शिबू सोरेन (11 जनवरी, 1944 – 4 अगस्त, 2025)
रामगढ़-धनबाद मुख्य मार्ग पर है– गोला प्रखंड। रांची से लगभग सौ किलोमीटर दूर। गोला से एक सड़क सेवाती पहाड़ की तरफ जाती है और उसी सड़क के अंतिम छोर पर है एक गांव– नेमरा। नेमरा जाने के क्रम में रास्ते में एक पुराना रेलवे स्टेशन मिलता है– बड़लग्गा। उसके बाद है महाजनों-बनियों का गांव– हेडबरगा। उस गांव के सामने है आसमान छूती पहाड़ी, जिसे चंडू पहाड़ के नाम से जाना जाता है। उस पहाड़ी की तराई में दूर तक फैला एक निर्जन मैदान है, जिसमें एक सीमेंट का चबुतरा बना हुआ है। बहुधा यात्री उस पर बिना गौर किए ही अब आगे बढ़ जाते हैं। लेकिन करीब जाने पर सीमेंट के ही एक बोर्ड पर दर्ज इबारत को पढ़ते ही रोमांच का अनुभव होता है– “झारखंड क्रांति स्थल, सांसद शिबू सोरेन के शहीद पिता सोबरन मांझी की पुण्य स्मृति में निर्मित। शहीदी तिथि- 27 नवंबर 1957 ई.।”
शिबू सोरेन की उम्र उस वक्त बमुश्किल पंद्रह-सोलह वर्ष की होगी। वे गोला के हाई स्कूल में पढ़ते थे। वहीं उनके बड़े भाई राजाराम भी पढ़ते थे। सोबरन उन दोनों के लिए राशन ही पहुंचाने जा रहे थे कि उनकी हत्या गांव के महाजनों द्वारा करा दी गई। सोबरन पेशे से शिक्षक थे और गांधीवादी विचारधारा को मानते थे। आसपास के गांवों में चरखा का प्रचार किया करते थे। वे अपने समाज के लाेगों के शोषण से क्षुब्ध रहा करते थे और महाजनी शोषण तथा शराबखोरी का विरोध करते थे। इसी वजह से वे महाजनों की आंख की किरकिरी बन गए थे और उन लोगों ने घटवार जाति के कुछ लोगों को भड़का कर उनकी हत्या करवा दी।
उसके बाद उस परिवार की क्या गति हुई होगी, इसकी कल्पना की जा सकती है। शिबू सहित उस घर में पांच-छह बच्चे थे। और घर को चलाने वाले की हत्या हो गई। कुछ जमीन महाजनों ने लूट ली, कुछ परिजनों ने। लेकिन सोबरन की पत्नी और शिबू की मां सोनामणि हिम्मत वाली महिला थी। हत्यारों को सजा दिलाने के लिए कई वर्षों तक वह हजारीबाग कोर्ट जाया करती थी। अपने दोनों बड़े बेटों – शिबू और राजाराम – के साथ। लेकिन कोर्ट और वकीलों के रवैये से निराश होकर इस संकल्प के साथ एक दिन वह कोर्ट से लौट आई कि अब उनके बच्चे ही बड़े होकर अपने पिता के साथ हुए अन्याय का बदला लेंगे।

वे उनके जीवन के विषमतम दिन थे। राजाराम और शिबू की पढ़ाई छूट गई। घर चलाने के लिए सभी को काम करना पड़ा था। शिबू भी जंगल में लकड़ी काटने जाया करते। कुछ और बड़े हुए तो पहाड़ी रास्तों से काड़ागाड़ी पर लाद कर झालदा और मूरी के आरा मशीनों पर लकड़ी पहुंचाने जाया करते थे। लेकिन कामकाज के दौरान भी उनके कलेजे में पिता की जघन्य हत्या वाला मामला सुलगता रहता। शुरुआती दौर में उनका टकराव वन विभाग के कर्मचारियों से हुआ। वे देखते कि वनकर्मी लकड़ी माफिया से मिल कर जंगल को खुद तो लूटने में लगे हैं, लेकिन जंगल में अपनी जरूरत के लिए लकड़ी की जुगाड़ में पहुंचे ग्रामीणों के साथ बहुत बुरा सलूक करते। शिबू अपने साथियों के साथ उनसे उलझ पड़े।
उसी दौर में खैराचातर के एक भगत से भी उनका टकराव हुआ था। उस भगत ने प्रखंड के कर्मचारियों से मिल कर गांव वालों के नाम पर नलकूप लगाने का ठेका प्राप्त कर बैंक से पैसा उठा लिया और नलकूप बनाया ही नहीं। कुछ साल बाद बैंक वाले उन ग्रामीणों से कर्ज वसूल करने गांव पहुंच गए। शिबू कुछ साथियों के साथ मामले की दरियाफ्त करने प्रखंड कार्यालय गए और चपरासी के हाथों अपमानित होकर लौट आए। उसके बाद उन्होंने एक दिन खैराचातर बाजार से उस भगत को अपने साथियों की मदद से उठा लिया और उसे भस्मी के जंगल में ले गए। बाद में प्रखंड के अधिकारियों के साथ सुलह-सफाई के बाद उस भगत को मुक्त किया गया। लेकिन इस एक घटना ने एक बागी युवक के रूप में उस पूरे इलाके में उन्हें ख्याति दिला दी।
हालांकि यह सब वे किसी चिंतन या सुनिश्चित सोच के साथ नहीं कर रहे थे। उसी दौरान उनकी मुलाकात कुछ कम्युनिस्ट नेताओं से हुई, जिनमें प्रमुख थे– चितरपुर के मंजूर हसन। मंजूर हसन खुद जमींदार परिवार के थे लेकिन अलीगढ़ विश्वविद्यालय में पढ़कर लौटने के बाद कम्युनिस्ट नेता हो गए थे और सबसे पहले उन्होंने अपने जमींदार पिता के खिलाफ ही बगावत की। वे एक बार विधायक भी बने। लेकिन माफिया गिरोह ने शपथ लेने के ठीक पहले पटना के विधायक क्लब में उनकी हत्या करवा दी। उनकी सोहबत में रह कर शिबू द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और वर्ग-संघर्ष की अवधारणा को कितना समझ सके, यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन शोषण मुक्त समाज बनाने का एक लक्ष्य और उसके लिये अनवरत लड़ते रहने का संकल्प उन्होंने जरूर प्राप्त किया।
वे हलचल भरे दिन थे। बोकारो में उन्हीं दिनों एक स्टील कारखाना का निर्माण होने जा रहा था। जैनामोड़ से सटे माराफारी क्षेत्र से निर्माण का कार्य शुरू हुआ। पहले दौर में भूमि समतलीकरण का काम होना था। इन्हीं सब के विरोध के लिए जैनामोड़ में एक बैठक बुलाई गई और उस बैठक में खास तौर पर बुलाया गया सोबरन मांझी के पुत्र और एक उग्र युवक के रूप में विख्यात हो चुके शिबू सोरेन को। उस बैठक में डुगडुगी के घनघोर आवाज के बीच अपनी जमीन और आदिवासी महिलाओं के सम्मान के लिये अनवरत संघर्ष का संकल्प लिया गया। एक संगठन बनाया गया, जिसका नाम प्रारंभ में संथाल सुधार समिति रखा गया, लेकिन बाद में उसका नाम ‘आदिवासी सुधार समिति’ कर दिया गया। वह सभा जिस जमीन पर हो रही थी, वह भवेश मांझी की थी, लेकिन उस पर महाजनों ने कब्जा कर रखा था। उस सभा में शिबू सोरेन ने घोषणा की– “आज से, इसी क्षण से यह जमीन महाजन के कब्जे से मुक्त हुई … आज से इस जमीन पर संथाल सुधार समिति का कार्यालय चलेगा।”
उसके बाद आंदोलन के नए साथियों ने उस पूरे इलाके में उन जमीनों की सूची बनाई, जिस पर महाजनों ने कब्जा कर रखा था और एक-एक कर उन जमीनों पर धावा बोल कर खड़ी फसल काट लेने की कार्रवाई शुरू हो गई। टकराव कहीं नहीं हुआ। हां, धारा 379,144 और 145 के तहत पुलिस ने कार्रवाई शुरू की। अधिकांश मामलों में शिबू को मुख्य अभियुक्त बनाया गया।
अंतहीन संघर्ष के उन्हीं दिनों में एक दिन बनचास के निवासी मोहन मांझी उन्हें विनोद बिहारी महतो से मिलाने धनबाद ले गए। विनोद बिहारी महतो वकील थे और विस्थापितों का मुकदमा लड़ा करते थे। उन्हें मुकदमे के दौरान एक ऐसे युवक की जरूरत थी जो गवाही देने का काम बखूबी कर सके। जज के सामने विरोधी पक्ष के वकील के जिरह से टूटे नहीं। लेकिन इस काम के लिये मोहन मांझी शिबू सोरेन को ले आएंगे, यह कल्पना भी उन्होंने नहीं की थी। अजान बाहु, भव्य ललाट, कंधे तक झूलते बाल और चमकीली आंखें। वे शिबू और उनके आदिवासी सुधार समिति तथा उनके धनकटनी आंदोलन के बारे में सुन चुके थे। उन्होंने हंस कर शिबू सोरेन का स्वागत किया और पूछा– “हमारे साथ मिल कर काम करोगे शिबू? तुमने जिस तरह आदिवासी सुधार समिति बना रखा है, उसी तरह मैंने यहां शिवाजी समाज नामक संगठन बना रखा है। हम दोनों मिलकर काम करें तो बहुत कुछ किया जा सकता है।”
एक और राजनेता जिन्होंने शिबू सोरेन को महानायक बनाने में अहम भूमिका निभाई, वे थे कामरेड एके राय। जयपाल सिंह और तत्कालीन अन्य झारखंडी नेताओं के कांग्रेस से बढ़ती नजदीकी को देख कर वे प्रारंभ में शिबू सोरेन के प्रति भी आशंकित हुए, लेकिन टुंडी में उनके कामकाज से प्रभावित होकर उन्होंने ही शिबू सोरेन को आदिवासियों का महानायक करार दिया।
उन्होंने अपनी पुस्तक ‘झारखंड और लालखंड’ में लिखा है– “बागुन सुंब्रई, एन.ई. होरो और शिबू सोरेन आदिवासी आंदोलन में तीन धाराओं के प्रतीक हैं। श्री सुंब्रई आदिवासी सामंतवाद के प्रतीक हैं जो कि झारखंड को पीछे ले जाने वाला है। श्री होरो आदिवासी पूंजीवाद के प्रतीक हैं जो ज्यादा से ज्यादा वर्तमान में सीमित हैं। शिबू सोरेन आदिवासी समाजवाद के प्रतीक हैं, जिसमें सारे समाज का भविष्य नीहित है। श्री सोरेन भारत के ऊपर एक लाल सितारा बनने की संभावना रखते हैं और हरा झंडा लाल भारत का जन्मदाता होगा।”
तो, बिनोद बिहारी महतो को लगा कि शिबू सोरेन का प्रभाव आदिवासी बहुल क्षेत्र में ज्यादा होगा, इसलिए उन्होंने उन्हें टुंडी प्रखंड में काम करने के लिए प्रेरित किया। शिबू टुंडी गए और वहां पोखड़िया आश्रम को अपने आंदोलन का केंद्र बनाया। उस केंद्र से उन्होंने महाजनी शोषण के खिलाफ ‘धनकटनी आंदोलन’ का नेतृत्व किया, जो एक इतिहास बन गया। उसी आंदोलन ने शिबू सोरेन को आदिवासियों का महानायक, ‘दिशोम गुरु’ बना दिया।
दिशोम गुरु अब नहीं रहे। लेकिन उनकी जीवनगाथा झारखंड के चप्पे-चप्पे में गूंजती रहेगी।
अलविदा दिशोम गुरु!
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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