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जानिए क्यों बिहार में कामयाब नहीं हो पाई है बसपा?

पिछले तीन दशकों में बसपा बिहार में दलितों के लिए आरक्षित सीटों पर केवल तीन ही कामयाबी मिली। एक सीट पर दो बार और एक दूसरे सीट पर एक ही बार। जबकि पूरे राज्य में दलितों के लिए आरक्षित सीटों की संख्या वर्तमान में 38 सीटें हैं और सन् 2000 के पहले अविभाजित बिहार में यह संख्या 48 थी। पढ़ें, यह रिपोर्ट

बिहार की सियासत में दलितों की भूमिका निर्णायक मानी जाती है। इसकी वजह उनकी संख्या है। वर्ष 2023 में बिहार सरकार द्वारा जारी जाति सर्वेक्षण रिपोर्ट कहती है कि उत्तर भारत में राजनीति की प्रयोगशाला रूपी तमगा पहननेवाले इस प्रांत में दलितों यानी अनुसूचित जातियों के लोगों की कुल आबादी 19.65 प्रतिशत है। यदि संख्या के हिसाब से देखें तो यह आंकड़ा कुल 2 करोड़ 56 लाख 89 हजार 820 है। यह इतना बड़ा आंकड़ा है कि स्वत: ही चुनावी राजनीति के हिसाब से महत्वपूर्ण कारक के रूप में स्थापित हो जाना चाहिए। लेकिन यह आंकड़ा आज तक बिहार में अपने लिए कोई निश्चित स्थान नहीं बना पाया है। यहां तक कि बहुजन समाज पार्टी भी राज्य में दलितों को एकजुट करने में नाकाम रही है।

बसपा का गठन 14 अप्रैल, 1984 को किया गया था। लेकिन बिहार में इसकी उपस्थिति 1990 के विधानसभा चुनाव में नजर आई। यह वह साल था जब लालू प्रसाद बिहार की सत्ता के शीर्ष पर पहुंचे। इस साल हुए विधानसभा चुनाव से पहले कांशीराम उत्तर प्रदेश और पंजाब में किए अपने राजनीतिक हस्तक्षेपों से उत्साहित थे और उन्हें यकीन था कि बिहार जैसे प्रदेश में उनका हस्तक्षेप प्रभावी साबित होगा। लेकिन आरंभ उनकी अपेक्षा के हिसाब से नहीं हो सका।

दरअसल हुआ यह कि 1990 में हुए चुनाव में बसपा राज्य के कुल 324 सीटों में से 164 सीटों पर चुनाव लड़ी। यह पहला अवसर था जब किसी राजनीतिक दल ने बिहार में ‘दलित’ पहचान के साथ मोर्चा थामा। हालांकि बसपा के 162 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। मतों की बात करें तो पहले प्रयास में बसपा को 0.73 प्रतिशत मत मिले। लेकिन महत्वपूर्ण यह कि नवादा जिले के हिसुआ विधानसभा क्षेत्र से रामानंद यादव को 9454 मत मिले थे और वे तीसरे स्थान पर रहे थे।

बताते चलें कि बिहार का विभाजन वर्ष 2000 में हुआ। इसके पहले राज्य में कुल सीटें 324 थीं, जिनमें 247 सामान्य सीटें थीं। जबकि 49 अनुसूचित जाति और 28 अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित थीं।

पहले प्रयास में असफलता के बावजूद बसपा ने हार नहीं मानी। जब 1995 में विधानसभा के चुनाव हुए तब स्थितियां बदल चुकी थीं। लालू प्रसाद का सामाजिक न्याय पूरे बिहार में जोर पकड़ चुका था। कांशीराम और लालू प्रसाद के बीच संवादों का सिलसिला प्रारंभ हो चुका था। इसका असर रहा कि 1995 के चुनाव में पहली बार बसपा ने जीत का स्वाद चखा। वह 161 सीटों पर लड़ी। हालांकि 158 सीटों पर उसके उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई, लेकिन उसके 2 उम्मीदवार जीते। बसपा का मत प्रतिशत भी 0.73 प्रतिशत से बढ़कर 1.34 प्रतिशत हो गया। सबसे खास यह कि यूपी-बिहार की सीमा पर अवस्थित चैनपुर से महाबली सिंह और मोहनिया (अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित) सीट से सुरेश पासी जीते।

बसपा प्रमुख मायावती

वर्ष 1995 के विधानसभा चुनाव को इसलिए भी खास माना जाता है, क्योंकि 1977 के बाद वह 1995 का चुनाव था, जिसमें गैर-कांग्रेसी दल ने अपने लिए बहुमत हासिल किया था। इस चुनाव में लालू के नेतृत्व में जनता दल ने 264 सीटों पर लड़ कर 167 सीटों पर जीत हासिल की। सनद रहे कि आपातकाल खत्म होने के बाद 1977 में हुए विधानसभा चुनाव में जनता पार्टी को 214 सीटों पर जीत मिल थी।

लेकिन वर्ष 2000 से लालू का प्रभाव कम होने लगा था। हालांकि बसपा के लिए पिछले तीन दशकों में यह सबसे बेहतर चुनाव था जब उसके पांच उम्मीदवार जीते थे। इस चुनाव में उसने 249 सीटों पर अपने उम्मीदवारों को खड़ा किया। हालांकि 241 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। लेकिन चैनपुर से महाबली सिंह, मोहनिया (अनुसूचित जाति) से सुरेश पासी, राजपुर (अनुसूचित जाति) से छेदी लाल राम, फारबिसगंज से जाकिर हुसैन खान, और धनहा से राजेश सिंह विजयी रहे। इस चुनाव में राजद 293 पर लड़ी और उसके 124 उम्मीदवार जीते। नीतीश कुमार की समता पार्टी को भी अपेक्षाकृत अच्छी सफलता हाथ लगी। हालांकि इसके लिए उन्हें भाजपा से हाथ मिलाना पड़ा था। समता पार्टी तब 120 सीटों पर लड़ी थी और उसके 34 उम्मीदवार जीते थे। जबकि भाजपा 168 पर लड़ी, 67 सीटों पर जीती।

फरवरी, 2005 में हुए चुनाव में बसपा को हालांकि सीटों की संख्या के लिहाज से कमी आई। इस बार बसपा 238 पर लड़ी और उसके 2 उम्मीदवार जीतने में कामयाब रहे। लेकिन खास बात यह रही कि इस चुनाव में उसे कुल 4.41 प्रतिशत मत मिले थे। यह बसपा को मिले सबसे अधिक वोट थे। इस चुनाव में बसपा के जीतने वालों में गोपालगंज से रेयाजुल हक उर्फ राजू, कटैया से अमरेंद्र कुमार पांडे रहे। खास यह भी कि इस बार बसपा को अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित किसी भी सीट पर जीत नहीं मिली। वहीं दूसरे दलों की बात करें तो इस चुनाव में राजद को 75, जदयू को 55 और भाजपा को 37, लोजपा को 29 और कांग्रेस को 10 सीटें मिलीं।

चूंकि इस चुनाव में किसी भी गठबंधन को आवश्यक बहुमत नहीं मिला था, और लोजपा के नेता रामविलास पासवान अपने 29 विधायकों के बल पर राजनीति को अपने हिसाब से चलाना चाहते थे, इसलिए नीतीश कुमार के नेतृत्व में सरकार का गठन तो हुआ, लेकिन वे बहुमत नहीं होने की वजह से सरकार चला नहीं सके। लिहाजा राष्ट्रपति शासन लागू हुआ और उसके बाद अक्टूबर-नवंबर में फिर से चुनाव हुए। इस चुनाव में बसपा 212 पर लड़ी और इसके 4 उम्मीदवार जीते। उसे कुल 4.17 प्रतिशत मत मिले। इसके जीतने वालों में भभुआ से रामचंद्र सिंह यादव, दिनारा से सीता सुंदरी देवी, बक्सर से हृदय नारायण सिंह, कटैया से अमरेंद्र कुमार पांडे शामिल रहे। इस चुनाव में भाजपा को 55 और जदयू 88 सीटें मिली थीं। जबकि राजद को 54, लोजपा को 10, कांग्रेस को 9 सीटें मिलीं। परिणामस्वरूप बिहार में नीतीश युग का आरंभ हो गया।

नीतीश के युग में बसपा का प्रदर्शन चुनाव-दर-चुनाव गिरता चला गया। मसलन, 2010 में बसपा 239 सीटों पर लड़ी। कुल 236 सीटों पर उसके उम्मीदवारों की जमानत ही केवल जब्त नहीं हुई, बल्कि उसका कोई उम्मीदवार जीत नहीं सका। साथ ही उसके मतों का प्रतिशत भी घटकर 3.21 प्रतिशत रह गया। वैसे इस चुनाव में राजद को भी 22 सीटों पर संतोष करना पड़ा था। जबकि भाजपा को 91 और जदयू को 115 सीटें मिली थीं। वहीं राष्ट्रीय स्तर की दूसरी पार्टी कांग्रेस, जिसकी सरकार केंद्र में काबिज थी, को केवल 4 सीटें मिली थीं। रही बात रामविलास पासवान की तो उनके केवल तीन उम्मीदवार जीत पाए।

बसपा का प्रदर्शन 2015 में पूर्व के चुनाव से अधिक विफलता वाला रहा। उसने 228 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे, लेकिन कोई जीत नहीं मिली। उसके 225 उम्मीदवार अपनी जमानत भी नहीं बचा सके। और वोट प्रतिशत घटकर 2.01 प्रतिशत रहा गया। लेकिन यह चुनाव इस लिहाज से महत्वपूर्ण साबित हुआ कि राजद ने पलटवार किया और कांग्रेस के साथ गठबंधन के तहत 101 सीटों पर लड़कर 80 सीटों पर जीत हासिल की। हालांकि भाजपा को 53 और जदयू को 101 सीटों पर जीत मिली थी, तो राजद सरकार से दूर ही रही। इस चुनाव में कांग्रेस को अपनी स्थिति सुधारने का अवसर मिला। उसके 27 उम्मीदवार जीतने में कामयाब रहे।

फिर आया साल 2020। जब इस साल विधानसभा चुनाव हुए तो बसपा केवल 78 सीटों पर लड़ी। उसके 73 उम्मीदवार जमानत बचाने में नाकाम रहे। वोटों का प्रतिशत घट कर 1.49 प्रतिशत रह गया। लेकिन उसे इस बात से संतोष मिला कि चैनपुर से उसके उम्मीदवार मोहम्मद जमा खान जीतने में कामयाब रहे।

हम पाते हैं कि पिछले तीन दशकों में बसपा को दलितों के लिए आरक्षित सीटों पर केवल तीन ही कामयाबी मिली। एक सीट पर दो बार और एक दूसरे सीट पर एक ही बार। जबकि पूरे राज्य में दलितों के लिए आरक्षित सीटों की संख्या वर्तमान में 38 हैं और सन् 2000 के पहले अविभाजित बिहार में यह संख्या 48 थी।

दूसरी ओर जीतन राम मांझी और चिराग पासवान स्वयं को दलित कहते हैं, लेकिन आंबेडकरवादी विचारधारा से इनका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं रहा है। ऐसे में दलित मतदाताओं के पास दलों में बंट जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।

बिहार में बसपा के सदस्य व पूर्व प्रत्याशी आचार्य मुन्ना प्रसाद इसका कारण बताते हैं कि बसपा प्रमुख मायावती केवल चुनाव के मौके पर ही बिहार आती हैं। आखिरी बार 2024 में लोकसभा चुनाव के समय वह बक्सर में एक चुनावी जनसभा को संबोधित करने आई थीं। वहीं पिछली बार 2020 में हुए विधानसभा चुनाव में वह केवल पांच चुनावी कार्यक्रमों में शामिल हुई थीं।

वहीं वरिष्ठ पत्रकार हेमंत कुमार का मानना है कि बसपा के केंद्रीय नेतृत्व केंद्रीकृत ढांचे में यकीन रखता है। उसने अपने आपको विकेंद्रीकृत किया ही नहीं। इसका परिणाम यह होता है कि उसके समर्थक और नेता भक्ति भाव में लगे रहे या कहिए कि कीर्तन करने लगते हैं। दूसरी बात यह है कि बिहार में दलितों की बड़ी आबादी होने के बावजूद उनके लिए बसपा के पास कोई एजेंडा नहीं है। कभी वह उनके सवालों को लेकर लोगों के बीच नहीं गई। यह स्थिति तब है जबकि राज्य में बड़ी संख्या में दलित बसपा को अपनी पार्टी मानते हैं।

बहरहाल, इस बार बसपा की ओर से कुल 128 उम्मीदवार मैदान में उतारे गए हैं। बसपा द्वारा जारी आधिकारिक विज्ञप्ति के मुताबिक पार्टी की प्रमुख मायावती आगामी 6 नवंबर यानी प्रथम चरण के मतदान के दिन से बिहार में चुनावी कार्यक्रमों का आगाज करेंगी। जबकि प्रथम चरण के लिए उनके 80 उम्मीदवार हैं।

(संपादन : अनिल)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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