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एक नहीं, कई रामायण हैं देश में

रामायण पर ऐतिहासिक, मानवशास्त्रीय और साहित्यिक शोधों से साफ़ है कि इसके कई संस्करण हैं और यह भी कि भारत के आदिवासियों और महिलाओं की अपनी रामकथाएं हैं, जो उनकी विश्वदृष्टि और सांस्कृतिक आचार-विचारों से प्रेरित हैं। बता रहे हैं अभिजीत गुहा

रामायण भारतीयों में सबसे लोकप्रिय महाकाव्य है और जनमानस की इसमें गहरी श्रद्धा है। महाभारत इसी प्रकृति का दूसरा महाकाव्य है। यह दिलचस्प है कि रामायण के केंद्रीय पात्र राम, पिछले करीब चार दशकों से भारत की राजनीति के केंद्र में भी बने हुए हैं। इस अवधि में प्रतीक के रूप में राम ने भारतीय राजनीति को आंदोलित किया और इसी अवधि में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की ताकत में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। मिथकीय राम का राजनीति में परवान चढ़ना, भाजपा नेता एल.के. अडवाणी की ऐतिहासिक रथयात्रा और उसके बाद हिंदुत्ववादी ताकतों का सत्तासीन होना – ये सब मात्र संयोग नहीं थे। बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद राजनीति में राम की अनुगूंज अपने चरम पर पहुंच गई। इस घटना के दूरगामी राजनीतिक परिणाम हुए। बाबरी मस्जिद के ध्वंस का एक नतीजा यह हुआ कि पुरातत्व विज्ञान को अदालतों में घसीटा गया। एक अध्येता के मुताबिक–

“…भारत की अदालतों में पुरातत्व विज्ञान की इतनी ज्यादा चर्चा हो रही है कि भारत में पुरातात्विक ज्ञान के सबसे बड़े स्रोत और देश के अतीत की भौतिक निशानियों के संरक्षक के रूप में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) की स्थिति बहुत कमज़ोर हो गई है। एक नया मुखर वर्ग पैदा हुआ है जो अपने विचारधारात्मक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए पुरातत्व विज्ञान से ‘ऑन डिमांड’ जानकारी हासिल करना चाह रहा है।” (वर्गीस, 2024: 109-129)

‘करंट एंथ्रोपोलॉजी’ में प्रकाशित अपने आलेख में शेरीन रत्नाकर अत्यंत सारगर्भित ढंग से बताती हैं–

“वैज्ञानिक (प्रयोगशालाओं में) जांच-पड़ताल, पुरातत्व विज्ञान का एक हिस्सा ज़रूर है, मगर मूलतः यह एक समाज विज्ञान है जो अतीत के समाजों की संस्कृति का अध्ययन, उनकी संस्कृति के भौतिक अवशेषों के आधार पर करता है। कोई भी समाज विज्ञान विचारधारात्मक शून्यता में काम नहीं कर सकता … अतः पुरातत्व वैज्ञानिक पद्धतियां और प्रतिमान कहीं न कहीं विचारधारा से प्रभावित तो होते ही हैं।” (रत्नाकर 2004:239)

इसलिए यह हैरत की बात नहीं कि राम और उनकी अयोध्या के पुरातात्विक, ऐतिहासिक और न्यायिक अध्ययन संबंधित विशेषज्ञों द्वारा अपनी-अपनी विचारधारा के हिसाब से किए गए हैं। बाबरी मस्जिद के ध्वंस के 10 दिन बाद, 16 दिसंबर, 1992 को, घटना की जांच के लिए उच्च न्यायालय के जज एम.एस. लिब्रहान के एक-सदस्यीय न्यायिक जांच आयोग की नियुक्ति की गई थी। इस आयोग ने अपनी रपट में कहा कि, “मुट्ठी भर कुबुद्धि नेताओं ने भगवान राम के नाम का इस्तेमाल कर शांतिप्रिय समुदायों को असहिष्णु भीड़ में बदल दिया।” (लिब्रहान जांच आयोग, 1992: 919-920)

जाने-माने पुरातत्वविद एच.डी. संकलिया का कहना है कि, “किसी भी मौके पर न तो राम और उनके युग, या रामायण में वर्णित विभिन्न घटनाओं, की ऐतिहासिकता पर प्रश्न उठाए गए और ना ही कभी यह कहा गया कि राम किसी भी तरह ईश्वर से कमतर हैं।” (संकलिया 1982:1-2)

“एनल्स ऑफ़ भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट” में 1977-78 में प्रकाशित एक महत्वपूर्ण लेख में संकलिया ने लिखा कि अयोध्या का विकास 1000 ईसा पूर्व से लेकर 800 ईसा पूर्व के बीच शुरू हुआ। उसके पहले तक वह एक गांव या छोटा-सा क़स्बा था, जिसके निवासी पशुपालन, शिकार और धान की खेती से अपना जीवनयापन करते थे। बुद्ध और अशोक के काल में भी अयोध्या का विकास जारी रहा। उस काल में वहां अनेक स्तूप और विहार बनाए गए। लंबे समय तक अयोध्या एक बौद्ध नगर था। संकलिया ने जोर देकर कहा कि अयोध्या में पहले देव मंदिर का निर्माण गुप्त राजाओं के काल में हुआ।

“अगर अयोध्या का संभावित विकास क्रम यह था तो आज का रामायण ही नहीं बल्कि उसका सबसे विश्वसनीय संस्करण भी अयोध्या नगर का एकतरफा विवरण देता है … उसमें नगर के बौद्ध और जैन निवासियों की कोई चर्चा नहीं है जबकि हम जैन और बौद्ध स्रोतों और चीनी यात्रियों के यात्रा-विवरणों के हवाले से जानते हैं कि पांचवीं सदी ईसा पूर्व से ही इन समुदायों के लोग वहां रह रहे थे।” (संकलिया, 1977-78:917-18)

जाहिर है कि रामायण के अपने पूर्वाग्रह हैं और उसका आलोचनात्मक अध्ययन ज़रूरी है। शोध की आधुनिक विधियों और तकनीकों का प्रयोग कर अध्येता यही करने का प्रयास करते रहे हैं।

रामायण पर शोध

बांग्ला भाषा में ‘रामकथार प्राक इतिहास (रामकथा का पूर्व इतिहास)’ शीर्षक से 1977 में प्रकाशित एक पतली-सी मगर अत्यंत महत्वपूर्ण पुस्तक में जाने-माने विद्वान सुकुमार सेन ने देश में और उसके बाहर भी विभिन्न स्थानों और कालों में रामायण और उसके संस्करणों के क्रमिक विकास का जायजा लिया है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि यह पुस्तक वे एक इतिहासविद बतौर लिख रहे हैं, एक आस्थावान धार्मिक व्यक्ति बतौर नहीं। उन्होंने लिखा कि इतिहास, तर्क और ठोस सबूतों पर आधरित होता है जबकि धार्मिक व्यक्ति केवल आस्था से चालित होता है। उसके लिए सबूतों और तर्क का कोई महत्व नहीं होता। मगर सेन को नहीं लगता कि दोनों में कोई विरोधाभास है। वे लिखते हैं कि इतिहास में आस्था और धर्म में आस्था दोनों अपनी-अपनी जगह पर सही हैं। मगर रामकथा के मामले में इतिहास और धर्म एक-दूसरे से मेल नहीं खाते। (सेन 1977:1) यहां तक कि पुस्तक की भूमिका में वे आस्थावानों से क्षमायाचना करते हैं और इससे भी ज्यादा दिलचस्प यह कि वे यह इच्छा व्यक्त करते हैं कि आस्थावान उनकी पुस्तक न पढ़ें। (सेन, 1977: 3)

सेन ने ऋग्वेद से शुरू कर बरास्ता बौद्ध जातक और जैन कथाएं, रामकथा के विकासक्रम को प्रस्तुत किया है। इन जातक कथाओं का सबसे दिलचस्प पहलु यह है कि इनमें राम और सीता को ऐसे भाई-बहन बताया गया है, जिनकी मां एक है मगर पिता अलग-अलग हैं। दूसरे, इनमें से एक कथा में रावण द्वारा सीता के अपहरण का प्रसंग नहीं है। (सेन: 1977:6-9) रामकथा के जैन संस्करण भी कम दिलचस्प नहीं हैं। उदाहरण के लिए जैन रामकथा में राम की मां का नाम अपराजिता बताया गया है और उसमें राम नहीं, बल्कि लक्ष्मण रावण का वध करते हैं और आगे चलकर अष्टम वसुदेव के नाम से प्रसिद्ध होते हैं। बौद्ध जातक कथा के केंद्रीय पात्र राम हैं जबकि जैन ग्रंथों में रामकथा के केंद्र में लक्ष्मण हैं। (सेन, 1977:12) बौद्ध और जैन दोनों रामकथाओं में राम, सीता और लक्ष्मण शाकाहारी हैं।

भारत के इतिहास, संस्कृति और साहित्य के एक अन्य अध्येता क्षिति मोहन सेन के मुताबिक, राम, सीता, लक्ष्मण और भरत सहित रामायण के सभी प्रमुख पात्र भारतीयों के लिए पीढ़ियों से नैतिक आचरण के प्रतिमान रहे हैं। (सेन, 2005: 62)

मानवशास्त्री इरावती कर्वे अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘युगान्त’ में इसे अत्यंत आसान भाषा में बताती हैं–

“पूरी रामायण … एक आदर्श पुरुष का गुणगान करती है। दुनिया में जो कुछ भी अच्छा है, राम उसके मूर्त स्वरूप हैं और इसी आदर्श को दुनिया के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए वाल्मीकि ने रामायण का लेखन किया। राम आदर्श पुरुष हैं तो सीता आदर्श स्त्री हैं। बल्कि पूरी रामायण में आदर्श चरित्रों की भरमार है – आदर्श भाई, आदर्श सेवक, आदर्श प्रजा और यहां तक कि आदर्श खलनायक भी।” (कर्वे 1969)

महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले में स्थित चंदगढ़ किले की दीवार पर उत्कीर्ण रावेन (रावण) की मूर्ति। इस किले का निर्माण गोंड राजा खांडक्या बल्ला शाह ने 13वीं शताब्दी में कराया था। (छायाचित्र : साभार उषाकिरण अत्राम)

क्षिति मोहन सेन (1880-1960) के पहले, एक बिसरा दिए गए मार्क्सवादी मानवशास्त्री भूपेंद्रनाथ दत्ता (1880-1961), जो कि स्वामी विवेकानंद के छोटे भाई थे, ने रामायण को प्राचीन भारत में क्षत्रियों और ब्राह्मणों के बीच वर्ग संघर्ष के ब्राह्मणवादी संस्करण के रूप में बताया था। उन्होंने इस ओर भी ध्यान आकर्षित किया था कि जैन ग्रंथों में राम के स्थान पर लक्ष्मण को रावण का वध करने वाला बताया गया है। (दत्ता, 1942: 39)

प्रसिद्ध बांग्ला साहित्यकार राजशेखर बसु ने सन् 1946 में मूल रामायण का संस्कृत से बांग्ला में अनुवाद किया था और इसे रामायण के बांग्ला में सबसे प्रामाणिक अनुवादों में से एक माना जाता है। अनुवाद की भूमिका में बसु ने कई ऐसी जानकारियां दी हैं जो आज की पीढ़ी को आश्चर्यजनक लग सकती हैं। उदाहरण के लिए, वे लिखते हैं कि अपने वनवास के दौरान यूरोपियों की तरह राम और लक्ष्मण मांस के लिए जानवरों का शिकार किया करते थे। (बसु, 1946: 3) जबकि हमें बताया जाता है कि वे शाकाहारी थे। राम ने एक ब्राह्मण नारद की सलाह पर शंबूक नामक एक साधु को जान से मारा था, क्योंकि शूद्र होने के बावजूद वह तपस्या कर रहा था और नारद के अनुसार इस कारण एक ब्राह्मण बालक की मौत हो गई थी। राम ने अकारण ही शंबूक का गला काट दिया। (बसु, 1946: 454) यहां हमें यह भी याद रखना होगा कि अपने वनवास के दौरान राम की गुहा नामक एक निषाद (अति पिछड़ी जातियों में से एक) ने काफी मदद की थी। (बसु, 1946:105-107) राम की वानरसेना में केवल वननिवासी समुदायों के लोग शामिल थे। इस सेना का नेतृत्व सुग्रीव और हनुमान (जिन्हें अब देव का दर्जा मिल गया है) कर रहे थे। इस सेना के बगैर राम अपने शत्रु रावण को हरा नहीं सकते थे। राम ने अपने साथी सुग्रीव के बड़े भाई बाली की भी हत्या की थी। जब दोनों भाई द्वंद्वयुद्ध कर रहे थे, उस समय राम एक वृक्ष के पीछे छुप गए और उन्हें जब लगा कि बाली जीत सकते हैं तो उन्होंने बाली की पीठ पर तीर चला दिया। (बसु, 1946: 2016-2019) जब बाली ने राम पर यह आरोप लगाया कि उन्होंने द्वंद्वयुद्ध के मूलभूत नियमों का उल्लंघन किया है तो राम ने अपने कृत्य को उचित ठहराते हुए कहा कि बाली को सुग्रीव की पत्नी के साथ विवाह करने की सज़ा दी गई है। राम ने बाली की हत्या की तुलना शिकार के दौरान पकड़े गए किसी जानवर का वध करने से की। मानवशास्त्री एवं इतिहासविद के.एस. सिंह ने अपने लेख ‘ट्राइबल वर्जन्स ऑफ राम कथा : एन एन्थ्रोपोलॉजीकल पर्सपेक्टिव’ में एकदम ठीक लिखा है कि–

“बाली को धोखे से मारने के लिए राम ने जो कारण गिनाए थे, उनमें से एक यह था कि उसने अपने छोटे भाई की पत्नी को अपने साथ रख लिया था – जो पापपूर्ण था। मगर राम ने बाली की मृत्यु के बाद सुग्रीव द्वारा उनकी पत्नी तारा, जो सुग्रीव की पत्नी की बड़ी बहन भी थीं, को अपने साथ रखने पर कोई आपत्ति नहीं की।” (सिंह, 1993: 54-55)

भारत में रामायण और महाभारत पर शोध की समृद्ध परंपरा रही है। के.एस. सिंह 1993 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘रामकथा इन ट्राइबल एंड फोक ट्रेडिशंस ऑफ इंडिया’ की प्रस्तावना में लिखते हैं कि ये दोनों महाकाव्य केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि ऐतिहासिक दस्तावेज़ एवं मानवशास्त्रीय प्रबंध भी हैं। टीवी पर प्रसारित रामायण सीरियल की लोकप्रियता का कारण यह नहीं था कि कट्टरवादी उसे पसंद कर रहे थे, बल्कि यह था कि उसने अधिकांश भारतीयों को उनका बचपन फिर से जीने का मौका दिया। रामायण मूलतः एक प्रेमकथा है, जिसे सदियों तक मौखिक स्वरूप में संरक्षित रखा गया है। उसे केवल उच्च जातियां पसंद नहीं करती थीं। भारत के अलग-अलग आदिवासी समुदाय भी रामायण के प्रशंसक थे। (सिंह, 1993:2) रामायण के आदिवासी संस्करणों के विवरण में जाए बगैर इतिहासविद रोमिला थापर लिखती हैं–

“रामायण इतिहास के किसी एक कालखंड की कथा नहीं है। उसका अपना इतिहास है, जिसे उसके अनेक संस्करणों में देखा जा सकता है। ये संस्करण रामकथा की मूल थीम के आसपास उसके अपने इतिहास में अलग-अलग कालखंडों में भारतीय उपमहाद्वीप के अलग-अलग स्थानों पर बुने गए हैं … रामकथा से कई अलग-अलग समुदाय परिचित थे और इसके नतीजे में रामायण के कई संस्करण हैं, जो संबंधित समुदायों की अपनी-अपनी सामाजिक आकांक्षाओं और विचारधारात्मक सरोकारों को व्यक्त करते हैं। इन अलग-अलग संस्करणों में मूल कथा में कई तब्दीलियां की गई हैं, जिनसे रामकथा के पात्रों और घटनाओं की मूल परिकल्पना परिवर्तित हो जाती है और इसके साथ ही उसका अर्थ भी बदल जाता है।” (थापर, 2014)

मानवशास्त्री टी.बी. नायक ने अपने शोध प्रबंध ‘रामकथा अमंग द ट्राइब्स ऑफ इंडिया’ में भारत के पश्चिम से लेकर पूर्व तक निवासरत विभिन्न आदिवासी समुदायों की रामायणों का अत्यंत सजीव वर्णन किया है। पूर्वी गुजरात के पंचमहल जिले में रहने वाले भीलों की रामायण ‘भिलोड़ी रामायण’ कहलाती है और स्थानीय परंपरा में यह माना जाता है कि वाल्मीकि ऋषि स्वयं भी वालियो नामक भील थे। इस संस्करण की शुरुआत राम, लक्ष्मण एवं हनुमान द्वारा सीता की खोज में निकलने से होती है। रावण के लोग हनुमान को पकड़ने के लिए बिरहोरों को काम पर लगाते हैं। बिरहोर बंदरों को पकड़ने में माहिर हैं। मगर बिरहोर हनुमान को नहीं पकड़ पाते। फिर हनुमान स्वयं बिरहोरों को यह सलाह देते हैं कि उन्हें पकड़ने के लिए वे एक ऐसा जाल बनाएं, जिसमें मनुष्य की तीन उंगलियों की मोटाई के बराबर के छेद हों। इस जाल से हनुमान को पकड़ लिया जाता है। मगर हनुमान बिरहोरों से यह अनुरोध करते हैं कि वे उन्हें जान से ना मारें और कहते हैं कि वे खुद ही अपनेआप को मार लेंगे। इसके बाद हनुमान द्वारा लंका में आग लगाने का प्रसंग है। अंत में हनुमान राम के पास जाते हैं और उनसे पूछते हैं कि उनकी मृत्यु के बाद उनके शरीर का क्या किया जाएगा। राम कहते हैं कि बिरहोर, जिन्होंने तुम्हें पकड़ा है, वे तुम्हारे शव को खा लेंगे और अन्य बंदरों के साथ भी यही करेंगे। ऐसा माना जाता है कि तब से बिरहोर समुदाय के लोग बंदरों को मारकर खाते रहे हैं। (नायक, 1993: 47-48)

मध्य भारत के गोंड समुदाय की अपनी अनूठी रामायण है। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में प्रोफेसर मोली कौशल ने गोंडी रामायण का विस्तार से वर्णन किया है। उनके अनुसार गोंडी रामायण पारंपरिक रामकथा के ठीक उलट है। उसके नायक राम नहीं बल्कि लक्ष्मण हैं और अपनी पवित्रता और सत्यनिष्ठा को साबित करने के लिए इसमें सीता को नहीं बल्कि लक्ष्मण को अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ता है। कौशल लिखती हैं–

“इस गोंडी कथा का कथानक रामायण से मिलता-जुलता है, हालांकि यह रामकथा को उलट देती है। सच यह है कि गोंडी कथा रामायण के बारे में नहीं है। वह मनुष्य के शरीर, उसकी लैंगिकता, जीवन और मृत्यु, सामाजिक एवं यौन चिंताओं पर गोंड समुदाय के विमर्श को अपने में समेटे हुए है। गोंडी कथा के कई दार्शनिक एवं मनोसामाजिक निहतार्थ हैं।” (कौशल, 2021:2)

अपने लेख ‘ट्राइबल वर्जन्स ऑफ राम कथा : एन एन्थ्रोपोलॉजीकल पर्सपेक्टिव’ में एन.एन. व्यास लिखते हैं कि भारत के आदिवासियों ने रामायण की अपनी-अपनी विशिष्ट व्याख्याएं की हैं और ये व्याख्याएं पहाड़ों और जंगलों में रहने के उनके अनुभव से उपजी हैं। व्यास ने अपने नृवंशवैज्ञानिक साक्ष्य मुख्यतः राजस्थान एवं मध्य प्रदेश के आदिवासी समुदायों से इकट्ठा किए हैं। इन आदिवासी कथाओं में राजा दशरथ को एक कपटी व्यक्ति बताया गया है। इनमें यह भी बताया गया है कि सीता के जन्म के समय विकट सूखा पड़ता है, जिसके कारण उनके माता-पिता मजबूर होकर उन्हें एक खेत में फेंक देते हैं। बाद में खेत को जोतते समय जनक को सीता मिल जाती हैं। कथा यह भी कहती है कि अपनी मनमानी करने के आदी दशरथ एक दिन अचानक घोषणा कर देते हैं कि राम और लक्ष्मण जंगल जाएंगे और भरत और शत्रुघ्न उनका राजपाट संभालेंगे। इसमें राम और लक्ष्मण द्वारा सीता के अनुरोध पर स्वर्ण मृग का पीछा करने के प्रसंग को आदिवासी संस्करण में अलग स्वरूप में प्रस्तुत किया गया है। दोनों भाई स्वर्ण मृग को मारने इसलिए निकलते हैं क्योंकि सीता उसका मांस खाना चाहती हैं। अन्य संस्करणों के विपरीत, इन तीनों को जिस समय स्वर्ण मृग दिखता है तब वे जंगली फल इकठ्ठा कर उन्हें खा नहीं रहे होते हैं। शेष कहानी वाल्मीकि रामायण से मिलती है। (व्यास 1993:13-14)

के.एस. सिंह के अनुसार, गोस्वामी तुलसीदास के राम के विपरीत, रामायण के मुंडारी संस्करण के राम न तो नेकी के मूर्त स्वरूप हैं, न आदर्श व्यक्ति हैं और ना ही अवतार हैं। वे तो एक साधारण मनुष्य हैं, जिनमें अच्छाईयां और बुराईयां दोनों होती हैं।

दूसरी ओर रावण को एक शरीफ आदमी बताया गया जो तिम्लिंग नामक मुंडा वंश से है। (सिंह, 1993: 50-51) उत्तर-पूर्वी भारत की जनजातियों की अपनी दिलचस्प रामायणें हैं। मेच, जो कि असम और उत्तर बंगाल के सबसे पुराने नस्लीय समूहों में से एक हैं, ने रामकथा को हिंदू-मुस्लिम टकराव से जोड़ दिया है। इस कथा के अनुसार लक्ष्मण बीफ खाते थे और उन्होंने इस्लाम अंगीकार कर लिया था। लक्ष्मण के दो लड़के थे हसन और हुसैन, जिन्हें लव और कुश ने मौत के घाट उतार दिया था। (सिंह, 1999: 53) कुछ समय पहले, प्रसिद्ध साहित्यकार और तुलनात्मक साहित्य की पूर्व प्रोफेसर नोबोनिता देब सेन ने चंदनकुमार भट्टाचार्य स्मारक व्याख्यानमाला में अपने व्याख्यान में बताया था कि भारत में महिलाओं के बीच चार भाषाओं बंगाली, मराठी, मैथिली और तेलुगु में रामायण के अलग संस्करण प्रचलित हैं, जिन्हें वे वाचिक परंपरा से संरक्षित रखती आई हैं। रामायण के इन संस्करणों में राम हाशिए पर हैं। उन्हें एक अत्यंत गैर-ज़िम्मेदार व्यक्ति के रूप में चित्रित किया गया है जिसके कारण उसकी निष्ठावान पत्नी सीता को घोर कष्ट भुगतने पड़ते हैं। (सेन 2002: 3-4)

अजय के. राव अपनी हालिया प्रकाशित पुस्तक ‘री-फिगरिंग द रामायण एज थियोलाजी’ में लिखते हैं–

“इस महाकाव्य का राजनीतिक उपयोग समांतर में चलता रहा है। सोलहवीं शताब्दी में विजयनगर साम्राज्य के शासकों ने राम के नाम पर शासन करना शुरू किया। पूर्व-औपनिवेशिक काल में राम की भक्ति और पूजन पद्धति की परंपराओं के विकास में मुसलमानों को ‘दूसरा’ बताना कोई कारक रहा हो, ऐसा नहीं लगता। यह इस तत्व के बावजूद कि महाकाव्य में उसके इस इस्तेमाल के लिए पर्याप्त वैचारिक आधार मौजूद थे और दूसरे इलाकों में और साहित्य व शिलालेखन में ‘दूसरा’ बताने के नैरेटिव चलते रहे।” (राव 2015:123)

कुल मिलकर, राजशेखर बसु (1946) से लेकर के.एस. सिंह (1993) और उनसे लेकर नोबोनिता देब सेन (2002) तक द्वारा रामायण और राम पर किए गए शोध से राम न केवल देव के रूप में वरन एक राजा और एक मनुष्य के रूप में भी सामने आते है जिसकी अपनी कमियां और गलतियां हैं।

रामायण पर ऐतिहासिक, मानवशास्त्रीय और साहित्यिक शोध से साफ़ है कि उसके कई संस्करण हैं और यह भी कि भारत के आदिवासियों और महिलाओं की अपनी रामकथाएं हैं, जो उनकी विश्वदृष्टि और सांस्कृतिक आचार-विचारों से प्रेरित हैं। अगर हमें रामायण की असली आत्मा को समझना है तो हमें इस सांस्कृतिक विविधता को मान्यता देनी होगी और उसे स्वीकार करना होगा। रामायण केवल कवि वाल्मीकि की नहीं है, जिनका रामकथा का स्वयं का संस्करण भी उन कई कहानियों पर आधारित था, जिन्हें वे सुन चुके थे। रामायण का समरूपीकरण, मानकीकरण और साधारणीकरण करना भारत की सच्चाई से मेल नहीं खाएगा। भारत के विभिन्न देशज समुदायों और यहां की महिलाओं के रामायण के अपने संस्करण और व्याख्याएं हैं। रामायण एक बहुसांस्कृतिक देश का बहुवादी ग्रंथ है, जहां उसकी मूल कथा एक किस्म की एकता स्थापित करती हैं, वही उसके विभिन्न संस्करण उस विविधता को अंगीकृत करते हैं, जिसका नाम भारत है। जिसे इस बात का अहसास नहीं है, वह भारत की संस्कृति और इतिहास को नहीं समझता।

(मैं भारत मानवविज्ञान सर्वेक्षण की शुभ्रा भट्टाचार्य और इंस्टिट्यूट ऑफ़ डेवलपमेंट स्टडीज, कोलकाता के संजय कार का आभारी हूं कि उन्होंने मुझे वे दस्तावेज उपलब्ध करवाए जिनके आधार पर यह आलेख लिखा गया। मैं मानवशास्त्री डॉ. सुमन नाथ का भी आभारी हूं जिनके राम के नैरेटिव पर ‘द वायर’ में लेखन ने मुझे प्रेरित किया)

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(मूल अंग्रेजी से अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अभिजीत गुहा

प्रो. अभिजीत गुहा विद्यासागर विश्वविद्यालय, पश्चिम बंगाल के नृवंश शास्त्र संकाय के प्राध्यापक रहे हैं। उन्होंने शांतनु पांडा के साथ मिलकर “‘क्रिमिनल ट्राइब’ टू ‘प्रिमिटव ट्राइबल ग्रुप’ एंड द रोल ऑफ वेलफेयर स्टेट : दी केस ऑफ लोढाज इन वेस्ट बेंगाल, इंडिया” (2015) सहलेखन किया है।

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