आखिर क्यों दलितों का नेता भाजपा को पसंद नहीं? या वह अपने दक्षिण टोले के लिए दलित नेता चाहती है?
भाजपा नेताओं में डॉ. आंबेडकर के नाम से चिढ़ के कई उदाहरण सामने आए हैं। संसद में अमित शाह ने पहले इस चिढ़ का उदाहरण पेश किया तो पिछले दिनों केंद्रीय मंत्री मनोहर लाल खट्टर ने कहा कि डॉ. आंबेडकर को जबरदस्ती संविधान बनाने का श्रेय दिया जाता है। भाजपा की यह चिढ़ दलितों के नेताओं को ही लेकर है। भाजपा के नेता यह कहते हैं कि उन्हें दलित नेता तो चाहिए लेकिन दलितों के नेता नहीं चाहिए। हर वह दलित का नेता भाजपा के निशाने पर होता है जो महज दलित नेता की टाइटल नहीं लेना चाहता है। डॉ. आंबेडकर को संविधान बनाने का श्रेय देने के खिलाफ अभियान इसी सिलसिले की एक कड़ी है।
भारतीय गणराज्य का संविधान डॉ. आंबेडकर के नेतृत्व में बना है। संविधान के शिल्पकार के रूप में डॉ. आंबेडकर को स्वीकार करने का सच भावनात्मक नहीं है। संविधान सभा की बैठक में जिन लोगों की संविधान बनाने में जैसी भूमिका थी, उसका उल्लेख पढ़ने को मिलता है। उसे सुनने और देखने की सुविधा भी तकनीक ने बना दी है। डॉ. आंबेडकर ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष थे। ‘ड्राफ्टिंग’ अंग्रेजी का शब्द है। हिंदी में इसका अनुवाद है– दस्तावेज का ढांचा तैयार करना।
इस ऐतिहासिक सच के खिलाफ एक नया अभियान चलाया जा रहा है। यह कोई पहला प्रयास नहीं है। दक्षिणपंथ की विचारधारा का इतिहास डॉ. आंबेडकर को अस्वीकार करने का रहा है। दक्षिणपंथ की विचारधारा की अगुवाई भारतीय गणराज्य में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) करता है। आरएसएस संविधान का शुरू से विरोधी रहा है और डॉ. आंबेडकर को भी पसंद नहीं करता रहा है। हालांकि अब वह अपने मुख्यालय पर तिरंगा झंडा भी लगाता है और डॉ. आंबेडकर का नाम भी लेता है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि संविधान का विरोध और डॉ. आंबेडकर की नापसंदगी वैचारिक रूप से समाप्त हो गई है।
दक्षिणपंथी खेमे से नया अभियान यह चलाया जा रहा है कि डॉ. आंबेडकर संविधान के निर्माता नहीं है। बेनेगल नरसिंह राव का नाम संविधान बनाने के संदर्भ में नेतृत्वकर्ता के रूप में लिया जा रहा है। संविधान सभा की बैठक में मौजूदा संविधान के ढांचे को प्रस्तुत करते वक्त राव ने स्वयं कहा है कि संविधान बनाने में उनकी क्या भूमिका रही है और डॉ. आंबेडकर के नेतृत्व ने किस तरह इसे अंजाम दिया है। डॉ. आंबेडकर ने भी बेनेगल नरसिंह राव की भूमिका के बारे में कहा है कि उनके बिना संविधान का काम पूरा नहीं हो सकता था। यह उस जमाने की भाषा है जिसमे एक-दूसरे की भूमिका के सम्मान का यह तरीका था। मोटे तौर पर इसे इस तरह से समझा जा सकता है कि जैसे संसद में जो विधेयक प्रस्तुत किए जाते हैं, उसकी एक ड्राफ्टिंग का ढांचा नौकरशाह तैयार करता है। यह एक लंबी प्रक्रिया होती है। उस ड्राफ्टिंग से पहले नौकरशाही को एक सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक मांग के अनुरूप विधेयक के महत्व का प्रारूप प्रस्तुत किया जाता है। नौकरशाही के जरिए तैयार विधेयक के ढांचे को राजनीतिक और सामाजिक दस्तावेज के रूप में आखिरकार राजनीतिक नेतृत्व तैयार करता है।
डॉ. आंबेडकर को संविधान बनाने का नेतृत्व सौंपना एक राजनीतिक फैसला था। महात्मा गांधी की इसमें अहम भूमिका थी। संविधान भारतीय गणराज्य का एक राजनीतिक दस्तावेज है। उसकी पहचान ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्ति और भारतीय समाज में समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे से जुड़ी है। दक्षिणपंथी विचारधारा में समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे का नजरिया नहीं होता है।

आखिर क्यों आरएसएस को डॉ. आंबेडकर को संविधान निर्माता के रूप में स्वीकार करने में परेशानी महसूस होती है? वह क्या कारण है कि जब डॉ. आंबेडकर को संविधान निर्माता कहा जाता है तो दक्षिणपंथ को चोट महसूस होती है?
एक सच्ची घटना का यहां उल्लेख करना जरूरी लगता है। जब 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में पहली बार दक्षिणपंथी विचारों को मानने वाली पार्टी को केंद्र में सरकार चलाने के लिए संसद में संख्या पूरी हुई थी तब उस मंत्रिमंडल में एक शिक्षित दलित सांसद को जगह दी गई थी। दलित पृष्ठभूमि के सांसद की राजनीतिक पृष्ठभूमि यह थी कि वे दलितों के बीच में उनकी दशा-दिशा बेहतर करने की गतिविधियों में सीधे तौर पर जुड़े थे। लेकिन संसद सदस्य बनने की व्यक्तिगत महत्वकांक्षा उन्हें भारतीय जनता पार्टी की तरफ ले आई थी। उन्हें यह लगा कि वे भाजपा की सरकार में शामिल होकर दलितों का ज्यादा भला कर देंगे। दलित कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने और उत्साहित करने में सक्रिय हो गए। चंद दिनों बाद ही उनके पास उनके वरिष्ठ मंत्री का बुलावा आ गया। उस वरिष्ठ मंत्री ने दलित मंत्री को समझाया और चेतावनी दी कि उनकी पार्टी में दलित नेता तो ठीक है लेकिन दलितों का नेता उन्हें स्वीकार्य नहीं हो सकता है। वे चाहे तो दलित नेता के रूप में पार्टी और सरकार में बने रह सकते हैं।
उस घटना के बाद उन्हें यह समझ में आया कि दलित नेता और दलितों के नेता के रूप में बुनियादी फर्क है। वे अपने राजनीतिक जीवन में यह प्रयास करते रहे कि उन्हें किसी ऐसे लोकसभा क्षेत्र से पार्टी की तरफ से उम्मीदवार बनाया जाए जो असुरक्षित यानी सामान्य़ सीट मानी जाती है।
इस घटना से डॉ. आंबेडकर को संविधान निर्माता मानने में परेशानी को समझने में मदद मिलती है। जब उन्हें संविधान निर्माता कहा जाता है तो दलित यानी वंचित वर्गों के बीच किस तरह का भाव बनता है। उसके भीतर कितना उत्साह और आत्मबल भरता है। एक संचारविद् होकर यह विश्लेषण करें कि किसी एक संदेश का कितना गहरा असर किसी पर पड़ता है। संचार एक राजनीतिक कर्म है। इस बात को सबसे ज्यादा दक्षिणपंथी विचारधारा के लोग इस लिहाज से महसूस करते हैं क्योंकि भारतीय समाज में संचार के जरिए ही स्वयं का विस्तार करने में उन्हें सबसे ज्यादा कामयाबी मिलती दिखती है।
डॉ. आंबेडकर को संविधान निर्माता का दावा करते वक्त किसी वंचित तबके की तरफ देखें कि वह एक आत्मविश्वास से भरा होता है। वह एक खास तरह की ऊर्जा व ताकत को महसूस करता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि संविधान निर्माता के रूप में उन्हें याद कर वह महसूस करता है कि उसने अपने अधिकार व हक-हकूक को स्वयं हासिल किया है। खासकर यह दलितों की राजनीतिक चेतना को एक ठोस और मजबूत आधार प्रदान करता है। दलित अपने को डॉ. आंबेडकर के साथ एकरूप करते हैं।
दूसरा सवाल कि इस संविधान से जुड़ी सच्चाई को दूसरी तरफ मोड़ने का क्या कारण हो सकता है? पहली बात कि यदि डॉ. आंबेडकर दलित पृष्ठभूमि से नहीं होते तो भाजपा के नेताओं को इस तरह के किसी भी अभियान को चलाने की जरूरत नहीं होती। दरअसल, किसी अभियान से सच की जगह आस्था को स्थापित करने में दक्षिणपंथ की विचारधारा को सहूलियत लगती है, क्योंकि वह सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक स्तर पर वर्चस्व रखने वालों को किसी भी सच के खिलाफ संगठित कर सकता है। वैसे भी वर्चस्ववादियों को लगता है कि उग्रता और आक्रमण करना उनका हक है।
दरअसल किसी दूसरे नाम को संविधान निर्माता के शीर्षक में डालने का मकसद उस भाव को रौंदना है जिसमें हक-हकूक को स्वयं हासिल करने का बोध तैयार होता है। दक्षिणपंथी विचारधारा या कहें कि वर्चस्ववाद की विचारधारा का यह मकसद वंचितों को यह एहसास कराना है कि उन्हें जो भी अधिकार मिले हैं, वह उनके लिए बहाल किए गए हैं। जैसे दक्षिणपंथी विचारधारा के लोग दान-पुण्य देने को सबसे बड़ा उपकार मानते हैं। वे अधिकार देने के भाव को भी दान-पुण्य के रूप में ही देखते हैं। जबकि संविधान अधिकार हासिल करने की चेतना पैदा करता है।
दलित नेता और दलितों के नेता में जिस तरह से बुनियादी राजनीतिक फर्क है उसी तरह से अधिकार हासिल करने की चेतना और अधिकार बहाल करने के नजरिए में फर्क है।
(संपादन : नवल/अनिल)
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