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ईश्वरवाद और भारतीय समाज की जड़ता

जातिवाद के चलते भारत में माना गया कि ब्राह्मण कुल में जन्म लेना ही ज्ञान की विरासत का वारिस बन जाना है। निहित स्वार्थ के लिए ब्राह्मणों ने हमेशा कर्मकांडों को वरीयता दी। अन्वेषणात्मक ज्ञान उपेक्षित बना रहा। न्याय, वैशेषिक, सांख्य जैसे बुद्धिवादी दर्शन ज्ञान के टोटमीकरण का शिकार बनकर रह गए। पढ़ें, ओमप्रकाश कश्यप का यह आलेख

‘ईश्वर’ बहुत पुराना शब्द है यह न तो पदार्थ है, न उसका संकेतक ईश्वर को किसी ने देखा नहीं, छुआ नहीं, चखा नहीं, अनुभव भी नहीं किया इसके बावजूद कहा जाता है कि वह एक ही समय में हिरण, बैल, सांड वगैरह किसी भी रूप में प्रकट हो सकता है इन कहानियों पर कोई बालक भी विश्वास नहीं करेगा… ईश्वर के नाम पर न जाने कितने युद्ध हो चुके हैं लोगों को इसके नाम पर तंग किया जाता है, उनका कत्लेआम तक कर दिया जाता है इसके बावजूद विडंबना है कि कोई भी व्यक्ति नहीं जानता कि ईश्वर क्या है यह अंधेरे स्याह कमरे में अंधे व्यक्ति द्वारा काली बिल्ली पकड़ने जैसा है

– सिंगारवेलु चेट्टियार

यदि पूछा जाए कि ईश्वरवाद पुराना है या बुद्धिवाद तो अलग-अलग राय सामने आएंगे। आस्थावान कहेगा कि ईश्वर किसी भी वाद से ऊपर है। सबसे पहले ईश्वर था। उसने ही इस सृष्टि का निर्माण किया। मनुष्य बाद में जन्मा। फिर सारे वाद आए। चूंकि ईश्वर को समस्त ज्ञान, ऋद्धि-सिद्धि का स्रोत माना जाता है, इसलिए प्रकारांतर में ईश्वरवादी मान लेता है कि सृष्टि से संबंधित भूत-वर्तमान और भविष्य का जितना भी ज्ञान है, वह पहले से ही ईश्वर में समाहित था। वहीं से अलग-अलग समय में मनुष्यों के बीच आया। इसके अनुसार मनुष्य ज्ञान का संग्राहक-मात्र है, जो ईश्वर या ईश्वरीय शक्तियों द्वारा सौंपे गए ज्ञान को सहेजता हुआ आया है। यदि वह अपने अनुभव-विश्लेषण के आधार पर उसमें कुछ विस्तार करता है, तो उसके पीछे भी ईश्वरीय अनुकंपा होती है। इससे मनुष्य ज्ञानार्जन की स्वत: कोशिश करने के बजाय ईश्वर को खुश करने में लग जाता है। उसके बाद ज्ञान के नाम पर पंडित ‘राम-राम’ रटने को कहे या ‘मरा-मरा’, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। दिमागी गुलामी धीरे-धीरे दैहिक गुलामी को मजबूत करती जाती है। उससे इतना भी नहीं हो पाता कि जिन पुराणों-महाकाव्यों को उसके पूर्वज अनपढ़ होने के कारण दूसरों से सुनने को विवश थे – उन्हें खुद पढ़कर अपने जीवन में ब्राह्मणवाद के हस्तक्षेप को कम कर सके।

बुद्धिवादी दृष्टिकोण व्यावहारिक दृष्टिकोण है। आदिम मनुष्य ने धीरे-धीरे अनंत प्रकृति को समझना आरंभ किया। जो बातें अनुभव और सतत प्रेक्षण के दौरान खरी लगीं उन्हें वह ज्ञान के रूप में सहेजता चला गया। आगे चलकर अपने अनुभव के आधार पर उसने प्रकृति के साथ प्रयोग करने शुरू किए। इससे सभ्यता के विकास को गति मिली। विभिन्न सभ्यताओं के अध्ययन-विश्लेषण से साफ हो जाता है कि मनुष्य को आदिम अवस्था से वर्तमान अवस्था तक आने में लाखों वर्ष लगे हैं। यह सब उसने अपनी प्रश्नाकुलता, ज्ञान को सहेजने तथा लोक हित में उसका उपयोग करने की क्षमता के बल पर किया है। धर्म और ईश्वरवाद का जन्म तो विकास के कई चरण पूरे होने और जीवन में स्थिरता आने के बाद हुआ है। वैज्ञानिकों के अनुसार आधुनिक मनुष्य का जन्म ढाई से तीन लाख वर्ष पहले हुआ था। इससे इतर ईश्वर और धर्म की अवधारणा मात्र ढाई-तीन हजार वर्ष पुरानी है। कह सकते हैं कि पृथ्वी पर आने के बाद मनुष्य ने अपने कुल जीवनकाल का 99 प्रतिशत हिस्सा बिना किसी धर्म या ईश्वर के ऐसे ही बिताया है, जैसे लाखों किस्म के जीव-जंतु करोड़ों वर्षों से जीते आए हैं, जिन्हें कभी किसी धर्म या ईश्वर की आवश्यकता नहीं पड़ती।

भौतिकवाद पुराना दर्शन है। इतना पुराना जितना मनुष्य के विवेकीकरण का इतिहास। जिस दिन मनुष्य में बाह्य जगत को समझने की इच्छा का उदय हुआ, भौतिकवाद का जन्म भी उसी दिन हुआ था। वह हर दर्शन के मूल में समाया हुआ है। यह भी कह सकते हैं कि विभिन्न धर्मों के चमचमाते कंगूरों पर से गर्द को हटाकर देखें तो वहां तो भी निखालिस भौतिकवाद नज़र आएगा। भौतिकवाद की मूल अवधारणा है कि जो दृष्टव्य और इंद्रियजन्य है, जिसे संवेदनाओं के जरिए परखा और ज्ञान का विषय बनाया जा सकता है, वह सत्य है। जो इंद्रियजन्य नहीं है, जिसे अनुभव कर पाना असंभव है, जिसके अस्तित्व को तर्क के आधार पर प्रमाणित नहीं किया जा सकता, उसका कोई अस्तित्व नहीं है। उसके अनुसार प्रकृति की हर भोग्य वस्तु का मर्यादित भोग, यह देखते हुए कि दूसरे लोगों को उससे कोई नुकसान न हो – ही भौतिकवाद है। मनुष्य चूंकि विवेकशील प्राणी है, इसलिए सकल मानवीय विवेक की परिसीमा में जो भी भोग्य प्रतीत हो, उसका भोग करने का अधिकार मानव मात्र को है, वह उसे मिलना ही चाहिए। हम इसकी उत्पत्ति को सभ्यता के आदि-चरण अथवा उससे भी बहुत पहले, आधुनिक मानव के जन्म तक ले जा सकते हैं। कुछ लोग ईश्वरवाद को अध्यात्मबोध कहकर महिमामंडित करते हैं। जबकि इसका अध्यात्म से कोई संबंध नहीं है। अध्यात्म विवेकवान मनुष्य की जीवन-सत्य को जानने-खोजने की सतत प्रश्नाकुलता से भरी यात्रा है। ईश्वरत्व में विश्वास खूंटे का बैल हो जाना है।

प्रश्न यह है कि कुछ हजार वर्ष पुराना ईश्वरवाद, लाखों वर्ष पुराने बुद्धिवाद, या मनुष्यता की लाखों वर्ष पुरानी विवेक-यात्रा पर भारी क्यों और कैसे पड़ने लगा? धर्म और ईश्वरवाद के उत्स की खोज हमें निजी संपत्ति की अवधारणा के विकास तक ले जाती है। उससे पहले अध्यात्म था। जीवन-सत्य की खोज में मनुष्य को उसके कारणरूप में जो महत्वपूर्ण लगता उसी को सच मान लेता था। अस्थायी जीवन और नित नए अनुभवों के साथ, अध्यात्मबोध में बदलाव आने की संभावना निरंतर बनी रहती थी। एक ही परिवार के विभिन्न सदस्य भिन्न-भिन्न अध्यात्म-बोध वाले हो सकते थे। जीवन में स्थायित्व बढ़ने के बाद ‘मेरी संपत्ति’ की अवधारणा के साथ ‘मेरा ईश्वर’ (‘हमारा ईश्वर’) की अवधारणा का भी विकास हुआ। इसका आरंभिक स्वरूप संभव है लोकतांत्रिक रहा हो। यानी जो ईश्वर जितना मेरा है, वह उतना तुम्हारा भी है। विकेंद्रीकृत सत्ता और संसाधनों पर सामूहिक हिस्सेदारी रहने तक यह विश्वास भी बना रहा।

प्रयागराज (इलाहाबाद) में संगम घाट पर शंख बजाता एक साधु

सामूहिक स्वामित्व की भावना के बीच से ही व्यक्तिगत संपत्ति की अवधारणा का विकास हुआ था। मगर ‘हम और हमारी संपत्ति’ से ‘मैं और मेरी संपत्ति’ तक आना आसान नहीं रहा होगा। उसके लिए व्यक्ति को अपने ही समूह, जिनमें उसके प्रियजन भी रहे होंगे, से जूझना पड़ा होगा। बड़े-बड़े सूरमा जो सत्ताबल के आगे ताल ठोककर अखाड़े में उतरने को तैयार दीखते हैं, संगठित जनशक्ति के आगे उनके होश-फाख्ता हो जाते हैं। जनशक्ति को धोखे में रखने के लिए ही धूर्त्त पुरोहितों ने पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक, भाग्य-अभाग्य जैसी धारणाओं को जन्म दिया। धूर्त्त पुजारियों ने उसे बड़ी आसानी से लोगों के दिलो-दिमाग में बिठा दिया। वे बार-बार दोहराते रहे कि धर्म नैतिकता का आदि-स्रोत है। बार-बार दोहराए जाने पर जनसाधारण ने भी मान लिया कि बिना धर्म के समाज को एक रखा ही नहीं जा सकता। स्थिति इसके उलट है। ईश्वर, अल्लाह या पैगंबर के नाम पर किसी न किसी रूप में परा-नायकवाद थोपने वाला धर्म नैतिकता का स्रोत हो ही नहीं सकता। किसी भी धर्म की संरचना ऐसी नहीं है कि वह नैतिकता के परम-स्वीकार्य रूप को अपना सके। न ही नैतिकता को अपना काम करने के लिए धर्म की जरूरत पड़ती है। इसके उलट समाज में अपनी व्यावहारिक उपयोगिता दर्शाने के लिए खुद धर्म को नैतिकता की शरण में आना पड़ता है। इसे आसानी से समझा जा सकता है। अहिंसा, अस्तेय, सच के प्रति अनुराग, मित्रों, पड़ोसियों और रिश्तेदारों से निस्वार्थ प्रेम – ये सामान्य नैतिकता की श्रेणी में आते हैं। समाज में रहकर मनुष्य धार्मिक प्रतीकों के अनुसार आचरण करे या न करे, मंदिर-मस्जिद जाए अथवा न जाए, पूजा-आरती वगैरह में हिस्सा ले या न ले, इससे उसके धर्म पर आंच नहीं आती। इसके विपरीत व्यक्ति धार्मिक मर्यादा पर खरा उतरे; मगर व्यावहारिक नैतिकता की अवहेलना करने लगे तो पूरा समाज उसके विरुद्ध तनकर खड़ा हो जाता है। धर्म के नाम पर बने राज्य भी, धार्मिक पद्धतियों के अनुसरण से ज्यादा जोर व्यावहारिक नैतिकता जिन्हें वे धार्मिक शील (सामाजिक मर्यादा) भी कहते हैं, के अनुपालन पर देते हैं।

फिर क्या कारण है कि ईश्वरवाद या यूं कहिए कि खोखला ईश्वरवाद बुद्धिवाद की तुलना में अधिक प्रभावशाली है? जबकि साधारण से साधारण, अनपढ़ व्यक्ति भी जानता है कि मनुष्य और शेष प्राणियों में अंतर का एकमात्र आधार मनुष्य की बुद्धि या विवेकशीलता का गुण है। मनुष्य विवेकशील प्राणी है, 2400 वर्ष पुरानी मनुष्य की परिभाषा आज भी सर्वमान्य है। बावजूद इसके वह खुद को बुद्धिवादी कहने की अपेक्षा ईश्वरवादी कहना ज्यादा पसंद करता है। आखिर क्यों? कुछ लोगों का कहना है कि ईश्वर एक मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति है, तत्वमीमांसा से कहीं ज्यादा वह मनोवैज्ञानिक समस्या है, जिससे धरती का कोई कोना अछूता नहीं बचा है। दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार भय, अनिश्चितता और असुरक्षा के बीच जीते हुए मनुष्य ने अपने लिए ईश्वर नाम की काल्पनिक और सर्वशक्तिमान शक्ति की परिकल्पना की है, जो उसे विपरीत स्थितियों में मानसिक बल प्रदान करती है। सवाल है कि भय, असुरक्षा और अनिश्चितता के बीच जीते मनुष्य को, क्या कोई काल्पनिक शक्ति वास्तव में ऐसे ही प्रभावित कर सकती है? क्या यह सार्वभौमिक प्रवृत्ति बन सकती है?

मुझे लगता है कि जहां सामाजिक वैषम्य में कमी है, लोग अपेक्षाकृत खुशहाल जीवन जीते हैं, वहां धर्म और ईश्वर की भूमिका उतनी प्रभावशाली बिलकुल नहीं होती, जितनी असमानता और अभावग्रस्त समाजों में होती है। पहली श्रेणी के समाजों में धर्म या ईश्वर ज्यादा से ज्यादा साप्ताहिक बैठकों में मिलने का माध्यम होता है, जो सामाजिक संबंधों को पुष्ट करने में बस उतना सहायक को सकता है, जितना सामान्य या अन्य कोई अवसर। ऐसे समाजों में धर्म और ईश्वर की भूमिका को घटा भी दिया जाए तो भी कोई अंतर नहीं पड़ता है। मगर भय, असुरक्षाबोध और अनिश्चितता से ग्रस्त समाजों में, अन्य कोई उम्मीद न होने के कारण लोग धर्म और ईश्वर से अतिरिक्त उम्मीद पाले रहते हैं। इसीलिए पाले रहते हैं, क्योंकि होश संभालने के बाद उन्हें सिवाय इसके कुछ और सिखाया ही नहीं जाता। केवल ईश्वर मददगार है यह विश्वास उनके दिलो-दिमाग में इस तरह से पैठा दिया जाता है, कि कोई उम्मीद न होने पर भी वह उम्मीद का दामन नहीं छोड़ता, इसीलिए भी कि उसकी तरह के और भी कई नाउम्मीद लोग उस कतार में आगे खड़े होते हैं।

यह स्थिति दक्षिण एशियाई देशों में और भी विकट है। इन देशों में बुद्धिवाद को अच्छा नहीं माना जाता। कई बार तो उसे सामाजिक व्यवस्था के प्रति विद्रोह मान लिया जाता है। इससे भी बुरी बात यह है कि लोग निखालिस ईश्वरवादी होने पर गर्व करते हैं। हिंदू धर्म में तो हालात कहीं ज्यादा बदतर हैं। कारण है कि हिंदुओं में किसी व्यक्ति की बुद्धिमत्ता का आकलन उसके जन्म की कसौटी पर किया जाता है। जातक यदि ब्राह्मण कुल में जन्मा है, तो अपना महा-पांडित्य सिद्ध करने के लिए उसे किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं पड़ती। यदि वैसा नहीं है, तब उसकी प्रतिभा का आकलन इस बात से किया जाता है कि उसकी मेधा ने ब्राह्मणवाद के महिमामंडन में कितने आसमान पार किए हैं। अब्राह्मण उच्च डिग्रीधारी विद्वान को भी उसे अपने जीवन में उतना सम्मान नहीं मिल पाता, जितना कभी स्कूल न जाने वाले, सोलह पेज की सत्यनारायण की कथा बांचने वाले पंडित को मिल जाता है। पहले ऐसा नहीं था। प्लेटो के लिए तो दार्शनिक होना, इतना महत्वपूर्ण था कि वह राज्य को ही दार्शनिक के अधीन रखना चाहता था। उसकी प्रखर मेधा से प्रभावित होकर तानाशाह डायोनिसियस ने उसे अपने दरबार में उच्च पद पर रखा था। सिकंदर अरस्तु को अपना गुरु मानता था। भारत में भी जिन दिनों श्रमण परंपरा के ज्ञानमार्गी दर्शनों का बोलबाला था, बुद्ध और महावीर से अजातशत्रु और प्रसेनजित जैसे शक्तिशाली सम्राट स्वयं मिलने जाते थे। आजीवक श्रमणों ने तो सिकंदर जैसे महायोद्धा से मिलने से इनकार कर दिया था। हालात ब्राह्मणों के सत्ता के आसपास सिमटने के बाद बिगड़े। उसके बाद ब्राह्मणेत्तर मौलिक प्रतिभाओं की उपेक्षा होने लगी। जबकि ब्राह्मणों के ‘चापलूस चुटुकलेबाज़’ राजदरबारों के नवरत्नों में शुमार होने लगे।

जातिवाद के चलते भारत में माना गया कि ब्राह्मण कुल में जन्म लेना ही ज्ञान की विरासत का वारिस बन जाना है। निहित स्वार्थ के लिए ब्राह्मणों ने हमेशा कर्मकांडों को वरीयता दी। अन्वेषणात्मक ज्ञान उपेक्षित बना रहा। न्याय, वैशेषिक, सांख्य जैसे बुद्धिवादी दर्शन ज्ञान के टोटमीकरण का शिकार बनकर रह गए। प्रगल्भता को धर्मोपदेश मानने वाले ब्राह्मणों से इसके अलावा दूसरी अपेक्षा संभव ही नहीं थी। यूजीन एफ. इरिस्चिक के शब्दों में–

ब्राह्मण बुद्धिजीवी (बाकी अन्य प्राच्यवादियों की भांति) चालाक हैं, लेकिन न तो आज न ही अतीत में, मैं ऐसा बिलकुल कतई नहीं मानता कि वे सचमुच बुद्धिमान हैं। उनमें वैज्ञानिक समझ का अभाव है। वे बातूनी और वाक्छली हैं, चीजों को देखकर, उन्हें गहराई से परचाने की क्षमता बहुत कम है … अपने तात्कालिक स्वार्थ से अधिक वे कुछ देख ही नहीं पाते हैं … वर्तमान के ब्राह्मण कर्मचारी, जिन्हें विदेशियों के साथ संबंध रखना ही पड़ता है, पुराने चलन के ब्राह्मणों की अपेक्षा बहुत ओछे हैं।[1]

ज्ञान को मठों में कैद करने का सबसे बड़ा धत्त्कर्म शंकराचार्य ने किया। स्वार्थ के लिए ब्राह्मणों ने उन्हीं को अपना ‘आदिगुरु’ मान लिया। जबकि शंकराचार्य के समय ही कुमारिल भट्ट अपने व्यक्तित्व और कृतित्व में उनसे कहीं बड़े, और महान दार्शनिक थे। वेदांत को ही आधार माना जाए तो रामानुज का विशिष्टाद्वैत उपनिषदों के मायावाद की कहीं मौलिक और लोकोपयोगी व्याख्या था। चूंकि रामानुज ने ब्राह्मणों की वर्ण-श्रेष्ठता पर उतना जोर नहीं दिया था, जितना शंकराचार्य ने, इसीलिए ब्राह्मणों ने उनके साथ भी वही किया जो वेदांत को छोड़कर बाकि दर्शनों के साथ किया था।

ज्ञान की अन्वेषणात्मक धारा से कट जाने का नुकसान भारत में यह हुआ कि यहां वास्तविक ज्ञानी या बुद्धिजीवी की पहचान का कोई स्वतंत्र मापदंड विकसित ही नहीं हो सका। बुद्धिवाद को लेकर सबसे बुरी स्थिति हिंदुओं की रही। ब्राह्मणों ने कर्मकांडों को हमेशा ही ज्ञान पर वरीयता दी। मुगलकाल हो या अंग्रेज सत्ता, केंद्र के आसपास सदैव ब्राह्मणों का बोलबाला रहा। जन्माधारित विशेषाधिकारों के कारण वे हमेशा लाभ की स्थिति में रहे। भारत में अन्वेषणात्मक ज्ञान के संरक्षण की जिम्मेदारी उत्पादक जातियों की थी। अपने व्यवसाय को देखते हुए वे निरंतर प्रयोग और अपनी ज्ञान-संपदा का विस्तार करते रहे। उन्हीं के श्रम-कौशल के बल पर भारत की सभ्यता का विकास हुआ। समाजोपयोगी होने के बावजूद जाति-प्रधान अर्थव्यवस्था में जब उत्पादक जातियों की कोई इज्जत नहीं थी तो उनके अन्वेषणात्मक ज्ञान की कैसे होती? शिखर पर ब्राह्मण थे, और उनका स्वार्थ शेष समाज को धार्मिक बनाए रखने में था, ताकि जिस धर्म को उन्होंने जतन से धंधे का रूप दिया है, वह निर्बंध चलता रहे।

धार्मिक परंपराओं की मूलभूत कमजोरी है कि वे ईश्वर, देवपुरुष जैसी पराशक्तियों प्रति समर्पण पर जोर देती हैं। लोगों में विवेकहीन अनुसरण का भाव पैदा करती हैं, जिससे वह बिना कुछ सोचे-विचारे पुजारी-गुरु की आज्ञा मानने को तैयार हो जाता है। प्रश्नाकुलता जो विवेकीकरण का मूल है, के लिए उसमें कोई स्थान नहीं होता। ईश्वर जो भी जैसा भी करता है, अच्छा करता है, की अवधारणा – राजा जो करता है, अच्छा ही करता है – तक चली जाती है। इस अमानवीय सिद्धांत की आड़ में गांव का मामूली जमींदार और मंदिर के मामूली पुजारी भी जनता पर अत्याचार को अपना अधिकार मान लेता है। धूर्त्त पुजारी तो यहां तक कह जाते हैं कि राम ने रावण के साथ युद्ध और कृष्ण ने महाभारत में जिन लाखों सैनिकों की प्रत्यक्ष-परोक्ष हत्या की थी, वे सभी स्वर्ग पहुंचे थे। इसमें सबसे निचले स्तर के व्यक्ति के अधिकारों को बलि चढ़ा दिया जाता है। ‘महाभारत’ परिवार के लिए व्यक्ति के बलिदान को उचित ठहराता है; गांव के लिए, परिवार और राष्ट्र के लिए गांव और शहर के बलिदान को श्रेयस्कर मानता है, लेकिन उसमें राजा के कर्तव्यों की इतनी महीन व्याख्या नहीं है। एक राजा द्वारा दूसरे राजा को युद्ध में पराजित कर उसका राज्य हड़प लेने के तो उदाहरण हैं, यहां तक कि किसी ब्राह्मण का अपमान करने पर राज्य के चले जाने के किस्से भी सुनाए जाते हैं, मगर प्रजा के प्रति कर्त्तव्य पूरा न करने पर उसके ब्राह्मण सलाहकारों द्वारा राजा को पदच्युत करने का कोई उदाहरण नहीं है।

ईश्वरवादी दावा करते हैं कि धर्म स्पर्धा, भागमभाग और हताशा से आहत मन को राहत देने का काम करता है। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए ऐसे लोग मानते हैं कि धर्म-स्थल पर जाने, धार्मिक संगीत सुनने से मन को शांति मिलती है। उनसे पूछा जा सकता है कि क्या वैसी ही शांति किसी बगीचे में बैठकर कोयल का संगीत सुनने या नदी के किनारे एकांत स्थल पर बैठकर गुनगुनाने से प्राप्त नहीं हो सकती! जब हम धार्मिक संगीत सुनते हैं या ऐसी जगह जाते हैं, जहां सब कुछ व्यवस्थित हो तो हमें शांति महसूस होने लगती है। इसमें धर्म अथवा ईश्वरत्व  का कोई योगदान नहीं है। इसी तरह संगीत के कुछ स्वर ऐसे हैं जिन्हें ईश्वरीय प्रेम के भ्रम में बजाया जाए या विशुद्ध लौकिक प्रेम की खातिर, उनका असर एक जैसा होता है। धार्मिक संगीत मन को शांति दे सकता है, परंतु एक अनजान, अदेखे, अनपरखे और काल्पनिक ईश्वर को मनुष्य के भूत, वर्तमान और भविष्य का नियंता बना, उससे उसका आत्मविश्वास छीनकर बौद्धिक रूप से पंगु बना देता है। ऐसे में धर्म-स्थल पर जाने से मिली ‘शांति’ को विकलांग शांति ही कहा जाएगा। जो लोग कहते हैं कि ईश्वर तत्त्वमीमांसा से ज्यादा मनोविज्ञान का विषय है, इसीलिए उसका समाधान भी मनोविज्ञान के दायरे में खोजना चाहिए। उन्हें समझना चाहिए कि मनोविज्ञान समाज से बाहर की चीज़ नहीं है। उसे गढ़ने में मनुष्य के परिवेश की बड़ी भूमिका होती है। बीती डेढ़-दो शताब्दियों में जिन देशों में धर्म और ईश्वर को लेकर तीखी बहसें चली हैं, वहां उन्हें लेकर नागरिकों का मनोविज्ञान भी बदला है।

[1] यूजीन एफ. इरिस्चिक,  पॉलिटिक्स एंड सोशल कन्फिलिक्ट इन साउथ इंडिया, ऑक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी प्रेस, मुंबई, 1969

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

ओमप्रकाश कश्यप

साहित्यकार एवं विचारक ओमप्रकाश कश्यप की विविध विधाओं की तैतीस पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। बाल साहित्य के भी सशक्त रचनाकार ओमप्रकाश कश्यप को 2002 में हिन्दी अकादमी दिल्ली के द्वारा और 2015 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के द्वारा समानित किया जा चुका है। विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में नियमित लेखन

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