h n

बिहार विधान सभा चुनाव : सत्ता पक्ष की ‘नकद धनराशि’ और विपक्ष के ‘सामाजिक न्याय’ के मायने

जब नीतीश कुमार की सरकार बनी तब 18 जनवरी, 2006 को एक अध्यादेश के जरिए पिछड़ा वर्ग के नाम पर सिर्फ परिशिष्ट-1 की जातियों (अति पिछड़ा वर्ग) के लिए 20 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई। इसे दिसंबर, 2006 में अधिनियम का स्वरूप दिया गया। इंडिया गठबंधन द्वारा जारी अति पिछड़ा न्याय संकल्प में इसी 20 प्रतिशत आरक्षण को बढ़ा कर 30 प्रतिशत किए जाने की बात कही गई है। पढ़ें, यह रपट

उत्तर भारत के एक महत्वपूर्ण राज्य बिहार में चुनाव का आधिकारिक बिगुल फूंके जाने की औपचारिकता भर शेष रह गई है। चुनाव आयोग से जुड़े अधिकारी राजधानी पटना में केंद्रीय चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार व उनकी टीम के स्वागत की तैयारियों में जुटे हैं। माना जा रहा है कि उनके आते ही यह औपचारिकता भी पूरी हो जाएगी। इस बीच लगभग सभी राजनीतिक दलों ने अपनी ओर से इसका आगाज कर दिया है। इसकी अभिव्यक्ति राज्य में प्रकाशित विभिन्न दैनिक अखबारों की सुर्खियों से भी होती है।

उदाहरण के लिए गत 24 सितंबर, 2025 को पटना से प्रकाशित हिंदी दैनिक ‘राष्ट्रीय सहारा’ के प्रथम पृष्ठ पर पहली खबर का शीर्षक था– ‘सूबे के 94 लाख गरीब परिवारों को तोहफा, 2-2 लाख देगी सरकार’। खबर के अनुसार पश्चिम चंपारण में एनडीए कार्यकर्ता सम्मेलन में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने यह एलान किया। इसके अलावा उनके द्वारा कहा गया कि यदि उनकी सरकार बनी तो हर दो वर्षों में आर्थिक गणना कर गरीबों के जीवन स्तर को बेहतर बनाने का प्रयास किया जाएगा। उन्होंने यह भी कहा कि एनडीए सरकार ने 10 लाख युवाओं को नौकरी व 49 लाख नौजवानों को रोजगार दिया है। इसके अलावा मुख्यमंत्री ने आगे एक करोड़ नौकरी देने की बात कही। वहीं खबर के बीच एक छोटी-सी खबर का शीर्षक था– ‘पीएम 75 लाख महिलाओं को देंगे 10-10 हजार’।

जबकि 25 सितंबर, 2025 को ‘राष्ट्रीय सहारा’ ने पटना से प्रकाशित अपने अंक के पहले पन्ने पर पहली खबर का शीर्षक रखा है– ‘ईबीसी के लिए कानून बनाएंगे : राहुल गांधी’। पटना कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक पर केंद्रित इस खबर में जिस कानून को बनाए जाने की बात कही गई है, वह अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 की तर्ज पर अति पिछड़ा वर्ग के लिए कानून से संबंधित है। इसके साथ ही अखबार ने जिन बातों को महत्व दिया है, उनमें पंचायत व नगर निकायों में अति पिछड़ा वर्ग के आरक्षण को 20 से बढ़ाकर 30 प्रतिशत करना, 25 करोड़ तक के सरकारी ठेकों में 50 प्रतिशत आरक्षण, सरकारी नौकरियों में कोटे की 50 प्रतिशत की सीमा तोड़ने की बात शामिल है। इसके अलावा अखबार ने ‘लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा एसआईआर : कांग्रेस’ शीर्षक से भी खबर प्रकाशित किया है।

इन दो उदाहरणों से बिहार में चल रही राजनीतिक गतिविधियों की थाह ली जा सकती है। सत्ता पक्ष और विपक्ष की प्राथमिकताएं क्या हैं, इनसे जानी जा सकती है। रही बात नौकरियों की तो बिहार में यह मुद्दा तब बना जब 2020 के विधानसभा चुनाव में तेजस्वी यादव ने इसे मुद्दा बनाया। बाद में जब वे सरकार में शामिल हुए तब उन्होंने इसे मुख्यमंत्री की रजामंदी नहीं होने के बावजूद लागू कराया।

बताते चलें कि वर्ष 1993 में जब सूबे में लालू प्रसाद की सरकार थी, तब बिहार विधान मंडल द्वारा बिहार पंचायती राज अधिनियम, 1993 पारित किया गया। इसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षित किए जाएंगे। लेकिन इस अधिनियम को आरक्षण विरोधियों द्वारा चुनौती दी गई, जिस पर संज्ञान लेते हुए पटना हाई कोर्ट ने इस अधिनियम के अनुपालन पर रोक लगा दी। हाई कोर्ट के फैसले को तत्कालीन राज्य सरकार ने चुनौती दी। यह मामला 2001 तक चला और हाई कोर्ट के आदेश पर बिना ओबीसी आरक्षण के ही राज्य में पंचायत व नगर निकायों के चुनाव कराए गए।

बाद में जब नीतीश कुमार की सरकार बनी तब 18 जनवरी, 2006 को एक अध्यादेश के जरिए पिछड़ा वर्ग के नाम पर सिर्फ परिशिष्ट-1 की जातियों (अति पिछड़ा वर्ग) के लिए 20 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई। इसे दिसंबर, 2006 में अधिनियम का स्वरूप दिया गया। इंडिया गठबंधन द्वारा जारी अति पिछड़ा न्याय संकल्प में इसी 20 प्रतिशत आरक्षण को बढ़ा कर 30 प्रतिशत किए जाने की बात कही गई है।

गत 24 सितंबर, 2025 को पटना में अति पिछड़ा न्याय संकल्प जारी करते इंडिया गठबंधन के नेतागण

खैर, इंडिया गठबंधन द्वारा जारी अति पिछड़ा न्याय संकल्प के तहत की गई दस घोषणाओं में एक अहम यह भी है कि अतिपिछड़ा वर्ग की सूची में अल्प या अति समावेशन से संबंधित सभी मामलों को एक कमेटी बनाकर निष्पादित किया जाएगा। इसके अलावा भूमिहीनता से संबंधित यह घोषणा भी उल्लेखनीय है कि अति पिछड़ा, अनुसूचित जाति, जनजाति तथा पिछड़ा वर्ग के सभी आवासीय भूमिहीनों को शहरी तथा ग्रामीण क्षेत्रों में श्रेणीकृत 3 तथा 5 डिसमिल आवासीय भूमि उपलब्ध करायी जाएगी।

इस संकल्प पत्र को खास बनाने वाली एक घोषणा यह भी कि सभी प्रकार के आरक्षण की देख-रेख के लिए उच्च अधिकार प्राप्त आरक्षण नियामक प्राधिकार की स्थापना की जाएगी तथा विधान मंडल की अनुमति के बिना आरक्षण हेतु सूचीबद्ध जातियों की सूची में परिवर्तन नहीं किया जाएगा।

अब सवाल है कि बिहार के लोग आर्थिक लाभ और सामाजिक न्याय में से किसे महत्वपूर्ण मानते हैं? यह सवाल पूछने पर इंद्र कुमार सिंह चंदापुरी, जो अपने पिता रामलखन चंदापुरी के पिछड़ा वर्ग आंदोलन को चला रहे हैं, कहते हैं कि “बिहार के पिछड़ों और अति पिछड़ों को रिश्वत देने की कोशिश जा रही है। हमारे लोगों में गरीबी ज्यादा है। यही सोच कर साजिश के तहत सत्ता पक्ष के द्वारा यह चाल चली गई है। लेकिन ऐसा करके उनके वाजिब हक और अधिकार की लड़ाई को सौ साल पीछे किया जा रहा है। हालांकि सवाल राहुल गांधी पर भी उठता है कि अब उन्हें सामाजिक न्याय की बात क्यों याद आई है और इस बात की क्या गारंटी है कि यदि उनकी सरकार बनी तो वे सामाजिक न्याय को जमीन पर उतारेंगे ही।”

वहीं इस बारे में जदयू के प्रदेश सचिव व पिछले एक दशक से सामाजिक न्याय के लिए आंदोलन करने वाले इंजीनियर संतोष यादव का कहना है कि “राज्य सरकार द्वारा आर्थिक सशक्तिकरण के लिए की जा रही घोषणाएं सामाजिक न्याय का ही हिस्सा हैं। राज्य में हुए जातिवार सर्वेक्षण में यह पाया गया है कि 94 लाख परिवार गरीब हैं। इसलिए सरकार ने यह तय किया है कि प्रत्येक गरीब परिवार की एक महिला को दो लाख दस हजार रुपए तक की सहायता अगले दो सालों में दी जाएगी ताकि पूरा परिवार गरीब से अमीर हो सके।” यह पूछने पर कि जब तक महिलाओं का कौशल विकास नहीं किया जाएगा, उन्हें आवश्यक प्रशिक्षण नहीं दिए जाएंगे तब तक वे उद्यमी कैसे बनेंगी, इंजीनियर संतोष यादव ने कहा कि “दलित और अति पिछड़े समाज की महिलाओं को किस बात का प्रशिक्षण चाहिए? क्या उन्हें टोकरी बनाने, कपड़े सिलने या बकरी पालने का प्रशिक्षण देना पड़ेगा? अभी एक बात जो मीडिया मे चर्चा में नहीं है, वह यह कि सरकार महिलाओं के उत्पादों को भी खरीदेगी और उन्हें उनके उत्पादों के बदले वाजिब मूल्य देगी।”

वहीं, बिहार के वरिष्ठ पत्रकार और वर्तमान में मीडिया के अध्येता नलिन वर्मा कहते हैं कि “चुनाव पूर्व लोक-लुभावन वादों का एक सिलसिला चल पड़ा है। इस बार बिहार में भी किया जा रहा है। चूंकि मैं बिहार की जमीनी पत्रकारिता से लंबे समय से दूर हूं, इसलिए कोई अनुमान नहीं लगा सकता, लेकिन यह तो सभी ने देखा है कि बिहार की राजनीति के लिए सामाजिक न्याय कोई नया सवाल नहीं है। लालू प्रसाद के समय से यह सवाल मौजूं रहा है।”

(संपादन : अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, संस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

संबंधित आलेख

बिहार : एक चरण में मतदान नहीं कराने की साजिशें
बिहार में विधानसभा के चुनाव कराने का वक्त आ गया है। इस वक्त देश में कहीं और चुनाव नहीं कराने हैं। ऐसे में बिहार...
बिहार : भाजपा की नीतीश सरकार द्वारा ताबड़तोड़ घोषणाओं का निहितार्थ
घोषणाएं नीतीश कुमार के नाम से हो रही हैं। लेकिन वे कहीं सुनाई नहीं दे रहे हैं। वह सिर्फ दिखाई दे रहे हैं। बिहार...
ओबीसी और ईबीसी के लिए मुंगेरीलाल आयोग के सपनों की तासीर
नाई जाति के बारे में आयोग ने लिखा कि “इस जाति के पारंपरिक पेशे की अनिवार्यता सभी के लिए है। शहरों में आज सैलून...
झारखंड के कुड़मी इन कारणों से बनना चाहते हैं आदिवासी
जैसे ट्रेन के भरे डब्बे की अपेक्षा लोग अपेक्षाकृत खाली डब्बे में चढ़ना चाहते हैं, उसी तरह ओबीसी के तहत मिलने वाले आरक्षण में...
बिहार विधानसभा चुनाव और अति पिछड़ी जातियों की भूमिका
अति पिछड़ा वर्ग की सूची में समय-समय पर अनेक जातियों को जोड़ा गया। यहां तक कि लालू प्रसाद के कार्यकाल में भी जोड़ा गया।...