ब्राह्मण परंपरा कश्यप नामक ऋषि को प्रजापति का दर्जा देकर देवताओं से लेकर राक्षसों, असुरों, और यहां तक कि भूत-प्रेतों, कीड़े-मकोड़ों का जन्मदाता मानती है। माना जाता है कि बीसवीं शताब्दी के आसपास जब अल्पसंख्यक बोध की मारी कथित सवर्ण जातियों ने पिछड़ी-अतिपिछड़ी जातियों को ‘हिंदू’ पहचान देना शुरू किया, तब इन जातियों के नेताओं की ओर से प्रश्न किया गया कि ब्राह्मण धर्मशास्त्रों में उनकी जगह कहां है, तब वायुपुराण के आधार पर उन्हें यह कहकर चुप करा दिया गया कि सब कश्यप ऋषि की संतान हैं। गोत्र-परंपरा से बाहर, कई अतिपिछड़ी जातियों ने इसे खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया और वे अपने नाम के आगे खुशी-खुशी कश्यप लिखने लगीं। इस तरह वे ब्राह्मणवादी राजनीति का शिकार बन कर रह गईं। विशेष बात यह है कि जैन ग्रंथों में आदि तीर्थंकर ऋषभदेव को जाति-प्रथा और वर्ण-व्यवस्था की स्थापना का श्रेय दिया गया है, उन्हें भी कश्यप (कस्सप) लिखा गया है। यहां तक कि महावीर तथा गौतम बुद्ध दोनों को ही कश्यप-गोत्रीय माना गया है। बुद्धकालीन आजीवकों में वरिष्ठतम तीर्थंकर का नाम पूरण कस्सप था। जैन एवं बौद्ध ग्रंथों में कश्यप की उत्पत्ति की एकदम अलग व्याख्या मिलती है। मूलतः यह शब्द कृषि व्यवस्था के विकास से जुड़ा प्रतीत होता है। कश्यप नामक प्रजापति का मिथ अनार्य जातियों को ब्रह्मा और प्रकारांतर में वर्ण-व्यवस्था के दायरे में शामिल करने के लिए किया गया था।
जैन और बौद्ध ग्रंथों में क्रमश: महावीर और बुद्ध दोनों को ‘काश्यप’ कहकर संबोधित किया गया है। उनके ‘कश्यप’ पुराणों के मरीचिपुत्र कश्यप से भिन्न हैं। ‘काश्यप’ नामकरण की उनकी व्याख्या कहीं अधिक लौकिक और सच के करीब प्रतीत होती है। ऋषभदेव के गोत्र निर्धारण के बारे में हस्तीमल जैन लिखते हैं–
“जब प्रभु ऋषभदेव बालक्रीड़ा कर रहे थे… उसी समय हाथ में इक्षुदंड (गन्ना) लिए वज्रपाणि शक्र (इंद्र) उपस्थित हुए। इक्षुदंड देखकर शिशु जिन ऋषभदेव ने उसे प्राप्त करने के लिए अपना प्रशस्त लक्षण युक्त दक्षिण हस्त आगे बढ़ाया। इक्षु-भक्षण की रुचि देख शक्र ने उनके वंश का नामकर ‘इक्ष्वाकु’ रख दिया। पानी की क्यारी को काटने से जैसे जलधारा बह चलती है, उसी प्रकार इक्षु (गन्ना) को काटने और छेदने से रस (कास्य) का स्राव होता है। अतः उनका गोत्र ‘काश्यप’ रखा गया।”[1]
अन्यत्र वे लिखते हैं कि ‘इक्षुरस का पर्याय शब्द ‘कास्य’ भी है। ‘कास्य’ का पान करने के कारण ऋषभदेव को ‘काश्यप’ नाम से भी अभिहित किया जाता रहा है।[2] दशवैकालिक सूत्र के अनुसार महावीर भी ‘कास्य’ का पान करते थे। इस कारण उनका गोत्र भी ‘काश्यप’ माना गया।[3] चूर्णिकार जिनदास गणि लिखते हैं– “काश्य का अर्थ है इक्षु। इक्षु का पान करने वाला काश्यप (कासव) कहलाता है।”[4] जगदीश जैन ने भी ‘काश्यप’ को महावीर का गोत्र तथा उसका अर्थ ‘इक्षुरस का पान करने वाले’ (काशंउच्छुं तस्य विकार कास्यः) बताया है। महावीर के पिता को उन्होंने काश्यप गोत्रीय सिद्धार्थ लिखा है।[5] थोड़े बदलाव के साथ काश्यप की यही व्याख्या (काशं उच्छुंतस्य विकार कास्यः रसः स यस्य पानं काश्यपः) ‘उत्तराध्ययन चूर्णी’ में भी मिलती है।[6] पुन: ‘आवश्यक चूर्णि’ में दिया गया है कि ऋषभदेव ने पांच प्रमुख शिल्पों की शिक्षा दी थी। उनके नाम थे— कुम्भकार, चित्रकार, वस्त्रकार, कर्मकार, और काश्यप।[7] यहां काश्यप का अर्थ संभवत: गन्ने से रस निकालकर उसके विभिन्न उत्पाद बनाना है।
दिट्ठिवाय (दृष्टिवाद) जैन दर्शन का बारहवां अंग है, जो आजकल व्युच्छिन्न (विनष्ट, उन्मीलित) माना जाता है। दिगंबर आम्नाय (संप्रदाय) के अनुसार उसके कुछ अंश ‘षट्खण्डागम’ और ‘काषायप्राभृत’ में उपलब्ध हैं। उसमें इक्षुगृह का उल्लेख हुआ है। एक प्रसंग में आर्यरक्षित जब पाटलिपुत्र से शिक्षा ग्रहण कर दशपुर स्थित अपने आवास अपनी माता के पास पहुंचे तो उनकी मां ने पूछा, “बेटा, तुमने दृष्टिवाद का अध्ययन किया या नहीं?” आर्यरक्षित के नहीं कहने पर उनकी मां ने कहा, “हमारे इक्षुगृह में तोसलिपुत्र आचार्य ठहरे हुए हैं … वे तुम्हें पढ़ा देंगे।” उसके बाद आर्यरक्षित इक्षुगृह में पहुंचे। यहां ‘इक्षुगृह’ का आशय ईख के खेतों में, अथवा उनके पास बना हुआ घर हो सकता है। संभव है कि सूखे हुए गन्नों की बाड़ से बने आवास को ‘इक्षुगृह’ नाम दिया गया हो, जिसका उपयोग श्रमणों के ठहरने के लिए किया जाता हो।[8] दशपुर के ‘इक्षुगृह’ का उल्लेख ‘श्रीपट्टावलि परागसंग्रह’ में भी हुआ है।[9] इस ग्रंथ में महावीर के कई शिष्यों को कश्यप गोत्रीय कहा गया है। ‘रामायण’ (1.70.3), ‘महाभारत’ (6.10.16) में क्रमशः इक्षुमति तथा इक्षुमालिनी नदियों का उल्लेख है जो पांचाल नगर (आधुनिक फर्रुखाबाद) में बहती थी। इन दिनों इसे ईखन नदी कहा जाता है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि सुदूर अतीत में यह क्षेत्र गन्ना उत्पादन के लिए जाना जाता होगा। श्रमण परंपरा का प्रचलन प्राचीन जनजातियों के बीच था। कदाचित् यही वे जातियां थीं, जिन्होंने भारत में गन्ने की खेती की शुरुआत की थी।
पूरण कस्सप और महावीर के अलावा गौतम बुद्ध को भी कश्यप गोत्रीय बताया जाता है। पालि परंपरा में परिगणित चौबीसवें बुद्ध का तो नाम ही ‘कस्सप बुद्ध’ था। ‘महाप्रज्ञापारमिताशास्त्र’ के अनुसार बुद्ध अतीत के बोधिसत्वों के संबंधित कुलों में ही जन्म लेते हैं।[10] उसके अनुसार अंतिम सात बुद्धों में से, पहले तीन कौंडिन्य कुल में पैदा हुए थे। अगले तीन कश्यप कुल में और बुद्ध शाक्यमुनि गौतम कुल में पैदा हुए थे। भविष्यपुराण में बुद्ध को कश्यप-गोत्रीय बताया गया है। उसके अनुसार, “कलियुग के अनुरोध पर भगवान विष्णु ने कश्यप गोत्र में गौतम बुद्ध के नाम से अवतार लिया। उसके बाद बौद्ध धर्म को अपनाकर उसका प्रचार करने पट्टणनगर (पटना) चले गए।”[11] उनके पांच प्रमुख शिष्यों में एक ‘महाकश्यप’ तो थे ही, मातंग काश्यप भी थे। भद्रवर्गीयों जटिलों में नदी कश्यप, गया कश्यप तथा ‘उरुबेल कश्यप’ नाम आते हैं। मातंग काश्यप 60 ईस्वी में बुद्ध के धर्म को लेकर चीन पहुंचने वाले आरंभिक बौद्ध श्रमणों में से थे।
सुनीति कुमार चटर्जी के अनुसार अमित (या अमिताभ) बुद्ध को अब ‘ओ-मी-तो-फु’ (O-mi-to-Fu) बुलाया जाता है। ‘फु’ वहां ‘बुद्ध’ या ‘बुध’ का तद्भव रूपांतरण है। इसी तरह प्राचीन चीनी भाषा में ‘काश्यप’ (Kas’yapa) को ‘का-ज-यप’ (Ka-z’yap) भी पुकारा जाता था; जो अब ‘का-येप’ (Ka-yep), का-येह (Ka-yeh), किया-येह (Kai-yeh) और चिया-येह (Chia-yeh) जैसे विविध रूप ले चुका है। प्राचीन जापानी भाषा में ‘काश्यप’ (Kas’yapa) को ‘का-शियापु’ (Ka-siapu) के रूप में अपनाया गया जो अब रूपांतरित होकर ‘का-शयौ’ (Ka-shyo) बन चुका है। पालि में कश्यप को ‘ओक्काको’ कहा गया है। श्रमण परंपरा में ‘कश्यप’ या ‘काश्यप’ नाम का बहुतायत में होना दर्शाता है कि वे सभी किसी अतिप्राचीन गन्ना उत्पादक समूह या कबीले से संबंधित थे। वहीं से बुद्ध के शाक्य कबीले, महावीर के ‘वज्जि’ कुल का निकास हुआ था। शाक्य इक्ष्वाकु को अपना पूर्वज मानते थे। स्वयं बुद्ध ने अम्बष्ठ से कहा था– “अम्बष्ठ! शाक्य लोग राजा इक्ष्वाकु को अपना पितामह (पूर्वज) मानते हैं…’ (पुनश्च:) ‘अम्बष्ठ! वे इक्ष्वाकु हमारे कुलपुरुष हैं।”[12]
बौद्ध धर्म चीन, जापान, बर्मा, ईरान आदि जिन देशों में भी गया, वहां उसका भरपूर स्वागत हुआ। सुनीति कुमार चटर्जी के अनुसार ईरान में बौद्ध धर्म की उपस्थिति और भारत से उसके संपर्क ने पार्शियन भाषा को जो अनेक ‘इंडो-आर्यन’ शब्द उधार दिये। उनमें ‘शकर’ (सक्कर या शर्करा), ‘कन्द’ अथवा ‘कंड’ या क्वन्ड (खांड) ‘केंडी’ भी शामिल थे।[13] ‘इक्षु’ के लिए किसी भी अन्य इंडो-आर्यन भाषा में कोई समानांतर शब्द नहीं है। आर्य पशुपालक अर्थव्यवस्था से थे। खेती करना उन्होंने भारत आने के बाद सीखा था। इस आधार पर कहा जा सकता है कि आर्यों को गन्ने की जानकारी भारत आने के बाद ही मिली थी।[14] विद्वान् इस बात से भी सहमत हैं कि महाकाव्यों में आया ‘इक्ष्वाकु’ नाम विशेष रूप से चीनी उत्पादकों से संबंधित है। ऋग्वेद में इसका केवल एक संदर्भ प्राप्त होता है, “जहां ‘इक्ष्वाकु’ सम्मान पाते हैं (गन्ने की फसल भली-भांति फलती-फूलती है), वहां समाज के सभी वर्ग यथा विद्वान्, योद्धा, व्यापारी, शिल्पकार और श्रमिक समस्त सुख-समृद्धि प्राप्त करते हैं।”[15]

गन्ने की खेती के लिए नम जलवायु चाहिए। संभावना यही है कि इक्ष्वाकु के पूर्वजों के यहां गन्ने की खेती होती थी। संभवत: बहुत बड़े क्षेत्रफल में, इस कारण उनका वंश ‘गन्ना उगाने वाले’ (इक्ष्वाकु) के रूप में प्रसिद्ध हुआ। उन्हीं से आर्यों ने भी गन्ने की खेती करना सीखा। वैदिक आर्य जब उत्तरी भारत के पश्चिमी सिरे पर रहते थे। तब वे गन्ने की खेती किया करते थे।[16] वैदिक इंडेक्स[17] में भी इक्ष्वाकु को भारत के सुदूर पूर्व का निवासी बताया गया है। अयोध्या से उसका संबंध बाद में हुआ।[18] इसलिए ‘इक्ष्वाकु’ (जिसे रामायण के कथापात्र राम का पूर्वज कहा गया है, पशुपालक आर्यों के उस कबीले का मुखिया रहा होगा, जिसने यहां आकर गन्ने की खेती को अपनाया था। ‘स्थानांग सूत्र’ में इक्ष्वाकु (इक्खागा) को छह आर्य जातियों में से एक माना गया है।[19]
जजीथ नंदमूरि के अनुसार, “दक्षिण-पूर्वी एशिया में एक मिथ प्रचलित है कि मनुष्यता का जन्म ‘इक्षु’ यानी गन्ने से हुआ था।”[20] उनके अनुसार गन्ना (इक्षु) मूलतः भारत की फसल है। माना जाता है कि पांच हजार वर्ष पहले सिंधु-वासियों को दानेदार (रवादार शर्करा) के उत्पादन की जानकारी थी। यहीं से वह दुनिया के दूसरे देशों को पहुंचा। पाणिनि ने ‘गुडादिभ्यष्ठञ्’ शब्द का उल्लेख किया है।[21] आशय है कि उस समय के लोग अनेक प्रकार का गुड़ बनाना जानते थे। ‘इक्षु’ और श्रमणों के अप्रत्यक्ष संबंध के संकेत भी मिलते है। एक स्थान पर लिखा है कि खेतों में जब गन्ने की फसल बड़ी हो जाती है, तो श्रमण प्रव्रज्या पर निकल पड़ते हैं। दिव्यावदान में पुण्डवर्धननगर का उल्लेख आजीवकों और निर्ग्रंथों के ठिकाने के रूप में हुआ है। उसी से पता चलता है कि वहां आजीवकों की बड़ी बस्ती थी। पुण्डवर्धननगर (पश्चिमी बंगाल) और कोमिल्ला (बांग्लादेश) ऐसे जिले हैं जो गन्ना उत्पादन के लिए जाने जाते हैं। बुद्धकालीन भारत में ये क्षेत्र गन्ना उत्पादन के अलावा आजीवकों और निर्ग्रंथों के बड़े केंद्र थे। दिव्यावदान के अनुसार बुद्ध का अपमान करने के कारण अशोक ने जिन अठारह हजार आजीवकों/निर्ग्रंथों को मृत्युदण्ड सुनाया था, वे पुण्डवर्धननगर के ही थे।
सुश्रुत संहिता में गन्ने के कुल बारह प्रभेदों का उल्लेख हुआ है। वे हैं– पौंड्रक (पौंडा), भीरुक (छोटा श्याह पौंडा), वंशक (बांसिया पौंडा), शतपोरक, कांतार, तापसेक्षु, काष्ठेक्षु, सूचिपत्रक, नेपाली, दीर्घपत्र, नीलपोर और कोशकृत्।[22] हम देख सकते हैं कि इनमें से प्रथम तीन के नाम किसी न किसी रूप में पुण्डवर्धननगर या पौंड्रक से साम्य रखते हैं। ‘तापसेक्षु’(तापस+इक्षु) का संबंध भी यायावर श्रमणों के रूप में इन्हीं स्थानों की स्मृति से जुड़ा लगता है। अमरकोश में ईख (पोंडा) के केवल दो प्रभेदों – पुण्ड्र और कांतारक का उल्लेख मिलता है।[23] कांतार का आशय वन, अरण्य आदि से है। सो कांतारक का अर्थ वनवासी, अरण्यवासवासी तापसों, श्रमणों से संबंध की प्रतीति कराता है। अमरकोश की टीका अनेकार्थध्वनिमञ्जरी कोषः इसे अर्थ–विस्तार देती है।[24] इस विश्लेषण से जो निष्कर्ष सामने आते हैं, वे ये हैं कि ‘कश्यप’ शब्द का संबंध गन्ना उत्पादक समूहों से है। यह भारत में अपने मूल शब्द ‘इक्षु’ के साथ आर्यों के आने से पहले से ही प्रचलित था। ‘पुण्ड्र’ या ‘पौंड्रक’ इसकी सबसे प्रमुख प्रजाति थीं। इसलिए उसे ‘पौंडा’ उपनाम से भी जाना जाता था।
चूंकि आर्यों ने इसे भारत आकर गन्ना उत्पादक (इक्ष्वाकु) के रूप में अपनाया। इसलिए जिसे कश्यप ऋषि या प्रजापति कहा जाता है, वह मिथकीय संकल्पना है। उसका पूरण कस्सप आदि आजीवकों से कोई संबंध नहीं है। इसे देखते हुए कश्यप की उत्पत्ति को लेकर जैन और बौद्ध ग्रंथों में दिये गये विवरण अधिक यथार्थ और भरोसेमंद हैं। सारत: हम कह सकते हैं कि ‘प्रजापति कश्यप’ का मिथ, आर्यों के द्वारा अनार्यों के साथ संस्कृति सम्मिलन की प्रक्रिया के दौरान गढ़ा गया, जो वास्तव में अनार्य जातियों को वर्ण-व्यवस्था से अनुकूलन की सोची-समझी कूटनीति का परिणाम था। कुछ अति-पिछड़ी जातियां आज इसे अपनी सांस्कृतिक पहचान बनाकर राजनीतिक ताकत बनने का प्रयत्न कर रही हैं। उन्हें याद रखना चाहिए कि सांस्कृतिक दासता राजनीतिक गुलामी से कहीं ज्यादा भयावह और बहुत ज्यादा लंबी होती है। राजनीतिक दासता मनुष्य की आजादी का हनन करती है, जबकि सांस्कृतिक दासता उससे आजादी के साथ-साथ, उसके बारे में सोचने, यहां तक कि उसका सपना देखने का अधिकार भी छीन लेती है।
संदर्भ:
[1]. आवश्यक मलयवृत्ति पूर्व भाग, पृष्ठ 192, चूर्णि पृष्ठ 159, आचार्य हस्तीमल जी महाराज, जैन धर्म का मौलिक इतिहास [2016 : 22]
[2]. कास्य उच्छु तस्य विकारो कास्यः रसः
सो जस्स पाणं सो कासवो उभयसामी। दशवैकालिक अध्ययन 4, अगस्त्य ऋषि की चूर्णि, जैन धर्म का मौलिक इतिहास [2016 : 20]
[3]. भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया…। दशवैकालिक सूत्र 4.1
[4]. काश्यपः, काशो नाम इक्खु भण्णइ, जम्हा तं इक्खु पिवन्ति तेन काश्यपा अभिधीयंते, दशवैकालिक निर्युक्ति एवं चूर्णि, जिनदासगणि [1933 : 132]
[5]. डॉ जगदीशचंद्र जैन, प्राकृत साहित्य का इतिहास [1961 : 156],
[6]. जगदीशचंद्र जैन, प्राकृत साहित्य का इतिहास [1961 : 247]
[7]. जगदीशचंद्र जैन, प्राकृत साहित्य का इतिहास [1961 : 249]
[8]. जगदीशचंद्र जैन, प्राकृत साहित्य का इतिहास [1961 : 101]
[9]. श्रीपट्टावली परागसंग्रह, कल्याण विजयीजीगणी [1966 : 79]
[10]. गोत्रसंपत्। नागार्जुन, महाप्रज्ञापारमिता शास्त्र [2001 : 419], अंग्रेजी अनुवादक गेलोंगमा कर्मा मिग्मे चोड्रोन
[11]. काश्यपादुद्भवो देवो गौतमो नाम विश्रुतः
बौद्धधर्मं च संस्कत्य पट्टणे प्राप्तवान्हरिः। भविष्यपुराणम् [2006, 3.1.6.36-37]
[12]. ‘सक्या खो पन, अम्बट्ठ, राजानं ओक्काकं पितामहं दहन्ति।’ और ‘सो च (ओक्काको) नेसं पुब्बपुरिसो।’ दीघनिकाय, अम्बट्ठ सुत्त, 14
[13]. सुनीति कुमार चटर्जी, इन्डो आर्यन एन्ड हिन्दी [1942 : 72]
[14]. लल्लनजी गोपाल, सुगर मेकिंग इन एन्शीएंट इण्डिया [1984 : 57]
[15]. यस्येक्ष्वाकुरुप व्रते रेवान्मराय्येधते, दिवीव पञ्च कृष्टयः। ऋग्वेद 10.60.4
[16]. रायबहादुर जोगेश चन्द्र राय, सुगर इण्डस्ट्री इन एन्शीएंट इण्डिया [1918]
[17] आर्थर एंथोनी मैकडोनेल और ए.बी. कीथ की दो खंडों में प्रकाशित पुस्तक
[18]. मैकडोनेल और कीथ, वैदिक इण्डेक्स, भाग एक [1912 : 75]
[19]. छव्विहा कुलारिया मणुस्सा पण्णत्ता, तं जहा-उग्गा, भोगा, राइण्णा, इक्खागा, णाता कोरव्वा. स्थानांग सूत्र [2004 : 6.35].
[20]. जजीथ नन्दमूरि, इक्ष्वाकु किंग्स इन महाभारत, एंशीएंट वोइस [2011]
[21]. अष्ठाध्यायी 4.4.103
[22]. पौण्ड्रको भीरुकश्चैव वंशकः शतपोरकः. कांतारस्तापसेक्षुश्च काष्ठेक्षुः सूचिपत्रकः, नैपालो दीर्घपत्रश्च, नीलपोरोऽय कोशकृत्. सुश्रुत संहिता[1911] अध्याय 45, इक्षुवर्ग, 1-3.
[23]. इक्षुस्तभ्देदाः पुण्ड्रकान्तारकादय, अमरकोश 2.4.163
[24]. कान्तारं काननं प्रोक्तं कान्तारः पाकशासनः।
इक्षुभेदश्च कान्तारः कान्तारो दुर्भरोदरः ॥ अनेकार्थध्वनिमञ्जरी कोष, श्लोकाधिकारः 1.114
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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