कर्नाटक का कोलार क्षेत्र अपने ‘हीरो स्टोन्स’ के लिए जाना जाता है। ‘हीरो स्टोन्स’ उन नायकों की स्मृति में पत्थर से गढ़े जाते थे जो युद्ध के मैदान में या अपने लोगों की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त होते थे। कोलार के एक पत्थर कारीगर ने हाल में एक स्मारक बनाया – कोलार में नहीं, बल्कि वहां से करीब 300 किलोमीटर दूर गुन्द्लूपेट में। इस छोटे-से कस्बे में एक नायक जन्मा था। वह नायक एक बौद्धिक योद्धा था और उसका युद्धक्षेत्र था करीब 60 किलोमीटर दूर स्थित मैसूरू शहर। इस योद्धा ने लोगों के दिमागों को, फुले के शब्दों में, मनगढ़ंत झूठों के न दिखने वाले पिंजरे से मुक्त करने के लिए एक युद्ध लड़ा – उस पिंजरे से जो ब्राह्मणवादी ग्रंथों के ज़रिए एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित होता आया है।
प्रोफेसर बी.पी. महेश चंद्र गुरु (31 जनवरी 1957 – 17 अगस्त 2024) का जन्म पश्चिमी घाट की तलहटी में स्थित गुन्द्लूपेट के आंबेडकर सर्किल में अपनी नानी के घर एक दलित परिवार में हुआ था। जब वे किशोर थे तभी उनके रेवेन्यु इंस्पेक्टर पिता की मृत्यु हो गई। उसके बाद उनके नाना ने उनका पालन-पोषण किया। यहां यह बताना अन्यथा न होगा कि उनके दादा उन लोगों में से एक थे, जिन्होंने 14 अक्टूबर, 1956 को नागपुर में बाबासाहेब आंबेडकर के साथ बौद्ध धर्म अपनाया था। प्रोफेसर गुरु ने पत्रकारिता की शिक्षा हासिल की और कुछ समय तक एक समाचारपत्र में काम किया। केंद्र सरकार में कई पदों पर काम करने की बाद वे शिक्षण कार्य से जुड़ गए। उन्होंने पहले बैंगलोर विश्वविद्यालय में अध्यापन किया और फिर मंगलौर विश्वविद्यालय। अंततः वे मैसूर विश्वविद्यालय में पढ़ाने लगे, जहां से 2019 में वे मीडिया अध्ययन के प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हुए। पिछले साल 17 अगस्त, 2024 को दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया। मृत्यु के कुछ ही दिन पहले उन्हें एक अस्पताल से छुट्टी मिली थी।
जनसंचार प्रशिक्षक डॉ. दिलीप नर्सैय्या उनके विद्यार्थियों में से एक थे। दिलीप ने प्रोफेसर गुरु को पहली बार मैसूरू में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में देखा और सुना था। आगे चलकर दिलीप ने प्रोफेसर गुरु के मार्गदर्शन में एमफिल और पीएचडी की। प्रोफेसर गुरु का पढ़ाने का तरीका समग्र था। विश्वविद्यालय में वे किसी सेमिनार में रामायण के नायक राम की आलोचना का हवाला दे सकते थे या शहर में ‘महिषाना हब्बा’ के आयोजन पर चर्चा कर सकते थे। प्रोफेसर गुरु को राम पर उनकी टिप्पणियों के लिए गिरफ्तार भी किया गया था। सन् 1980 के दशक से लेकर अपनी मृत्यु के एक साल पहले तक वे हर साल दशहरा के दिन मैसूरू में ‘महिषाना हब्बा’ का आयोजन करते रहे।

मैसूरू शहर से कुछ दूरी पर चामुंडी हिल्स हैं। इस पहाड़ी के शीर्ष पर चामुंडी देवी का एक मंदिर है। वहां महिष की मूर्ति भी है। पौराणिक कथा के मुताबिक चामुंडी ने महिष – जो कि एक दानव था – का वध किया था। यह कहानी पात्रों के बदले हुए नामों के साथ लगभग वही है जो दुर्गा और महिषासुर की है। विद्वतजनों का मानना है कि इस कहानी को आर्यों / ब्राह्मणों ने इसलिए गढ़ा ताकि लोग महिष के समतावादी शासनकाल की यादें भुला दें और वे महिष की प्रजा पर राज कर सकें। वाडियार राजवंश, जिसका इस क्षेत्र में शासन था, के एक शुरुआती राजा ने इस शहर का नाम ‘महिषासुर नगर’ रखा था। बाद में इसे महिशुरू भी कहा गया। भला कौन राजा अपने शहर को एक दानव का नाम देगा? ऐतिहासिक स्रोतों पर आधारित अध्ययनों के आधार पर प्रोफेसर गुरु ने इस पौराणिक कथा को पलट दिया। उन्होंने बौद्ध राजा महिष को पुनर्प्रतिष्ठित करने के लिए एक आंदोलन शुरू किया, जिसने ‘महिषाना हब्बा’ का स्वरूप ले लिया। अतीत के समतावादी शासक का दानवीकरण एक तरह से उसकी प्रजा के वंशजों को कमज़ोर करता है, उन्हें यह संदेश देता है कि जाति प्रथा के अंतर्गत उनका जो शोषण किया जा रहा है, उन्हें उसे चुपचाप स्वीकार कर लेना चाहिए। दूसरी ओर, दानव करार दे दिए गए समतावादी राजा को एक भले मानुष के रूप में प्रस्तुत करने से उन लोगों को ताकत मिलती है, गरिमा मिलती है और वे उनके साथ हो रहे अन्याय पर प्रश्न उठाने में सक्षम बनते हैं।
दिलीप कहते हैं कि मैसूरू अपने इस साहसी और ज्ञानी बुद्धिजीवी नागरिक को भुला नहीं पाएगा। प्रोफेसर गुरु के बिना उनका आंदोलन वह नहीं रह जाएगा, जो पहले था। उनकी मृत्यु के कुछ ही महीने बाद आयोजित 2024 के ‘महिषाना हब्बा’ में उनकी कमी शिद्दत से महसूस की गई।
बैंगलोर के एक निजी विश्वविद्यालय में व्याख्याता डॉ. गौतम देवनूर, मैसूर विश्वविद्यालय में दिलीप से तीन साल पीछे थे, बताते हैं कि प्रोफेसर गुरु तार्किकता से कभी समझौता नहीं करते थे। उनके इस गुण, और न्याय के प्रति उनकी असाधारण प्रतिबद्धता ने गौतम पर गहरी छाप छोड़ी। वे जहां कहीं भी किसी भी प्रकार के अन्याय को देखते – चाहे विश्वविद्यालय कैंपस के भीतर या उसके बाहर – उसके खिलाफ झट खड़े हो जाते। प्रोफेसर गुरु एक प्रखर वक्ता थे। उनकी वक्तृत्व कला ने ‘महिषाना हब्बा’ को एक नया आयाम दिया और दक्षिणपंथी सरकार के हमलों के बावजूद इसका आयोजन जारी रहा। यहां तक कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 लागू करने से भी कोई फर्क नहीं पड़ा।

प्रोफेसर गुरु की पत्नी सी. हेमावती, मैसूरू के एक कॉलेज में वनस्पतिशास्त्र की प्रोफेसर हैं। प्रोफेसर हेमावती और प्रोफेसर गुरु के विद्यार्थियों ने साथ बैठकर उनके स्मारक की योजना बनाई। उन्होंने तय किया कि उसकी डिजाइन मुंबई के दादर में स्थित आंबेडकर की चैत्यभूमि पर आधारित होगी। चैत्यभूमि की डिजाइन मध्य प्रदेश के सांची में स्थित स्तूप – जिसे सम्राट अशोक ने बनवाया था – पर आधारित है।
कोलार के पत्थर कारीगरों से संपर्क किया गया। पत्थरों को तराशने में कुछ महीने लगे। फिर उन्हें प्रोफेसर गुरु के परिवार की गुन्द्लूपेट स्थित ज़मीन पर लाकर स्मारक खड़ा किया गया। इसी ज़मीन में डॉ. गुरु दफन हैं। भूमि का यह टुकड़ा कस्बे से करीब तीन किलोमीटर दूर, ऊटी जाने वाली सड़क पर है। स्मारक को खड़ा करने में करीब एक हफ्ता लगा। इस पूरे काम में 9.80 लाख रुपए खर्च हुए। स्मारक का प्रवेशद्वार, सांची स्तूप के सिंहद्वार की प्रतिकृति है। वहां से शुरू हुए पथ पर थोड़ा आगे बढ़ने पर एक शिलालेख है, जिस पर अंग्रेजी और कन्नड़ में प्रोफेसर गुरु की संक्षिप्त जीवनगाथा उत्कीर्ण है। अंत में बाईं ओर स्तूप की शक्ल का मकबरा है। सांची द्वार की प्रतिकृति से थोड़ा आगे बाईं तरफ तीन शिलाएं हैं जो प्रोफेसर गुरु की मां और उनके नाना-नानी की स्मृति में लगाई गईं हैं। वे तीनों भी उसी भूमि में दफन हैं। प्रोफेसर गुरु के पिता, जिनकी मृत्यु जल्दी हो गई थी, को उनके गांव में दफनाया गया था, जो कि नज़दीक में ही है। स्मारक और उसके पथ का निर्माण सफ़ेद सदरहल्ली पत्थर से किया गया है। जिस दो एकड़ भूमि पर स्मारक बनाया गया है उसे जल्दी ही आम जनता के लिए खोल दिया जाएगा। वह स्थान धम्म और शैक्षणिक कार्यक्रमों के लिए भी उपलब्ध करवाया जाएगा।

प्रोफेसर गुरु के परिजनों, मित्रों, विद्यार्थियों और सहकर्मियों की मौजूदगी और बौद्ध भिक्षुकों के नेतृत्व में आयोजित प्रार्थना सभा में गत 17 अगस्त, 2025 को स्मारक को लोकार्पित किया गया। विद्यार्थियों ने अपने अध्यापक, मार्गदर्शक और पिता समान प्रोफेसर गुरु के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हुए मकबरे को बड़े सुरुचिपूर्ण ढंग से फूलों से सजाया था। गायकों के एक समूह ने बुद्ध, बासवन्ना और आंबेडकर की प्रशस्ति में गीत प्रस्तुत किए। कार्यक्रम के बाद मांसाहारी भोजन हुआ, जिसमें चिकन बिरयानी, मटन करी, उबले हुए अंडे और रायता शामिल था। मीठे में खीर का प्रबंध था।
बुद्ध, बासवन्ना, पेरियार, आंबेडकर और कुवेम्पु प्रोफेसर गुरु के नायक थे। उन्होंने उनकी विरासत को आगे बढ़ाया और अब वे उसे नई पीढ़ी को सौंप गए हैं।
(मूल अंग्रेजी से अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन/नवल)
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