप्त किया http://hindi.webdunia.com/holi-special/scientific-reason-for-celebrating-holi-116032100085_1.html

(संपादन: गोल्डी/नवल)

लेखक के बारे में

सूर्या बाली

डाॅ. सूर्या बाली ‘सूरज’ एम्स, भोपाल में चिकित्सक होने के साथ ही अनुसूचित जनजाति मामलों के जानकार व चिंतक हैं। जनजाति समाज व संस्कृति आधारित लेख, कविताएं व गीत विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। इन्हें विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनिसेफ, केयर, इंडियन मेडिकल एसोशिएशन द्वारा सम्मान के अलावा वर्ष 2007 में कालू राम मेमोरियल अवाॅर्ड और फोर्ड फाउंडेशन फेलोशिप प्रदान की गई

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जाति-विरोधी फिल्में समाज के लिए अहितकर रूढ़िबद्ध धारणाओं को तोड़ने और दलित-बहुजन अस्मिताओं को पुनर्निर्मित करने में सक्षम नज़र आती हैं। वे दर्शकों को...
‘मैंने बचपन में ही जान लिया था कि चमार होने का मतलब क्या है’
जिस जाति और जिस परंपरा के साये में मेरा जन्म हुआ, उसमें मैं इंसान नहीं, एक जानवर के रूप में जन्मा था। इंसानों के...