झारखंड का सारंडा जंगल अब अभयारण्य में बदलने वाला है। अभयारण्य का मतलब जंगल का वह क्षेत्र जहां जंगली जानवर सुरक्षित रह सकते हैं। लेकिन इस क्षेत्र के आदिवासी इसका विरोध कर रहे हैं। राज्य सरकार के द्वारा वन क्षेत्र को अभयारण्य में बदलने की अनुमति देने और इस विषय में सर्वोच्च न्यायालय का ठोस आदेश आने के बावजूद भी इस क्षेत्र की जनता आसानी से हार नहीं मानने वाली है। लेकिन वे कब तक इसका विरोध कर सकेंगे, यह कहा नहीं जा सकता। असल में अपने अधिवास से उजड़ना आदिवासी समाज की नियति बन चुकी है। कभी आदिवासी भी समतल क्षेत्र में रहते थे, लेकिन अब वे वहां नहीं दिखते। यदि हैं भी तो उनका रूप, रंग, सांस्कृतिक पहचान खो चुकी है। वे हिंदू धर्म में समाहित हो चुके हैं। अब उनका अधिवास पहाड़ और जंगलों से घिरे पठारी क्षेत्र ही हैं। लेकिन औद्योगिक क्रांति और खनिजों की महत्ता बढ़ने के साथ वहां से भी उन्हें खदेड़ा जाने लगा है।
बड़े-बड़े डैम, जैव विविधता और वन्य जीवों को बचाने के नाम पर तरह-तरह के प्रोजेक्ट, अभयारण्य, राष्ट्रीय पार्क आदि देश में बन रहे हैं। आईएसआई, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित ‘डेवेलपमेंट, डिसप्लेसमेंट एंड रिहैविलिटेशन’ रिपोर्ट के अनुसार अमूमन छह लाख आदिवासी इन सबके कारण विस्थापित हो चुके हैं। बमुश्किल डेढ़ लाख के करीब आदिवासियों का पुनर्वास हुआ। शेष भटक रहे हैं। विडंबना यह कि उनके बीच से उभरा राजनीतिक नेतृत्व भी अक्सर इस काम में मददगार हो जाता है।
इस बार प्रचंड बहुमत से सत्ता में आने के बाद हेमंत सरकार का तो विशेष जोर ही बन गया है झारखंड में पर्यटन को बढ़ावा देना। वह ‘माइनिंग टूरिज्म’ शुरू करने वाली है। टाइगर प्रोजेक्ट पर काम हो रहा है। पर्यटक वन्य जीवों को देख सकेंगे। पर्यटन स्थलों पर आलीशान होटल, बार आदि खोलने की उनकी योजना है, ताकि पर्यटक यहां का नैसर्गिक-अछूते सौंदर्य को सुविधापूर्वक देख सकें।
कोल्हान क्षेत्र में अवस्थित सारंडा क्षेत्र साल के पेड़ों का विश्व विख्यात जंगल है। लगभग सात सौ छोटे-बड़े पहाड़ियों वाला यह क्षेत्र 820 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। कारो और कोईना यहां की बारहमासी नदियां हैं। यह ‘हो’ आदिवासियों का सदियों से चला आ रहा अधिवास है, जो इनके लिए पुरखातुल्य आकाश छूते साल पेड़ों वाले इलाके में बसे हुए हैं। अंग्रेजों ने भी उन्हें परेशान करने की कोशिश नहीं की। रेवेन्यू विलेज से अलग उनके गांवों को फारेस्ट विलेज की संज्ञा दी और उन्हें अपने तरीके से जीवन-यापन करने की आजादी दी। अंग्रेज उन्हें ‘लड़ाका कोल’ कहा करते थे।

इस इलाके के करीबन 40 फीसदी क्षेत्र में 1100 हेक्टेयर साल वृक्ष के जंगल थे। लेकिन उनका दुर्भाग्य है कि इसी इलाके में लौह अयस्क की बड़ी-बड़ी खदाने हैं। गुवा, चिरिया, किरीबुरु, नोवामुंडा आदि बेहतरीन लौह अयस्क के क्षेत्र हैं। अब देश को तो लोहा चाहिए, इसलिए सार्वजनिक क्षेत्र के स्टील ऑथोरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (सेल) का मुख्य खनन क्षेत्र तो यहां कई दशकों से है, लेकिन उसके समानांतर अवैध खनन यहां का असाध्य रोग बन चुका है। आदिवासी भी इनमें निम्न कोटि का रोजगार पाते हैं, इसलिए वे भी माफिया गिरोहों का विरोध नहीं करते।
इस क्षेत्र का दौरा करेंगे तो अवैध लौह अयस्क से लदे ट्रकों को चींटियों की तरह रेंगते और इस इलाके से बाहर निकलते आप देख सकेंगे। इन गतिविधियों के कारण आधे से अधिक जंगल नष्ट हो चुके हैं।
तो, इसको अभयारण्य बनाने की बात से कुछ लोग प्रसन्न भी हैं। उन्हें लगता है कि इससे अवैध खनन पर रोक लगेगी। देश के पर्यावरण मंत्रालय को अधिकार है कि वह यह तय करे कि कहां नेशनल पार्क व अभयारण्य आदि बने। वाइल्ड लाइफ एक्ट के दायरे में वह अपने अधिकार का उपयोग करता है। उसने यहां कुछ वर्ष पूर्व अभयारण्य बनाने का निर्णय लिया और राज्य सरकार से इसकी सिफारिश की गई, क्योंकि राज्य सरकार की अनुमति भी चाहिए। लेकिन हेमंत सरकार इस सिफारिश को टालती रही। काश! इसकी वजह यह होती कि उन्हें आदिवासियों की चिंता है। आरोप यह लगाया गया सुप्रीम कोर्ट में कि राज्य सरकार अवैध माइनिंग चलाते रहना चाहती है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इसी माह राज्य सरकार को एक सप्ताह के भीतर इस बारे में निर्णय लेने के लिए कहा है। अदालत की अवमानना के डर से हेमंत सरकार ने मंत्रिमंडल में इस आशय का फैसला लिया और गत 17 अक्टूबर को अदालत के समक्ष कहा कि वह सारंडा के 250 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र को अभयारण्य घोषित करने के लिए तैयार है। पूर्व में सरकार ने 350 वर्ग किमी क्षेत्र को अधिसूचित करने की बात कही थी, लेकिन इस बार 250 वर्ग किलोमीटर अधिसूचित करने और 60 वर्ग किलोमीटर को अभयारण्य क्षेत्र से बाहर रखने की बात कही और कारण यह बताया कि उस क्षेत्र में आदिवासी घने रूप में बसे हुए हैं।
साथ ही, कोर्ट ने अभयारण्य के भीतर सेल के कैप्टिव माइंस को चालू रखने की अनुमति दे रखी है। उसका यह भी कहना है कि इस अभयारण्य का स्वरूप देश के अन्य नेशनल पार्कों से अलग है। यह इस रूप में कि यहां आदिवासी रह सकेंगे और उनके अधिकार भी सुरक्षित रहेगें। एक बार कोर्ट में हेमंत सरकार पर फिर यह आरोप लगाया गया कि 60 वर्ग किलोमीटर सरकार अवैध खनन चलाने के लिए बाहर रखना चाहती है, जबकि राज्य सरकार के वकील कपिल सिब्बल ने इस आरोप को गलत बताया। कोर्ट ने अगली सुनवाई के लिए 27 अक्टूबर की तारीख रखी है।
बात समझने की यह है कि अभयारण्य बनाया किसलिए जा रहा है? वनों को या वन्य जीवों को खतरा किससे है? आदिवासी वन्य जीवों के साथ हमेशा से रहते आए हैं। जंगल का विनाश कौन कर रहा है? आदिवासी समाज हमेशा से लौह अयस्क से लोहा बनाने की कला जानता है और अपनी जरूरत का लोहा बनाता भी रहा है। हां, वह यह नहीं जानता कि धरती के भीतर छुपे लौह अयस्क या अन्य बेशकीमती पत्थरों का व्यापार भी किया जा सकता है। वैध और अवैध दोनों तरह के खनन सरकार और सत्ता में बैठे लोगों की मदद से ही होता है। पहले सरकार ने कानून बना रखा था कि कोयला हो या अन्य किसी भी तरह के अयस्कों का खनन वही कंपनियां कर सकेगी जो उन अयस्कों का इस्तेमाल करती हैं। अब कानून में संशोधन कर उन्हें भी खनन की अनुमति दे दी गई है जो उनका इस्तेमाल खुद नहीं करते। यानि, वे लौह अयस्क हो या कोयला, उसकी निकासी कर उसे बेच सकती हैं।
कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं को संदेह यह भी है कि अभयारण्य बन जाने के बाद भी अवैध खनन तो जारी रहेगी ही, किसी बहाने कारपोरेट को खनन की अनुमति दे दी जाएगी, जैसा कि छत्तीसगढ़ में हसदेव के जंगलों के साथ हुआ। और एक बार अभयारण्य बन जाने के बाद आदिवासियों के अधिकारों की कटौती भी होगी।
अभी हाल में अबरख के खदानों के लिए विख्यात कोडरमा से जुड़ी एक खबर आई है। वहां कोडरमा शहर से महज 12-15 किमी दूर बिरहोर आदिवासियों के गांव में दिवाली के दिन बिजली पहुंची। यानि, आजादी के 70 वर्ष बाद एक आदिवासी गांव रौशन हुआ। बिजली पहुंचने में बिलंब की वजह यह बताई गई कि उस गांव के करीब एक अभयारण्य है। बिजली के खंभे उधर से ही आने थे और इसकी अनुमति नहीं दी जा रही थी। देश भर में बाघ, हाथी, घड़ियाल अभयारण्य या फिर नैशनल पार्क आदि आदिवासियों को विस्थापित करके ही तो बने हैं। और तो और गुजरात में सरदार पटेल की विशाल मूर्ति और उसके आसपास के इलाके को विकसित करने के लिए आदिवासियों को विस्थापित किया गया।
झारखंड जैसे छोटे प्रदेश में दर्जनों अभयारण्य हैं। मसलन, दलमा में हाथियों के लिए अभयारण्य और बेतला में नेशनल पार्क। और इसके अलावा जादूगोड़ा में यूरेनियम का खदान है। फायरिंग रेंज के खिलाफ नेतरहाट में लंबा संघर्ष चला। वह किसी तरह रुका तो अब उस इलाके में टाइगर प्रोजेक्ट लाने की योजना है।
इस तरह के अभयारण्य सामान्यतः ‘मनुष्य व वन्य जीवों के बीच के संघर्ष’ की जरूरत बताए जाते हैं, लेकिन गौर से देखेंगे तो यह ‘मनुष्य व मनुष्य के बीच के संघर्ष’ का नतीजा प्रतीत होता है। गैर-आदिवासी दुनिया, तथाकथित विकास के लिए आदिवासियों से कुर्बानी मांगती हैं। उन्हें विकास का खाद बनने की उदात्त भावना दिखाने के लिए कहती हैं। देश और दुनियां का पर्यावरण बचाने की जिम्मेदारी उन आदिवासियों के कंधे पर डाल दी गई है, जिनका प्रदूषण फैलाने में रत्ती भर योगदान नहीं।
(संपादन : नवल/अनिल)
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