त्रिवेणी संघ के स्थापना दिवस (30 मई, 1933) पर विशेष
भारत में शताब्दियों से चली आ रही ब्राह्मणवादी समाज-व्यवस्था के अंतर्गत शासक सवर्ण जातियों ने शूद्र-अतिशूद्र जातियों को बुनियादी सामाजिक-आर्थिक अधिकारों से वंचित कर रखा था। बर्बर अत्याचारों के बीच, सामान्य मानव-सुलभ सम्मान से वंचित इन समुदायों ने अलग-अलग क्षेत्रों और समयों में अनेक विद्रोह किए। इस अमानवीय व्यवस्था के विरुद्ध सामाजिक सुधार के कई आंदोलन चले, जाति-प्रथा के ख़िलाफ़ अनेक श्रमणों/संतों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से जन-जागरण का अभियान चलाया, कई नए पंथ और संप्रदाय बने। सामाजिक न्याय की, मानव समुदायों के बीच समानता तथा पारस्परिक सम्मान की, मैत्री और बंधुत्व की यह परंपरा एक अंतर्धारा के रूप में भारतीय समाज में निरंतर प्रवाहित होती रही है। त्रिवेणी संघ के गठन को भी इसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में देखा जा सकता है।
बहरहाल, आधुनिक काल में, 1857 के गदर के बाद, जब भारत का शासन ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों से निकल कर सीधे ब्रिटिश महारानी के हाथों में आ गया, तब व्यवस्थित शासन के लिए यहां बसनेवाले समुदायों की पहचान और उनका वर्गीकरण जरूरी समझा गया। 1867-72 के बीच पहली जनगणना हुई और फिर हर दस साल पर यह प्रक्रिया दुहराई जाने लगी। जातियों के श्रेणीकरण के क्रम में कुछ जातियों को अपराधी जाति घोषित कर दिया गया, कुछ को शूद्र रहने दिया; कुछ जातियों के ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय होने के दावों को ख़ारिज़ कर दिया गया तो कुछ जातियों को नौकरी के लिए अयोग्य ठहरा दिया गया; आदि, आदि। इस जनगणना में कई, खासकर वंचित जातियों को अपनी स्थिति में सुधार की कुछ संभावना दिखी। उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशकों में जातीय संगठन और आंदोलन अस्तित्व में आने लगे। जाति, जातीय भेदभाव तथा उत्पीड़न और जातीय श्रेणीकरण को लेकर समाज में हलचल मची, जातीय आंदोलन और विमर्श की शुरुआत हुई। पुनः इस हलचल, आंदोलन और विमर्श ने जनगणना में जातियों के श्रेणीकरण को प्रभावित किया। औपनिवेशिक काल में, जातियों के श्रेणीकरण और जातीय आंदोलन के बीच यह परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया 1871 से 1931 के बीच करीब साठ वर्षों तक चलती रही। त्रिवेणी संघ के गठन की पृष्ठभूमि में यह जनगणना भी एक कारक थी।
जातिगत संगठन, और इसी प्रक्रिया में, बीसवीं सदी के आरंभ में चले जनेऊ आंदोलन ने पिछड़ी (शूद्र) जातियों में जागरण का संचार किया। इसे जगह-जगह सवर्ण भूस्वामियों का उग्र विरोध भी झेलना पड़ा। कांग्रेस और किसान सभा जैसे संगठनों की नेतृत्वकारी समितियों में भी इन शूद्र-अतिशूद्र जातियों की उपस्थिति नगण्य थी। नगरपालिका, जिला बोर्ड और विधान परिषद जैसे सत्ता के संगठनों में इन जातियों के इक्का-दुक्का लोग ही थे। ऐसी स्थिति में इन जातियों में यह एहसास बढ़ने लगा कि आपस में एकजुट हुए बिना वे न तो ‘उच्च’ जाति के जमींदारों की संगठित ताकत से लोहा ले सकते थे, और न ही सत्ता के संगठनों में अपनी कोई जगह बना सकते थे। अब तक सामाजिक आंदोलन की बागडोर अलग-अलग जाति संगठनों के हाथों में थी, लेकिन स्थितियां जाति संगठनों से आगे जाकर एक साझा संगठन की मांग कर रही थीं। इसी क्रम में विभिन्न पिछड़ी जातियों की सम्मिलित सभाएं होनी शुरू हुईं।
इसी पृष्ठभूमि में 30 मई, 1933 को शाहाबाद जिले के करगहर में त्रिवेणी संघ का गठन किया गया। पहले पहल इस संघ का संगठन यादव क्षत्रिय सभा, कुर्मी क्षत्रिय सभा तथा कोइरी क्षत्रिय सभा द्वारा जिला स्तर पर होना शुरू हुआ। सरदार जगदेव सिंह यादव, चौधरी जे.एन.पी. मेहता और डॉ. शिवपूजन सिंह इसके संस्थापक नेता थे। सन् 1935 में इसका प्रदेश स्तर पर गठन किया गया और दासू सिंह इसके अध्यक्ष बनाए गए। संगठन के निचले स्तर पर अन्य पिछड़ी तथा दलित जातियों के कुछ समूह भी इससे जुड़े थे। अनेक क्षेत्रों में, विभिन्न आंदोलनों के दौरान, या फिर चुनाव के समय, अन्य पिछड़ी-दलित जातियों के लोग, और जातीय भेदभाव तथा उत्पीड़न से त्रस्त विक्षुब्ध समूह इसके नेतृत्व में गोलबंद हो जाया करते थे। बहरहाल, इसकी मूल शक्ति उपर्युक्त तीन पिछड़ी जातियों का जनाधार ही थी।

बहरहाल, त्रिवेणी संघ के गठन की पृष्ठभूमि में एक और महत्वपूर्ण कारक था। मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों के बाद, चार उच्च लगान वाले जिलों में सालाना 64 रुपए, छह जिलों में सालाना 48 रुपए, और निम्न लगान वाले नौ जिलों में सालाना 16 रुपए लगान देने वाले रैयतों को वोट देने का अधिकार मिला। मोटा-मोटी 15 एकड़ औसत जमीन वाले अब निर्वाचक बन गए। खुशहाल रैयतों का यह तबका निर्वाचकों की मुख्य शक्ति के रूप में चुनावी राजनीति के केंद्र में आ गया – इन रैयतों का अच्छा-खासा हिस्सा पिछड़ी जाति के रैयतों का था। सन् 1929 में प्रति हजार (गैर-मुस्लिम) ग्रामीण निर्वाचकों में रैयतों की संख्या थी 883, पट्टेदारों की 25, जमींदारों की 61, ग्रामीण व्यवसायियों की 18, आयकर देने वालों की 7 और अवकाश प्राप्त सैनिकों की संख्या थी 31। प्रसंगवश, मताधिकार तब भी अत्यंत सीमित था। महिलाओं को मताधिकार प्राप्त नहीं था। पंजीकृत मतदाताओं की कुल संख्या थी 3,74,812 जो कुल पुरुष आबादी का मात्र सवा दो फीसदी और वयस्क पुरुष आबादी का मात्र साढ़े चार फीसदी थी। दलित और गैर-क्रिश्चियन जनजातियों से दो-दो सदस्य नामज़द करने का प्रावधान था, लेकिन नामज़द व्यक्तियों का ख़ुद दलित या आदिवासी होना ज़रूरी नहीं था।
जाति संगठनों के दौर में ही शिक्षा, खासकर तकनीकी शिक्षा, नौकरी में आरक्षण, सत्ता के संगठनों में प्रतिनिधित्व जैसी मांगों को लेकर सरकार के समक्ष आवेदन/स्मार-पत्र सौंपे जा रहे थे। यादव महासभा ने साइमन कमीशन के सामने पिछड़े वर्गों को सरकारी नौकरी, शैक्षणिक संस्थानों, विधान परिषदों और सेना में आरक्षण के ज़रिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व देने की मांग रखी थी। बहरहाल, अब आवेदनों तथा मांग पत्रों से आगे जाकर, विधान परिषद और खासकर जिला बोर्डों तथा स्थानीय निकायों के चुनाव में पिछड़ी जाति के मतदाता एक साझा मंच बनाकर सवर्ण जमींदारों तथा खुशहाल रैयतों को कड़ी टक्कर दे सकते थे। त्रिवेणी संघ के ज़रिए, चुनावी राजनीति में पिछड़ी जाति के रैयतों का एक राजनीतिक शक्ति के रूप में आगमन हो रहा था। जिला बोर्ड तथा स्थानीय निकायों के चुनावों में उन्हें कुछ सफलता भी मिलने लगी थी। यहां हम इन चुनावों के विवरण में नहीं जाएंगे।
त्रिवेणी संघ के नेता अपने समय में होनेवाली वैचारिक-राजनीतिक हलचलों पर गहरी निग़ाह रखते थे। यह तो ‘त्रिवेणी संघ का बिगुल’ तथा उनकी अन्य रचनाओं को पढ़ने से ही आसानी से समझा जा सकता है। उस समय तक पेरियार और आंबेडकर भारतीय राजनीति के अत्यंत चर्चित नेताओं में थे। उनसे वे अवश्य प्रभावित रहे होंगे। लेकिन, जैसाकि उन्होंने ख़ुद लिखा है, वे महात्मा गांधी को त्रिवेणी का साक्षात् अवतार मानते थे। उनके नेताओं का भी ज़्यादातर कांग्रेस से ही संबंध था। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, 1941 में सोवियत संघ के युद्ध में शामिल होने के बाद, बिहार प्रदेश त्रिवेणी संघ की सभा में प्रस्ताव पारित कर युद्ध के मद्देनज़र सरकार की मदद करने का आह्वान किया गया। ऐसे प्रस्ताव कम्युनिस्टों और किसान सभा की ओर से भी पारित किए गए थे। बहरहाल, इस प्रस्ताव के बावज़ूद, त्रिवेणी संघ के कई नेताओं और कार्यकर्ताओं ने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रियता से हिस्सा लिया, भूमिगत हुए, जेल गए और शहीद हुए। शाहाबाद जिले के इसके प्रभाव वाले क्षेत्र के गांव लसाढ़ी, जमीरा, डुमरांव, ओरइयां, संझौली आदि स्थान आंदोलन के प्रमुख केंद्रों में थे, जहां लोगों ने संघर्ष में अपनी जानें दीं।
कुल मिलाकर, त्रिवेणी संघ तब पिछड़ों के पक्ष में दबाव डालनेवाला एक सामाजिक-राजनीतिक संगठन था, जिसने लगभग हर मौके पर पहले कांग्रेस का दरवाजा ही खटखटाया। जब वहां उसकी फ़रियाद अनसुनी रह गई और उसे दुत्कार दिया गया, तब ही उसने सामाजिक भेदभाव के ख़िलाफ़ विधान परिषद, जिला बोर्ड तथा स्थानीय निकायों के चुनाव में अपना स्वाधीन राजनीतिक अभियान चलाया। यह एक स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति के रूप में पिछड़े वर्गों का पहला उभार था। मात्र नौ वर्षों (1933-1942) के अपने संक्षिप्त सक्रिय कार्यकाल में इसने बिहार के पिछड़े वर्गों में राजनीतिक चेतना के प्रसार में, और उन्हें एक सामाजिक-राजनीतिक शक्ति के रूप में संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसकी दिलचस्प छवि हम सतीनाथ भादुड़ी और फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यासों में भी देख सकते हैं। वैसे, 1942 के बाद भी कुछ वर्षों तक संघ का अस्तित्व बना रहा, उसके कई नेता बाद में एम.एन. राय की रैडिकल डेमोक्रेटिक पार्टी से जुड़े, और उसी धारावाहिकता में 1947 में पिछड़ा वर्ग संघ बना। लेकिन यहां हम उसके विवरण में नहीं जाएंगे। इस आंदोलन ने पिछड़े वर्गों से कई नेताओं को जन्म दिया, जिन्होंने आगे चलकर मुख्यतः कांग्रेस और सोशलिस्ट पार्टी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
त्रिवेणी संघ की विरासत
सन् 1948 में कांग्रेस से अलग होने के बाद सोशलिस्टों को अपनी पृथक वैचारिक-राजनीतिक पहचान और पृथक जनाधार के निर्माण की समस्या का सामना करना पड़ा। अब तक कांग्रेस और सोशलिस्टों का जनाधार काफ़ी घुला-मिला था। वैचारिक तौर पर ख़ुद पंडित नेहरू की एक वामपंथी छवि थी। उदारवादी जनवाद, गांधीवाद और मार्क्सवाद के मेल से जिस समाजवादी विचारधारा का निर्माण हुआ था, उस आधार पर नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस का विकल्प बनना संभव नहीं था – उस आधार पर अधिक-से-अधिक (तत्कालीन शब्दावली में) कांग्रेसी दक्षिणपंथ का विरोध किया जा सकता था। एक पृथक राजनीतिक पार्टी के रूप में बने रहने के लिए सोशलिस्टों को एक पृथक वैचारिक-राजनीतिक दर्शन की ज़रूरत थी। इस ज़रूरत को पूरा करने का मुख्य श्रेय डॉ. राममनोहर लोहिया को जाता है। पुराना समाजवाद कांग्रेस के अंदर एक ‘प्रेशर ग्रुप’ का वैचारिक आधार तो हो सकता था, कांग्रेस से पृथक एक राजनीतिक पार्टी का नहीं। नए समाजवाद के संघटक तत्त्वों के रूप में लोहिया ने उदारवादी जनवाद और गांधीवाद को तो बरकरार रखा, लेकिन मार्क्सवाद को हटाकर उसकी जगह अपना सामाजिक सिद्धांत प्रस्तुत किया। यही सामाजिक सिद्धांत नए समाजवाद का केंद्रीय तत्व था। इसलिए इसे लोहियावाद भी कहा जाता है। इस सामाजिक सिद्धांत के ज़रिए लोहिया ने स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में चले जातीय और सामाजिक आंदोलन से पार्टी को जोड़ दिया और इन आंदोलनों की वाहक शक्तियों – पिछड़ी जातियों के बीच पार्टी का जनाधार सुनिश्चित करने की कोशिश की। इस तरह कांग्रेस के ख़िलाफ़ सबल विपक्ष के निर्माण के लिए सोशलिस्टों ने खेतिहर समुदाय के पिछड़ी जातियों वाले तबकों को आधार बनाने का निश्चय किया। दूसरी तरफ, स्वतंत्रता और जमींदारी उन्मूलन के बाद पिछड़ी जाति के उदीयमान खुशहाल तबकों को भी एक ऐसी पार्टी की ज़रूरत थी जो उनकी राजनीतिक आकांक्षाओं को अभिव्यक्ति दे और अंततः उनके सत्तासीन होने का मार्ग प्रशस्त करे। इसी पृष्ठभूमि में लोहिया ने ‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’ का नारा दिया। इस देसी समाजवाद ने पिछड़ी जातियों के बीच प्रबल आकर्षण पैदा किया। कुल मिलाकर, यह समाजवादी आंदोलन त्रिवेणी संघ के आंदोलन का स्वातंत्र्योत्तर स्थितियों में परिवर्धित संस्करण था।
दलित वर्ग संघ और त्रिवेणी संघ
जाति संगठनों का निर्माण तथा जातीय सभाएं पिछड़ी और दलित जातियों में लगभग साथ-साथ शुरू हुईं। जातीय आत्म-सम्मान, ब्राह्मणत्व और क्षत्रियत्व के दावे भी लगभग साथ-साथ ही किए गए और प्रारंभिक स्तर पर दोनों समुदायों में जनेऊ आंदोलन भी एक साथ आगे बढ़ा। प्रचलित समाज व्यवस्था की उनकी आलोचनाओं में काफ़ी समानताएं थीं। यह धारा हमारे देश में आम तौर पर सामाजिक न्याय की धारा के नाम से जानी गई।
शीघ्र ही यह धारा दो भागों में बंट गई। जनेऊ आंदोलन वैसे भी दलित जातियों में बहुत आगे नहीं बढ़ सका। असल में दलित जातियों की स्थिति पिछड़ी जातियों की तुलना में काफ़ी अलग थी। अव्वल तो वे अस्पृश्य थे। दूसरे, उनके कई समूह ‘क्रिमिनल’ जातियों के रूप में दर्ज़ थे। तीसरे, उनका पूरा समुदाय लगभग निरक्षर था। शिक्षा और नौकरी के क्षेत्र में उनका दूर-दूर तक कहीं नामोनिशान नहीं था। समाज में सबसे निकृष्ट समझे जानेवाले काम ही उनके लिए सुरक्षित थे और सत्ता के संगठनों में उनकी उपस्थिति का तो ज़िक्र ही व्यर्थ है। कई मामलों में तब भी उनकी और पिछड़ी जातियों की कई मांगें समान थीं। तथापि दोनों समुदायों की भिन्न स्थितियों के कारण उनके आंदोलन एक साथ, एक रास्ते पर आगे नहीं बढ़ सकते थे, उनकी कार्यदिशाओं में फ़र्क लाज़िमी था। यह अलगाव 1920 के दशक से ही परिलक्षित होने लगा था।
त्रिवेणी संघ के गठन के क़रीब दो वर्षों बाद 28 जुलाई, 1935 को जगजीवन राम के नेतृत्व में दलित वर्ग संघ बना। इसके पहले 6 नवंबर, 1932 को पटना में अस्पृश्यता-विरोधी लीग के बिहार प्रांतीय बोर्ड का गठन किया गया था। 13 दिसंबर, 1932 को इसका नाम बदलकर हरिजन सेवक संघ रखा गया। राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह इसके प्रांतीय अध्यक्ष और विंध्येश्वरी प्रसाद वर्मा इसके सचिव चुने गए। 24 सितंबर, 1932 को पूना समझौता संपन्न हो चुका था और इसके तहत प्रांतीय विधान सभाओं में सामान्य निर्वाचित सीटों में से दलित वर्गों के लिए 148 सीटें सुरक्षित करने का निर्णय लिया गया। इस समझौते के अंतर्गत बिहार विधान सभा में दलित वर्गों के लिए 15 सीटें आरक्षित की गईं। सन् 1937 के प्रथम विधान सभा चुनाव में इन 15 सीटों में से 14 पर कांग्रेस-सह-दलित वर्ग संघ के प्रत्याशी विजयी हुए। दलित वर्ग संघ ने मंत्रिमंडल में दलित विधायकों के बीच से एक कैबिनेट मंत्री और एक संसदीय सचिव बनाने की मांग की थी। इसी मांग के अनुरूप, 22 जुलाई, 1937 को जब श्रीकृष्ण सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस मंत्रिमंडल का गठन किया गया तो एक दलित नेता (जगलाल चौधरी) को केबिनेट मंत्री और दूसरे दलित नेता (जगजीवन राम) को संसदीय सचिव बनाया गया। 9 अगस्त, 1937 को जगजीवन राम की अध्यक्षता में खेत मज़दूर सभा का गठन किया गया। दलित जातियों का आंदोलन एक अलग रास्ते पर आगे बढ़ रहा था। जून, 1937 को ‘दलित मित्र’ नामक पत्रिका ने अपने प्रवेशांक में ही इस विषय पर अपना मत प्रकट करते हुए लिखा था, “आजकल त्रिवेणी संघ वाले भी अपने को पिछड़ी जाति में शुमार करते हैं और दलित जाति को अपने हाथ में करने के लिए कठिन परिश्रम कर रहे हैं। त्रिवेणी संघ तो गोप, कोइरी और कुर्मी को लेकर बना है। भला यह लोग पहले क्षत्रिय बने थे, अब पिछड़ी जाति कब से? जब से दलित वर्ग को एसेंबली में जगह मिली है तभी से क्या? जरा दलित भाई पहले से होशियार हो जाना नहीं तो पीछे पछताना पड़ेगा।” बहरहाल, दोनों धाराओं के बीच संशय और प्रतिद्वंद्विता आगे भी चलती रही।
किसान सभा और स्वामी सहजानंद
बिहार में जमींदारों का क़रीब एक-तिहाई से भी ज़्यादा हिस्सा भूमिहार जमींदारों का था। एक अपेक्षाकृत मुखर कायमी रैयतों का बड़ा वर्ग भी इसी जाति से आता था और उसका जमींदारों से विभेद भी खुल कर सामने आने लगा था। (कायमी रैयत/ऑक्युपेंसी टेनेंट्स काश्तकारी अधिनियम, 1859, ऐक्ट X, के तहत लगातार बारह वर्षों से काश्त कर रहे रैयतों को जमीन पर कायमी हक़ प्रदान कर दिया गया था और उन्हें लगान में मनमानी वृद्धि से सुरक्षा प्रदान की गई थी। पुनः 1885 के बंगाल काश्तकारी अधिनियम, ऐक्ट VIII, के तहत इन कायमी रैयतों के लगान में 15 वर्षों में बस एक बार वृद्धि की जा सकती थी और वह भी पहले से दिए जा रहे लगान के आठवें हिस्से से अधिक नहीं।) जाति संगठन के दौर में भूमिहार ब्राह्मण सभा काफ़ी सक्रिय थी और जनगणना में अपनी जाति को बाभन की जगह भूमिहार ब्राह्मण के रूप में दर्ज़ कराने में कामयाब हुई थी। स्वामी सहजानंद 1914 के बाद एक दशक से भी अधिक समय तक इस महासभा के वैचारिक-सैद्धांतिक और सांगठनिक मार्गदर्शक रह चुके थे । ‘ब्रह्मर्षि वंश विस्तार’, ‘ब्राह्मण समाज की स्थिति’, ‘झूठा भय और मिथ्याभिमान’ जैसी पुस्तकें लिखकर भूमिहार ब्राह्मण समाज में नए सामाजिक जागरण के वे प्रतीक पुरुष बन चुके थे।
किसी भी समुदाय, जाति या वर्ग के सामाजिक-राजनीतिक उत्थान के पहले दौर में संबंधित समुदाय, जाति या वर्ग का अपेक्षाकृत समृद्ध/शिक्षित समूह ही नेतृत्व प्रदान करता है। स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व इसी तरह आधुनिक शिक्षा में पले-बढ़े समृद्ध तबकों के हाथों में था। यादव जाति के जाति आंदोलन तथा संगठन के आरंभिक नेतृत्वकर्ता मधेपुरा (मुरहो) के यादव जमींदार रासबिहारी मंडल थे। पिछड़े वर्गों के आंदोलन के पहले दौर में अपेक्षाकृत समृद्ध यादव-कुर्मी-कोइरी रैयतों और छोटे जमींदारों ने ही नेतृत्व प्रदान किया। दलित वर्गों के मामले में भी यही बात थी।
इसी तरह, ‘उच्च’ जाति के कायमी रैयत, उनमें भी खासकर भूमिहार ब्राह्मण कायमी रैयत ही रैयतों के पहले उभार का नेतृत्व करने की बेहतर स्थिति में थे, और स्वामी सहजानंद उनके स्वाभाविक नेता। यही वस्तुगत स्थिति स्वामीजी की किसान सभा में प्रतिबिंबित हो रही थी। वैसे जिला या उससे भी नीचे की इकाइयों में कुछ पिछड़ी जाति के लोग भी दिखाई देते थे।
पिछड़ी जाति के रैयतों के मन में स्वामीजी के प्रति काफ़ी सम्मान था। उनमें से बहुतेरे तो शिकायत लेकर उन्हीं के पास जाते थे। बहरहाल, किसान सभा के आरंभिक दौर में, आंदोलन मुख्यतः लगान कम करने, जमीन की खरीद-बिक्री में जमींदारों द्वारा लिए जाने वाले शुल्क को कम करने अथवा समाप्त करने तथा प्रस्तावित काश्तकारी अधिनियम के ख़िलाफ़ गोलबंदी पर केंद्रित था। ये मांगें उच्च जाति के कायमी रैयतों के लिए ज़्यादा मनमाफिक थीं। पिछड़ी जाति के रैयत तब जाति-आधारित लगान और तरह-तरह के अबवाबों से त्रस्त थे, और उनकी कार्यसूची में इनसे मुक्ति पहले स्थान पर थी। इसके अलावा, इन रैयतों को बात-बात पर जमींदारों की हिंसा का सामना करना पड़ता; उच्च जाति जमींदारों द्वारा उन्हें मारना-पीटना, खड़ी फ़सल कटवा या लुटवा लेना, घरों में आग लगा देना, आदि प्रायः आम बात थी।
बहरहाल, किसान सभा रैयतों के आर्थिक और सामाजिक संघर्ष का समन्वय नहीं कर पाई। वह उच्च जाति तथा पिछड़ी जाति के रैयतों के बीच कोई पुल नहीं बना सकी। फलतः किसान सभा और त्रिवेणी संघ के बीच (बेआई टैक्स को लेकर डुमरांव महाराज के ख़िलाफ़ संघर्ष को छोड़कर) कोई रिश्ता, कोई अपनापा विकसित नहीं हो पाया। यहां हम इन प्रश्नों पर विस्तार में नहीं जा सकते।
स्वामी जी इस प्रश्न से अनभिज्ञ थे, ऐसी बात नहीं। उनका चिंतन निरंतर विकासमान रहा। अपनी मृत्यु से कुछ पहले उन्होंने लिखा– “समाज के जो स्तर और दल जितने ही ग़रीब और नीचे हैं, उतने ही हमारे निकट हैं। इसलिए जो सबसे नीचे के या खेत मज़दूर और हरिजन हैं, वे हमसे अत्यंत निकट हैं। उसके बाद टुटपुंजिए खेतिहर आते हैं और वहीं पर किसानों का वर्ग समाप्त हो जाता है। .. लेकिन अफ़सोस है कि ये असली किसान समाज के ऊपर तबके वाले हम लोगों में विश्वास नहीं करते । .. इसीलिए हमारा अनिवार्य कर्तव्य है कि हम अपने अमल और बर्ताव द्वारा उनके प्रति नेकनीयती का सबूत दें और इस तरह अपने को उनका प्रिय पात्र बनाएं।” (‘महारुद्र का महातांडव’) उनके नेतृत्व में किसान सभा का संघर्ष अपनी तमाम सीमाओं और समस्याओं के बावज़ूद सामाजिक परिवर्तन का एक महत्वपूर्ण अध्याय है और स्वामीजी इस परिवर्तन के एक नायक। उनकी जीवन यात्रा के अनेक पड़ाव हैं – ‘ब्रह्मर्षि वंश विस्तार’, और किसान सभा से होते हुए, ‘महारुद्र का महातांडव’ तक उनकी जीवन यात्रा एक प्रेरणादायी परिवर्तनकारी यात्रा है। किसान सभा के आंदोलन ने भी नेताओं की एक नई पीढ़ी को जन्म दिया। उनमें से कई आगे चलकर कांग्रेस और कम्युनिस्ट आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
उपसंहार
त्रिवेणी संघ के गठन के क़रीब 92 वर्षों बाद हम अपने समाज को निश्चय ही काफ़ी बदला हुआ पाते हैं – अपने संघर्षों तथा कुर्बानियों के ज़रिए इन दशकों में वंचित समुदायों ने अनेक उपलब्धियां हासिल की हैं, जिनका ब्यौरा यहां देना ज़रूरी नहीं है। इन समुदायों की आज जवान हो रही पीढ़ी को यह जानकर कुछ हैरत तो होगी ही कि आज से सौ साल पहले उनके पूर्वजों को कुछ प्राथमिक अधिकार भी प्राप्त नहीं थे, कि बोलने, सम्मान के साथ जीने के अधिकार के लिए उन्हें कितना संघर्ष करना पड़ा, कितनी यातनाएं सहनी पड़ीं और कितनी कुर्बानियां देनी पड़ीं, कि उनके समुदाय में शायद ही कोई साक्षर था, और कि सत्ता के संगठनों में उनके समुदाय का कोई प्रतिनिधित्व नहीं था। बहरहाल, अनेक उपलब्धियों के बावज़ूद आज भी उच्च शिक्षा, मीडिया, न्यायपालिका, आदि में इन वंचित समुदायों की उपस्थिति कुछ खास नहीं है। विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में उनकी भागीदारी नगण्य ही है, उद्यम-व्यवसाय, कला-संस्कृति के क्षेत्र में यही हाल है। वयस्क मताधिकार पर आधारित राजनीतिक जनतंत्र तथा सरकारी नौकरियों में आरक्षण के कारण राजनीतिक सत्ता में उन्होंने अपनी महत्वपूर्ण भागीदारी हासिल की है, लेकिन शिक्षा और संपत्ति से ऐतिहासिक रूप से वंचित रहने के कारण सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में समानता और सम्मान का स्थान ग्रहण करने में अब भी काफ़ी लंबा सफ़र तय करना बाकी है। जातिगत जनगणना, निजी क्षेत्र में आरक्षण, और आरक्षण की पचास प्रतिशत की सीमा समाप्त कर उसका सत्तर प्रतिशत तक विस्तार करने की चुनौती है। सामाजिक जीवन में (खासकर, दलितों, आदिवासियों और महिलाओं के साथ) भेदभाव, उत्पीड़न और हिंसा की घटनाएं आज भी बदस्तूर जारी हैं। इसके साथ, अगर हम न्याय के आंदोलनों के सामाजिक-सांस्कृतिक प्रतीकों को समाज में प्रतिष्ठित करने, इतिहास के पुनर्लेखन, पाठ्यपुस्तकों में न्याय के आंदोलनों, उनके नायकों को स्थान दिलाने, समाज में जड़ जमा चुकी अन्यायपूर्ण प्रथाओं, रूढ़ियों, कर्मकांडों, विचारों के ख़िलाफ़ वैचारिक-सांस्कृतिक अभियान चलाने की महती चुनौती को जोड़ दें तो आज न्याय के आंदोलन के समक्ष जो गंभीर कार्यभार उपस्थित हुआ है, उसका सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
आज सामाजिक न्याय का आंदोलन एक नई चुनौती के समक्ष खड़ा है। वह है हिंदुत्व की चुनौती। सामाजिक न्याय के लिए वंचित समुदायों की एकजुटता को भंग कर हिंदुत्व की शक्तियां इन समुदायों को मुस्लिम-विरोधी हिंदू गोलबंदी में शामिल करने की पुरजोर कोशिश कर रही हैं। इन समुदायों को शामिल किए बिना कथित हिंदू राष्ट्र की उनकी घातक परियोजना कामयाब नहीं हो सकती। इस परियोजना को विफल करना और इन शक्तियों को परास्त करना आज सामाजिक न्याय की शक्तियों का सबसे ज़रूरी कार्यभार है।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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