बिहार विधानसभा चुनाव में अगर इंडिया गठबंधन (महागठबंधन) को बहुमत मिलता है तो तेजस्वी यादव के नेतृत्व में सरकार बनना तय है। और इस सरकार में दलितों, पिछड़ों, अतिपिछड़ों, अल्पसंख्यकों की जबरदस्त भागीदारी दिखेगी। इस बात के साफ संकेत टिकट वितरण में इन तबकों को दी गयी तरजीह से मिल रहे हैं। महागठबंधन के सबसे बड़े दल राष्ट्रीय जनता दल (राजद) ने टिकटों के बंटवारे में बहुजनों को तवज्जो दिया है। इसी लाइन पर कांग्रेस को छोड़कर अन्य सहयोगी दलों भाकपा-माले, विकासशील इंसान पार्टी (वीआइपी), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा), मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) और इंडिया इक्लूसिव पार्टी (आइआइपी) ने भी टिकट बांटा है।
भाजपा ने 49 और जदयू ने 22 सवर्णों को अपना उम्मीदवार बनाया, लेकिन खतरे में नीतीश
इसके विपरीत अगर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को सरकार बनाने का मौका मिलता है तो उस सरकार में सवर्णों का दबदबा होगा। इतना ही नहीं, नीतीश कुमार मुख्यमंत्री नहीं बनेंगे, यह भी पक्का हो जाएगा। एनडीए के सबसे बड़े दल भाजपा ने 101 में से 49 सीटें सवर्णों पर न्योछावर कर दिया है। जबकि नीतीश कुमार की पार्टी जदयू की 101 उम्मीदवारों की सूची में भी 22 सवर्ण उम्मीदवार शामिल हैं। चिराग पासवान की पार्टी लोजपा (रामविलास) और जीतनराम मांझी की हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक माेर्चा (रालोमो) ने भी दिल खोलकर सवर्णों को टिकट दिया है। एनडीए के घटक दलों द्वारा जारी सूची देखने से पता चलता है कि टिकट बंटवारे में भाजपा की राय को प्रमुखता दी गई है। लिहाजा कहा जा सकता है कि भाजपा ने नीतीश कुमार की विदाई का पुख्ता इंतजाम कर दिया है।
सर्वविदित है कि नीतीश को फिर से मुख्यमंत्री बनाने के सवाल पर पहले से ही लगातार गोलमोल जवाब मिल रहा है। टिकटों के बंटवारे के बाद तो और साफ हो गया है कि भाजपा नेतृत्व ही नहीं बल्कि चिराग पासवान, जीतनराम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा बस चुनाव तक नीतीश के चेहरे का इस्तेमाल करेंगे। उनके नाम की माला जपेंगे। पक्ष में नतीजे आते ही उनसे मुक्ति पा लेंगे। ऐसा इसलिए कि ऐसा पहली बार हो रहा है जब नीतीश को एनडीए ने मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं किया है। घुमा-फिरा कर बस इतना कहा जा रहा है कि हम नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव लड़ रहे हैं। जबकि इतिहास गवाह है कि 2005 से 2020 तक के चुनावों में नीतीश को ही मुख्यमंत्री का चेहरा बताकर भाजपा चुनाव लड़ती रही है। पिछले चुनाव में जब चिराग ने ‘विद्रोही’ बनकर नीतीश के करीब डेढ़ सौ उम्मीदवारों के खिलाफ अपनी पार्टी के उम्मीदवार उतार दिये थे, तब भी भाजपा ने कहा था कि कम सीटें आने पर भी नीतीश ही मुख्यमंत्री होंगे। भाजपा अपने वायदे पर खरी उतरी। और मात्र 43 सीटों पर सिमट जाने के बाद भी नीतीश को मुख्यमंत्री मान लिया।
लेकिन अब हालात पूरी तरह बदल चुके हैं। शारीरिक और मानसिक कारणों से ‘अनफिट’ दिख रहे नीतीश अब भाजपा के लिए जहां उपयोगी नहीं रह गए हैं। वहीं बिहार में अपनी सरकार और अपना मुख्यमंत्री बनाने की दिशा में लंबे समय से काम कर रही भाजपा बस नतीजे आने का इंतजार कर रही है। अंदरखाने की खबर यह है कि भाजपा अब नीतीश को ढोने को तैयार नहीं है। लेकिन चुनाव तक वह नीतीश का नाम जपती रहेगी। ताकि पिछड़ों व अतिपिछड़ों में भगदड़ नहीं मचे। इस बात को जेडीयू में नीतीश के कोर ग्रुप मेंबर कहे जाने वाले पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष संजय झा, ललन सिंह, विजय चौधरी और अशोक चौधरी जैसे लोग भी समझ रहे हैं। यही वजह है कि प्रचारित किया जा रहा है कि पार्टी और सरकार के सारे फैसले नीतीश ही ले रहे हैं या उनकी सहमति से लिये जा रहे हैं। लेकिन चुनावी मंचों से नीतीश ऐसा कुछ कर जा रहे हैं कि उनकी शारीरिक-मानसिक स्थिति उजागर हो जा रही है।
उम्मीदवारों की जातियां, पार्टियों का चरित्र
बिहार की कुल आबादी में अगड़ी जातियां करीब 10 प्रतिशत हैं। लेकिन एनडीए ने 243 में से 84 सीटें इन जातियों के उम्मीदवारों को दिया है। इस तरह से 10 प्रतिशत को 35 प्रतिशत की हिस्सेदारी दी गई है। इसमें सबसे ज्यादा 49 टिकट अगड़ी बिरादरी को भाजपा ने दिया है। ऐसे में भाजपा का सामाजिक न्याय की बात करना दिखावा मात्र लगता है। यह साफ़ है कि टिकट वितरण ‘मेरिट’ पर नहीं, बल्कि ‘पावर स्ट्रक्चर’ पर आधारित है।
बिहार चुनाव के लिए भाजपा नीत एनडीए ने सवर्ण वोट बैंक में पुरानी और मजबूत पैठ कायम रखने के लिए सामूहिक गोलबंदी की है। इस वर्ग में शामिल चार जातियों– ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार और कायस्थ की आबादी करीब 10 फीसदी है। मगर वर्तमान विधानसभा में हर चौथा विधायक अगड़ा वर्ग से है। बीते 2020 में हुए चुनाव में इस वर्ग से जीतने वाले 64 विधायकों में से एनडीए के 41 विधायक थे। ऐसे में एनडीए की रणनीति इस वर्ग पर एकाधिकार कायम करने की है।
इस बार एनडीए ने 84 टिकट इस वर्ग से जुड़ी चार जातियों को बांटे हैं। यह संख्या पिछले चुनाव से सात ज्यादा है। इनमें भाजपा ने 49, जदयू ने 22, लोजपा ने 10, आरएलएम और हम ने 2-2 सीटों पर इस वर्ग से जुड़े उम्मीदवार उतारे हैं। इनमें सर्वाधिक 37 उम्मीदवार राजपूत बिरादरी के हैं। गठबंधन ने भूमिहार 34, ब्राह्मण बिरादरी के 14 और कायस्थ के 2 उम्मीदवार उतारे हैं। इनमें भूमिहार बिरादरी को सभी पांच दलों ने प्रतिनिधित्व दिया है। बीते 2020 में हुए चुनाव में 2015 के मुकाबले ओबीसी में शामिल सभी जातियों की हिस्सेदारी घटी थी, जबकि अगड़ा वर्ग का प्रतिनिधित्व बढ़ा था। यादव विधायकों की संख्या 61 से घट कर 52 तो कुर्मी विधायकों की संख्या 16 से घट कर 9 रह गई थी। इसके उलट अगड़ा वर्ग के विधायकों की संख्या 51 से बढ़ कर 64 हो गई थी। इनमें राजपूत विधायकों की संख्या 20 से बढ़ कर 28, भूमिहार की 17 से बढ़ कर 21, ब्राह्मण की 11 से बढ़ कर 12 और कायस्थों की 2 से बढ़ कर 3 हो गई थी। इनमें एनडीए के 41 और महागठबंधन के 11 विधायक शामिल थे।

राज्य में राजपूत की आबादी 3.45 फीसदी तो भूमिहारों की 2.86 फीसदी है। हालांकि इनकी करीब 80 सीटों पर प्रभावशाली उपस्थिति है। बीते 2020 में भाजपा के 21 में से 15 राजपूत और 14 में से 8 भूमिहार उम्मीदवार जीते थे। जदयू के 7 में से 2 राजपूत और 9 में से 5 भूमिहार उम्मीदवार जीते थे। दोनों के ब्राह्मण उम्मीदवारों को राजपूत-भूमिहार बिरादरी के उम्मीदवार की तरह सफलता नहीं मिली थी।
भाजपा के 11 ब्राह्मणों में से 5 तो जदयू के 5 ब्राह्मणों में से महज 2 ही जीत हासिल कर पाए थे। कांग्रेस और राजद के इस बिरादरी के 5 उम्मीदवार जीते थे।
इस बार एनडीए में कुर्मी से अधिक कुशवाहा
बीते चुनाव में कायस्थ बिरादरी के तीन विधायक जीते थे। तीनों एनडीए के थे। हालांकि इस बार इस बिरादरी को एनडीए की ओर से दो ही टिकट मिले हैं। एक सिटिंग विधायक का भाजपा ने टिकट काट दिया है। बीते चुनाव के मुकाबले एनडीए ने इस बार कुर्मी से अधिक दांव कुशवाहा बिरादरी पर लगाया है। कुर्मी बिरादरी से भाजपा ने महज दो और जदयू ने 14 उम्मीदवार उतारे हैं। जबकि कुशवाहा बिरादरी को ‘हम’ को छोड़ कर शेष सभी दलों ने प्रतिनिधित्व दिया है। जदयू ने सर्वाधिक 13, भाजपा ने 7, आरएलएम ने तीन और लोजपा (आर) ने इस बिरादरी से एक को प्रतिनिधित्व दिया है। जबकि दोनों बिरादरियों की कुल आबादी में हिस्सेदारी 7 से 8 प्रतिशत है।
सीमांचल की बिसात
बीते चुनाव में एआईएमआईएम ने सीमांचल में विपक्षी महागठबंधन के माय (मुस्लिम-यादव) समीकरण के लिए खतरे की घंटी बजाई थी। इस बार एआईएमआईएम के साथ ही जनसुराज पार्टी की उपस्थिति ने इस क्षेत्र में चतुष्कोणीय मुकाबले की पृष्ठभूमि तैयार कर दी है। खासतौर पर सीमांचल में राजद के दशकों तक सबसे कद्दावर चेहरा रहे तस्लीमुद्दीन के बेटे सरफराज आलम की जनसुराज में एंट्री ने विपक्षी महागठबंधन के माय समीकरण के लिए बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है। पिछले चुनाव में अपने ही भाई शाहनवाज के हाथों जोकीहाट सीट से करीबी मुकाबले में हारने वाले चार बार के विधायक और एक बार के सांसद सरफराज की अपने पिता की विरासत पर मजबूत पकड़ है। उनका सीमांचल के चार में से तीन जिलों किशनगंज, अररिया और पूर्णिया के मुस्लिम प्रभाव वाले क्षेत्रों में अच्छी पकड़ है।
बीते चुनाव में एआईएमआईएम के मुखिया असदुद्दीन ओवैसी की रणनीति ने मुस्लिम प्रभाव वाले सीमांचल में विपक्षी महागठबंधन खासतौर पर राजद को करारा झटका दिया था। एआईएमआईएम के कारण हुए त्रिकोणीय मुकाबले में क्षेत्र की 24 सीटों में राजद के हिस्से महज एक सीट आई थी। जबकि कांग्रेस पांच और भाकपा माले एक सीट पर जीती थी। एआईएमआईएम के पांच सीटें जीतने और मुकाबले को त्रिकोणीय बना देने का लाभ एनडीए को मिला था। भाजपा के सीटों की संख्या 5 से बढ़ कर 8 तो जदयू को 4 सीटों पर जीत मिली थी। इस बार प्रशांत किशोर की निगाहें भी सीमांचल के मुस्लिम मतदाताओं पर है।
महागठबंधन और जाति
महागठबंधन की ओर से कुल 44 सवर्ण उम्मीदवारों को मुकाबले में खड़ा किया गया है। इनमें राजद के 14, कांग्रेस के 23, वीआईपी के 2, माले के 1, सीपीआई के 2 और आइआइपी के 2 उम्मीदवार शामिल हैं।
पार्टीवार बात करें तो राजद ने कुल 143 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किए हैं। कुल मिला कर 25 जतियों के इन सभी उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि कुछ यूं है कि इनमें 21 दलित हैं। इनमें 8 पासवान, 4 रविदास, 4 पासी, 4 मुसहर और एक चौपाल जाति के हैं। वहीं अति पिछड़ा वर्ग की बात करें तो राजद ने 15 सीटों पर अति पिछड़ा उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है। इनमें 3 चंद्रवंशी, 2 धानुक, 2 नोनिया, 1 मल्लाह, 1 बिंद, 1 चौरसिया और 5 तेली शामिल हैं।
वर्गवार बात करें तो राजद ने सबसे अधिक 74 सीटों पर पिछड़ा वर्ग को अपना उम्मीदवार बनाया है। इनमें 52 यादव, 1 कुर्मी, 3 सूढ़ी, 13 कुशवाहा, एक सोनार, 2 कलवार, 1 दांगी और 1 गंगोता शामिल हैं।
वहीं राजद के 14 सवर्ण उम्मीदवारों में 3 ब्राह्मण, 5 भूमिहार और 6 राजपूत शामिल हैं। अन्य उम्मीदवारों में 1 अनुसूचित जनजाति व 18 मुस्लिम उम्मीदवार शामिल हैं।
जबकि मुकेश सहनी की वीआइपी ने 15 उम्मीदवार खड़े किए हैं। इनमें मल्लाह/निषाद जाति के 5, यादव के 3, राजपूत के 2 के अलावा कुर्मी, केवट, मुसहर, मारवड़ी और बिंद जातियों के एक-एक उम्मीदवार शामिल हैं।
भाकपा माले ने इस बार 20 उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है। इनमें सबसे अधिक 6 सीटों पर कुशवाहा हैं। इसके अलावा यादव जाति के 3, रविदास 4, पासवान 2 तथा पासी, चंद्रवंशी, राजपूत, मुस्लिम, और कानू जाति के एक-एक उम्मीदवार इसी सूची में शामिल हैं। ऐसे ही सीपीआई ने कुल 9 उम्मीदवार खड़े किए हैं, जिनमें यादव 4, भूमिहार 2, पासवान 2, और एक बनिया जाति के उम्मीदवार शामिल हैं। जबकि माकपा ने 4 उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है। इनमें कुशवाहा जाति के 2, यादव और पासवान जाति के एक-एक उम्मीदवार शामिल हैं। इस बार पहली बार राजनीति में कदम रख रहे आई.पी. गुप्ता की पार्टी आइआइपी ने दो तांती और एक राजपूत को अपना उम्मीदवार बनाया है।
फिर सामने आया कांग्रेस का सवर्ण प्रेम
कांग्रेस जनसंख्या के आधार पर आरक्षण की बात कर रही है। राहुल गांधी लगातार इस मुद्दे को पूरी शिद्दत से हर फ़ोरम पर उठा रहे हैं। सामाजिक न्याय की लड़ाई का यह एक अहम मुद्दा है जिसे देर से ही सही राहुल और खड़गे के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने स्वीकारा है। लेकिन 60 सीटों पर टिकट बंटवारे में 10 प्रतिशत आबादी वाली ऊंची जातियों को 23 सीटें देकर कांग्रेस ने सामाजिक न्याय के ठीक उलट काम किया है। इनमें 9 भूमिहार, 8 ब्राह्मण, 5 राजपूत और एक कायस्थ शामिल हैं। वहीं ओबीसी उम्मीदवारों की बात करें तो कांग्रेस ने कुल 11 उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है। इनमें 5 यादव, 3 कलवार, 2 कुशवाहा और एक कुर्मी शामिल हैं। कांग्रेस ने इस बार कुल 8 मुसलमानों को अपना उम्मीदवार बनाया है। इनमें 4 अशराफ (सवर्ण), 2 अजलाफ (ओबीसी) और 2 अरजाल (अति पिछड़ा वर्ग) शामिल हैं। जबकि 5 हिंदू अति पिछड़ों को उम्मीदवार बनाया गया है। इनमें निषाद, अमात, कहार, धानुक और बिंद जातियों के एक-एक उम्मीदवार शामिल हैं।
अब सवाल यह उठता है कि क्या खड़गे और राहुल की बात बिहार कांग्रेस में नहीं मानी जा रही है या वह नारा मोदीजी के चुनावी जुमले की हैसियत रखता है? अच्छा लगे या बुरा कांग्रेस को जवाब तो देना पड़ेगा। वोटर को पॉकेट साइज संविधान दिखाना लेकिन भागीदारी देने में आनाकानी करना और वह भी चुनाव के ऐन पहले, कांग्रेस को बहुत महंगा पड़ सकता है।
(संपादन : नवल/अनिल)
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