बिहार में विधानसभा चुनाव अब अपनी गति पकड़ रहा है। विभिन्न दलों द्वारा एक-दूसरे पर लगातार हमले किए जा रहे हैं। एक तरफ ‘वोटर अधिकार यात्रा’ के जरिए महागठबंधन ने चुनाव में एक गति ला दी है। दूसरी ओर प्रधानमंत्री ने भी बिहार जाने की आवृत्ति बढ़ा दी है।
चुनाव नजदीक देख मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 150 यूनिट बिजली बिल माफ करने, वृद्धा पेंशन की राशि बढ़ाने, महिलाओं के लिए मुख्यमंत्री महिला योजना आदि की घोषणा करके अपनी दावेदारी पेश कर दी है। दूसरी और राजद के नेता तेजस्वी यादव ने अपने उपमुख्यमंत्रित्व काल में दिए हुए नौकरियों को आधार बनाकर और आए दिन हो रही लूट-मार और हत्या की घटनाओं से मुक्ति दिलाने का वादा करते हुए अपनी दावेदारी पेश की है।
इन सबसे इतर बिहार की राजनीति में जातियां मुख्य केंद्र में रही हैं। मंडल युग के बाद इसमें अनेक विविधताएं देखने को मिली है। बिहार की हालिया राजनीति देखें तो पता चलता है कि ईबीसी जातियां यानी की अत्यंत पिछड़ा वर्ग, जिस पार्टी को वोट देता है, वही पार्टी सत्ता में आती है। ऐसा माना जाता है कि ये वही जातियां हैं, जो नीतीश कुमार की कोर वोटर मानी जाती हैं।
कौन हैं ईबीसी?
अत्यंत पिछड़ा वर्ग, जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि यह समाज बहुत ज्यादा पीछे छूटा हुआ है। यह वर्ग अन्य पिछड़ा वर्ग का ही एक भाग है, जो सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से अन्य पिछड़े वर्ग के खांचे में भी पीछे रह गया है। इन जातियों के पास ना तो पर्याप्त जमीन होती है और ना ही आर्थिक संसाधन। शिक्षा से लेकर राजनीतिक क्षेत्र में भी यह हाशिए पर खड़े मिलते हैं। ये हिंसा के भी शिकार होते हैं और इन्हें अनुसूचित जाति/ जनजाति एक्ट के जैसा कोई कानूनी सुरक्षा भी प्राप्त नहीं है। इस वर्ग में अनेक कारीगर जातियां जैसे बढ़ई, लोहार, कुम्हार तथा अनेक छोटे मोटे व्यवसाय करने वाली जातियां आती हैं। नदी से जुड़े कारोबार करने वाली निषाद, बिंद, मल्लाह आदि अधिकतर जातियां भी इसी वर्ग में आती है।
पत्रकार सुनील कश्यप के अनुसार “इन जातियों को हिकारत की निगाह से देखा जाता है तथा इनकी मुख्य लड़ाई ही सम्मान की है। इन जातियों को रोजमर्रा के जीवन में उच्च जातियों से तो संघर्ष करना ही पड़ता है, साथ ही साथ अन्य पिछड़ा वर्ग के प्रभुत्वशाली जातियों से भी लोहा लेना होता है। मंडल कमीशन को लागू करवाने में अहम भूमिका निभाने वाले और भारत सरकार के भूतपूर्व सचिव रहे पी.एस. कृष्णन ने अपनी पुस्तक ‘सोशल एक्सक्लूजन एंड जस्टिस इन इंडिया’ में भी पिछड़े समाज को अनेक भागों में बांटकर अति पिछड़ा समाज को सबसे ज्यादा प्रताड़ित बताया है।”
इसके अलावा अति पिछड़ा समाज के लिए राज्य स्तर पर जैसे उत्तर प्रदेश में राघवेंद्र कमेटी, सामाजिक न्याय समिति आदि के साथ-साथ केंद्र सरकार में रोहिणी कमीशन का गठन किया गया है। लेकिन उत्तर भारत में सबसे पहले मुंगेरी लाल कमीशन का गठन किया गया और उसकी संस्तुतियों को मानते हुए जननायक कर्पूरी ठाकुर ने 1978 में ही अति पिछड़ा को बिहार में अलग से आरक्षण दे दिया था। इतिहास गवाह है कि इस कमीशन की रिपोर्ट लागू करने के कारण कर्पूरी ठाकुर को अनेक प्रकार की गालियां दी गई और आज भी हमें ‘मुंगेरीलाल के हसीन सपने’ जैसा सामाजिक उलाहना देखने को मिल जाता है। अति पिछड़ा समाज के पहचान के लिए बनाई गई रोहिणी कमीशन की रिपोर्ट को अब तक सार्वजनिक नहीं की गई है जबकि इसका गठन 2 अक्टूबर, 2017 को की गई तथा इसे सबसे अधिक 14 बार विस्तार दिया गया। हालांकि इस कमीशन ने 31 जुलाई, 2023 को ही रिपोर्ट सरकार को समर्पित कर दिया है, लेकिन इसे आजतक सार्वजनिक नहीं किया गया है।

बिहार में अति पिछड़ा की राजनीति का इतिहास
बिहार में अति पिछड़ा समाज को राजनीतिक और सामाजिक पहचान दिलाने में जननायक कर्पूरी ठाकुर का सबसे बड़ा योगदान रहा है, जो कि खुद अति पिछड़ा समाज और नाई जाति से आते थे। अति पिछड़ा समाज की सामाजिक और राजनीतिक हिस्सेदारी में सबसे बड़ा बदलाव तब आया जब नीतीश कुमार ने पटना हाई कोर्ट के आदेश पर पंचायती चुनाव में पिछड़ा वर्ग का आरक्षण खत्म करके अति पिछड़ा वर्ग को आरक्षण दे दिया। इससे अति पिछड़ा समाज में अनेक नए नेताओं का जन्म होने लगा तथा राजनीति में अति पिछड़ा वर्ग की सहभागिता बढ़ने लगी।
आज अति पिछड़ा समाज से अनेक सांसद, विधायक और मंत्री देखने को मिलते हैं। इसकी सूची में समय-समय पर अनेक जातियों को जोड़ा गया। यहां तक कि लालू प्रसाद के कार्यकाल में भी जोड़ा गया। हालांकि इसमें पसमांदा जातियों की संख्या अधिक थी। बाद में नीतीश कुमार के कार्यकाल में कई जातियां इस सूची में जोड़ी गईं। 1 जुलाई, 2015 को जारी सरकारी अधिसूचना के जरिए जिन जातियों को जोड़ा गया, उसे लेकर अनेक संगठनों द्वारा काफी विरोध भी हुआ है। मसलन, राजद के विधान पार्षद रहे रामबली चंद्रवंशी ने तेली, तमोली और दांगी जाति को अधिक आर्थिक संपन्न होने के कारण इन्हें अति पिछड़ा वर्ग से बाहर करने के लिए अनेक बार आवाज उठाई और आंदोलन किया। दूसरी ओर तांती जाति जिसे उपरोक्त अधिसूचना के जारी होने के पहले अति पिछड़ा वर्ग में शामिल थी, को अनुसूचित जाति में शामिल कर लिया गया। लेकिन वर्ष 2024 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर नीतीश सरकार को इस जाति को वापस अति पिछड़ा वर्ग में वापस शामिल करना पड़ा।
बिहार विधानसभा चुनाव और अति पिछड़ी जातियां
वर्तमान बिहार विधानसभा चुनाव में भी ईबीसी जातियां, जिनकी आबादी हाल के जातिगत सर्वेक्षण में 36 प्रतिशत बताई गई है, को लुभाने के लिए अनेक पार्टियों द्वारा अनेक तरह के दांव खेले जा रहे हैं। राजद ने अपने पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी मंगनीलाल मंडल को दी है, जो कि अति पिछड़ा समुदाय की धानुक जाति से आते हैं। राजद टिकट वितरण में भी अति पिछड़ी जातियों को ज्यादा भागीदारी देने का वादा कर रही है।
कांग्रेस ने तो अलग से अति पिछड़ा विभाग ही बना दिया तथा शशिभूषण पंडित (कुम्हार) को अध्यक्ष इसका बनाया है, जो काफी सक्रिय दिख रहे हैं। इनके अलावा ‘वोटर अधिकार यात्रा’ के तुरंत बाद पार्टी ने जेएनयू के शोध छात्र कुणाल बिहारी के नेतृत्व में ‘ईबीसी न्याय यात्रा’ का भी आरंभ कर दिया है। वे इस यात्रा में जननायक कर्पूरी रथ के माध्यम से 40 दिनों में बिहार के सभी जिलों में घूम-घूम कर अति पिछड़ा समाज के मुद्दों को उठाएंगे तथा उन्हें कांग्रेस के पक्ष में गोलबंद करने का प्रयास करेंगे। इसके पहले राहुल गांधी का अनेक जातियों जैसे लोहार, बढ़ई, नाई आदि के नेताओं से मिलना भी इसकी पृष्ठभूमि में देखा जा सकता है।
भाजपा के पास बिहार में अनेक अति पिछड़ा समाज के नेता हैं। लेकिन उसका सबसे बड़ा चेहरा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का है, जो कि तेली जाति से आते हैं। इस जाति को नीतीश कुमार की सरकार द्वारा 2015 में अति पिछड़ा की सूची में शामिल कर लिया गया था। बताते चलें कि वर्ष 2020 में नीतीश कुमार के साथ सरकार बनाने के समय भाजपा ने रेणु देवी (नोनिया जाति) को उपमुख्यमंत्री बनाकर अति पिछड़ा समाज को एक बड़ा संदेश दिया था।
बिहार का हालिया सियासी इतिहास बताता है कि अति पिछड़ी जातियां जदयू का कोर वोटर रही हैं। यह इसके बावजूद कि पिछले विधानसभा चुनाव में राजद ने इस समुदाय के 19 उम्मीदवारों को टिकट दिया था। हालांकि जीत केवल 4 उम्मीदवारों को मिली थी। दूसरी ओर जदयू ने 17 अति पिछड़ों को अपना उम्मीदवार बनाया था, जिनमें से 12 ने जीत हासिल की थी।
बहरहाल, कहा जा सकता है कि अति पिछड़ी जातियों में पैदा हो रही सामाजिक और राजनीतिक चेतना के कारण ये जातियां अनेक पार्टियों में जगह तो बना पा रही हैं, लेकिन अभी भी इनके पास शक्तियों का आवंटन नहीं हो पाया है। बिहार की राजनीति में कर्पूरी ठाकुर के बाद इन जातियों का कोई भी महत्वपूर्ण नेता नहीं बन सका है। कुल मिलाकर यह कि बिहार में चुनाव परिणाम कुछ भी हो, लेकिन अति पिछड़ी जातियों की राजनीति में प्रासंगिकता और बढ़ेगी। इसका असर उत्तर प्रदेश और देश के अन्य भाग में भी देखने को मिलेगा।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)