मैंने कहीं सुना था कि दुनिया लेखकों से चलती है। इसका क्या आशय हो सकता है? एक आशय यह है कि एक प्रभावशाली लेखक अपनी विचारधारा का आरोपण मिथकीय चरित्रों पर कर सकता है, उनका रूप बदल सकता है। मसलन, राम को या अन्य किसी मिथकीय इतिहास के नायक को इस तरह हज़ारों रचनाकारों ने अपने ढंग से बनाया है। या कहें कि विभिन्न लेखकों ने राम के माध्यम से ख़ुद को प्रकट किया है।
सर्वविदित है कि भारत में अनेक लेखकों ने रामकथा लिखी। उदाहरण के लिए तमिल में ‘कम्ब रामायण’, संस्कृत में ‘वाल्मीकि रामायण’, बांग्ला में ‘कृतिवास रामायण’, और हिंदी (अवधी) में तुलसी कृत रामायण अथवा ‘रामचरितमानस। हिंदी में ही अगर देखा जाय तो यह सिलसिला रुका नहीं है। तुलसीदास के बाद आधुनिक काल में मैथिलीशरण गुप्त का ‘साकेत’, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की ‘राम की शक्ति पूजा’, नरेश मेहता की ‘संशय की एक रात’ और भगवान सिंह का ‘अपने-अपने राम, आदि ऐसी अनेक रचनाएं बहुचर्चित हैं।
उल्लेखनीय है कि इन सभी रचनाओं में राम का चरित्र एक समान नहीं है। कहने का अभिप्राय यह है कि ‘राम’ लोक से उठाया गया एक किरदार है, जिसे विभिन्न लेखकों ने अपने-अपने ढंग से गढ़ा है। उदाहरण के तौर पर वाल्मीकि के राम तुलसी के राम से भिन्न हैं। साथ ही यह भी कहना उचित होगा कि वाल्मीकि के राम तुलसी के राम से अधिक सहज और स्वाभाविक हैं, लेकिन जनमानस में तुलसीदास के राम अपेक्षाकृत अधिक प्रतिष्ठित हैं। असल में तुलसीदास राम को जिस रूप में चाहते थे, उसी रूप में उन्होंने राम का स्वरूप निर्मित किया। अब फ़र्क़ नहीं पड़ता कि राम का वास्तविक स्वरूप क्या था। और इस तरह एक संभावना बनती है कि समाज में वे राम व्याप्त नहीं हैं, जो कदाचित वास्तव में रहे होंगे। इसके बरक्स राम के माध्यम से लेखक स्वयं व्याप्त हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ आदि लिखनेवाले वे लोग ही रहे, जो समाज में स्थापित रहे।

राम के साथ अन्य मिथकीय-पौराणिक पात्रों के संदर्भ में भी लेखकीय प्रतिरूप का यही सिद्धांत लागू होता है। प्रस्तुत अध्ययन में मिथकीय-पौराणिक पात्रों के माध्यम से इन्हीं लेखकीय प्रतिरूपों का विवेचन-विश्लेषण किया जाएगा। साथ ही, इन लेखकीय प्रतिरूपों का समाज और संस्कृति पर कैसे प्रभाव पड़ता है, इसका भी अध्ययन किया जाएगा।
पेरियार ई.वी. रामासामी ने अनेक रामायणों को पढ़कर एक ‘सच्ची रामायण’ (1 जनवरी, 1930) की रचना की। अलौकिक दृष्टिकोण से अलग हटकर रामकथा के संदर्भ में जो कुछ भी लिखा गया है, जहां भी लिखा गया, वह सब ‘सच्ची रामायण’ में उपलब्ध है। ऐसे ही रामकथा के संदर्भ में भारत में किसी मूल भारतीय ने उतना प्रभावी शोध नहीं किया है, जितना की एक विदेशी विद्वान फादर कामिल बुल्के ने किया। उनका शोध ‘राम कथा : उत्पत्ति और विकास’ (1949) नाम से प्रकाशित है। उनके अनेक संदर्भ पेरियार के संदर्भों और सिद्धांतों से मेल खाते हैं।
पेरियार से पहले देश में जोतीराव फुले, सावित्री बाई फुले और संत गाडगे बाबा आदि बहुजन बौद्धिक नायकों का उदय हो चुका था। पेरियार भी प्रवंचित की अगली पीढ़ी में आते हैं। साथ ही, जो सामाजिक दंश प्रवंचित वर्ग को झेलना पड़ा है, उसी सामाजिक अपमान का सामना पेरियार को भी करना पड़ा। जबकि पेरियार एक बड़े व्यवसायी पिता के पुत्र थे। इरोड वेंकटप्पा रामासामी को भी उनके परिवेश ने पेरियार बनाया। इस संबंध में ओमप्रकाश कश्यप अपनी किताब ‘पेरियार ई.वी. रामासामी : भारत के वॉल्टेयर’ में लिखते हैं– “डॉ. आंबेडकर की तरह पेरियार को भी स्कूली शिक्षा के दौरान ब्राह्मणों की छूआछूत का शिकार होना पड़ा था। उन्हें भी स्कूल में पानी के घड़े को छूने का अधिकार नहीं था, और उन्हें प्यासा ही रहना पड़ता था। उनके माता-पिता वैष्णव संप्रदाय को मानने वाले थे, इसलिए रूढ़िवादी परंपराओं में आस्था रखते थे। इसी रूढ़िवादी परिवेश ने पेरियार के मानस में सामाजिक क्रांति का बीजारोपण किया था।”[1]
पेरियार का मानना था कि जब तक सांस्कृतिक और धार्मिक-मिथकीय इतिहास को नहीं समझा जाएगा तब तक वंचित वर्ग को मानसिक ग़ुलामी से मुक्ति दिलाना मुश्किल है, क्योंकि ग़ुलामी इस संस्कृति में है। शास्त्रों में इसका सैद्धांतिकीकरण किया गया है। जब तक उसका आलोचनात्मक मूल्यांकन नहीं किया जाएगा, तब तक केवल व्यावहारिक जागरूकता और थोथी चेतनशीलता से मुक्ति नहीं मिल सकती है।
कहना न होगा कि डॉ. आंबेडकर का भी यही मानना था। इस प्रकार पेरियार ने शास्त्रीय-ग्रंथों को खंगालना शुरू किया उन्होंने सभी रामायणों का अध्ययन किया; उसमें अपने जीवन के चालीस वर्ष लगाये और एक किताब लिखी जिसे तमिल में ‘रामायण पादिरंगल’ (1 जनवरी, 1930) शीर्षक से प्रकाशित किया गया। अंग्रेज़ी में इसका अनुवाद ‘रामायणा अ ट्रू रीडिंग’ (1958) नाम से हुआ। बाद में 1968 में इसका हिंदी अनुवाद पेरियार ललई सिंह यादव द्वारा ‘सच्ची रामायण’ नाम से प्रकाशित हुआ।
इस किताब में पेरियार ने मिथकीय ग्रंथों के पूरे पैटर्न को उलट-पलट कर रख दिया। समाज में एक नया विचार स्थापित किया कि जिसे मिथकीय इतिहास बताकर हमारे सामने परोसा गया है, वह ग़लत है। निश्चित तौर पर यदि हम उन ग्रंथों का आलोचकीय दृष्टि से पुनर्पाठ करें और उनकी समीक्षा करें तो पाएंगे कि पेरियार उचित कह रहे थे। ऐसे ही हवा में उन्होंने बात नहीं की थी।
यद्यपि बचपन से हम जिन मिथकीय पात्रों को जिस रूप में देखते-पढ़ते आए हैं, पेरियार की रामायण के पात्र वैसे नहीं हैं। इस संदर्भ में सबसे पहले यही कहा जा सकता है कि हमें ऐसा क्यों लगता है कि जो बचपन से दिखाया और बताया गया है, वह सब सही है? अनेक सामाजिक मान्यताएं और परंपराएं आज रूढ़ि बन चुकी हैं।
भारतीय अध्ययन प्रणाली हमें सवाल पूछने से रोकती है। सवाल है कि मिथकीय इतिहास क्यों ग़लत और पक्षपाती नहीं हो सकता? इस बारे में अध्ययन-मनन और चिंतन करने की आवश्यकता है। अगर सती प्रथा तथा बाल विवाह जैसी अमानवीय व्यवस्थाएं और परंपराएं ख़त्म हो सकती हैं और समाज नये सिरे से सोच-विचार कर सकता है तो इस मिथकीय इतिहास में ऐसा क्या है जो पढ़े-लिखे लोग मिथकीय-पौराणिक पात्रों को आलोचकीय दृष्टि से नहीं देख सकते हैं? लोगों के के मन-मस्तिष्क में वही राम, वही कृष्ण, वही शिव, वही दुर्गा और वही महिषासुर क्यों भरे हुए हैं? ऐसा क्यों है?
वस्तुतः कहा जाए तो इसके पीछे वही पोंगापंथी, सड़ी-गली सोच है, अध्ययन मनन और स्वतंत्र चिंतन की कमी है। हमारी औपचारिक शिक्षा में जो पढ़ाया जाता है हम वही पढ़ते हैं, और जो पढ़ाया जाता है वह विशेष मानसिकता और उद्देश्य से पढ़ाया जाता है। इसलिए विद्यार्थी अगर पेरियार जैसे लीक से हटकर सोचने वाले विचारक को समझना चाहते हैं तो उन्हें औपचारिक पाठ्यक्रम से अलग जो साहित्य का विपुल भंडार है, उसे भी पढ़ना होगा। पाठ्यक्रम जो उन्हें सोचवाना चाहता है उससे अलग हटकर, उससे मुक्त होकर सोचना भी पड़ेगा। जिन ग्रंथों में हमें यह बताया गया है कि हिरण्यकश्यप, हिरण्याक्ष, होलिका, महिषासुर, रावण, कुंभकर्ण, मेघनाद, शूर्पणखा, ताड़का, जरासंध और शिशुपाल इत्यादि मिथकीय तौर पर खलनायक हैं, उन्हीं ग्रंथों को दूसरी मुक्त दृष्टि से पढ़ने पर पता चलता है कि जो हमें बताया जा रहा है, वह युक्तिसंगत नहीं है। इन ग्रंथों को ‘बिटवीन द लाइन’ पढ़ा जाय तो इन्हीं ग्रंथों में हमें पेरियार के साहित्य की पृष्ठभूमि मिल जाएगी, क्योंकि कहीं न कहीं इन्हीं ग्रंथों से मुख्यधारा की संस्कृति के समानांतर चल रही समृद्ध मानवीय व्यवस्थाओं के साज़िशन नष्ट किए जाने के संकेत भी मिलते हैं।
इसे ऐसे भी समझें कि डॉ. आंबेडकर यूं ही अपनी पुस्तक ‘शूद्रों की खोज’ में महाभारतकार का धन्यवाद नहीं देते। महाभारत और रामायण से ही एकलव्य और शंबूक जैसे पात्रों की चर्चा मिलती है। इसीलिए इन्हीं ग्रंथों का पुनः मुक्त दृष्टि से पाठ करने की ज़रूरत है, उसमें मिलने वाली अनेक व्यवस्थाओं और संस्कृतियों (जो आज लुप्त हो चुकी हैं या लुप्त प्राय हो गई हैं) की खोज करने की ज़रूरत है, पेरियार ने वही काम किया।
हिंदी क्षेत्र में कानपुर के ललई सिंह यादव ने पेरियार की वैचारिकी स्थापित करने का कार्य किया, उन्होंने पेरियार को अपना गुरु माना और जातिगत सरनेम ‘यादव’ हटाकर अपने नाम में पेरियार जोड़ लिया। पेरियार ललई सिंह का संपूर्ण लेखन तथाकथित मुख्यधारा के समानांतर जो अन्य व्यवस्थाएं और संस्कृतियां थीं, सभ्यता थी और जो आज की मुख्यधारा से कहीं ज़्यादा मानवीय और वैज्ञानिक थीं, जिनको मुख्यधारा ने हज़ारों साल पहले नष्ट करने की कोशिश की थी। उसकी पुनः खोज का सफल प्रयास है कि आज समाज सवाल कर रहा है और जवाब तलाश रहा है।
पेरियार ललई सिंह के विचार की मूल प्रेरणा पेरियार ई.वी. रामासामी से मिलती है। उनके संपूर्ण साहित्य में इसी मूल विचार की अनुगूंज दिखाई देती है। यही कारण है कि उन्हें उत्तर भारत का पेरियार कहा जाता है। इनकी वैचारिकी का संपूर्णता में अध्ययन करने के लिए ‘पेरियार ललई सिंह ग्रंथावली’ का अध्ययन किया जा सकता है, जिसका संपादन धर्मवीर यादव गगन ने किया है।
पेरियार ललई सिंह का संपूर्ण लेखन गुरु पेरियार ई.वी. रामासामी के मार्ग पर चलता है, तथा सांस्कृतिक और साहित्यिक ढंग से व्यवस्था की खोज करता है। चूंकि भारतीय समाज को साहित्य और संस्कृति के माध्यम से ही बेहतर समझा जा सकता है, इसलिए ललई सिंह भी यही रास्ता अख़्तियार करते हैं। बहुजन परंपरा पर विचार करने वालों में बुद्ध, कबीर, रैदास, जोतीराव फुले, सावित्रीबाई फुले, पेरियार, डॉ. आंबेडकर और पेरियार ललई सिंह इत्यादि विचारक आते हैं। इनके कालखंडों में पर्याप्त अंतर होने के बावजूद ये सभी मानवतावादी विचारक एक तरह की बात करते हैं। ऐसा क्यों है? यह विचारणीय है।
मूल बात यह कि ये सभी चिंतक अभिजन के ख़िलाफ़ बहुजन को प्रतिस्थापित करना चाहते हैं। यहां ‘बहुजन’ से अभिप्राय केवल संख्या के आधार पर बहुजन से नहीं है, बल्कि तथाकथित मुख्यधारा की धार्मिक और सामाजिक व्यवस्था के द्वारा हज़ारों साल से कुछ चंद लोगों द्वारा बहुसंख्यक आबादी को धर्म और संस्कृति के माध्यम से मूर्ख बनाकर उसे छले जाने से है। ओमप्रकाश कश्यप लिखते हैं – “संख्याबल में ऊपर के तीनों वर्ग शेष जनसमाज के सापेक्ष बहुत कम थे। कुल जनसंख्या का बमुश्किल पांचवा हिस्सा। लेकिन समाज के कुल संसाधनों पर उनका अधिकार था। इसलिए संख्या-बहुल होने के बावजूद निचले वर्ण के लोग ऊपर के तीन वर्गों की मनमानी सहने के लिए विवश थे।”[2] इसलिए कुछ चंद लोगों (अभिजनों) को छोड़कर शेष जिन लोगों का शोषण धर्म संस्कृति और मुख्यधारा द्वारा बनाई गई सामाजिक व्यवस्था में हुआ है, वे सभी ‘बहुजन’ हैं। ये सभी विचारक इसी ‘बहुजन’ के लिए समय-समय पर लड़ते रहे हैं। वह अलग बात है कि किसी के लड़ने का माध्यम धर्म था, किसी के लड़ने का माध्यम अध्यात्म था, तथा किसी के लड़ने का माध्यम प्रत्यक्ष सामाजिक और राजनीतिक था। सबकी लड़ाई का माध्यम अलग था, रूप अलग था, लेकिन उद्देश्य एक था।
भारत के धर्म, संस्कृति और मिथकीय-पौराणिक इतिहास को जब-जब बुद्धिजीवियों और इतिहासकारों ने खंगाला तो कई आयाम सामने आए। इनमें एक आर्य-अनार्य विवाद भी माना जाता है। आर्यों के संदर्भ में विद्वानों के बीच मतभेद रहा है। अधिकांश विद्वान मानते हैं कि आर्य बाहर से आये थे और कुछ विद्वान मानते हैं आर्य यहीं के मूल निवासी थे। लेकिन अब अधिकांश संख्या में विद्वान यह मानने लगे हैं कि आर्य बाहर से ही आए थे। हाल के दशक में भारतीयों के जीन के अध्ययनों से भी इसकी पुष्टि होती है।
जवाहर लाल नेहरू अपनी पुस्तक ‘भारत की खोज’ में लिखते हैं – “ऐसा माना जाता है कि आर्यों का प्रवेश सिंधु घाटी युग के लगभग एक हज़ार वर्ष पहले हुआ। यह भी संभव है कि इनमें इतना बड़ा समय का अंतर न रहा हो और पश्चिमोत्तर दिशा से भारत में ये कबीले और जातियां समय-समय पर आती रही हों, और भारत में जज्ब होती रही हों – जैसे की बाद में भी हुआ।”[3]
इसी प्रकार राहुल सांकृत्यायन अपनी पुस्तक ‘वोल्गा से गंगा’ में और बाल गंगाधर तिलक अपनी पुस्तक ‘वेदों में आर्कटिक होम’ में मानते हैं कि आर्य यहां के मूल निवासी नहीं थे, वे बाहर से आये थे। लेकिन इस संबंध में डॉ. भीमराव आंबेडकर का मानना है कि “आर्य लोग बाहर से आए और उन्होंने भारत पर आक्रमण किया, इसका प्रमाण नहीं है, और यह भी ग़लत है कि दास और दस्यु भारत की आदिम जनजातियां हैं।”[4]
कुल मिलाकर तथ्य यह है कि दुनिया के संचालन की दिशा लेखक और बुद्धिजीवी तय करते हैं। उनके चिंतन और मनन से नए विमर्श सामने आते हैं और समाज अपने लिए राह चुनता है। यह राह तर्कवाद की राह है, जिससे समाज में चेतना का प्रसार होता है।
संदर्भ :
[1] ओमप्रकाश कश्यप, पेरियार ई.वी. रामासामी : भारत के वॉल्टेयर, सेतु प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2022, पृ. xi
[2] ओमप्रकाश कश्यप, भारतीय चिंतन की बहुजन परंपरा, सेतु प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2022, पृ. 396
[3] जवाहरलाल नेहरू, (अनु.) निर्मला जैन, भारत की खोज, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद्, संस्करण 1996, पृ. 25
[4] डॉ. बी.आर. आंबेडकर, (अनु.) मोज़ेज़ माइकेल, शूद्रों की खोज, सम्यक प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2007, पृ. 90
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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