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मेरी निगाह में बिहार चुनाव के परिणाम (अंतिम भाग)

“जो लोग ओवैसी की राजनीति को समझते हैं, उनसे कोई सलाह नहीं ली गई और यह भी नहीं हुआ कि पिछले चुनाव से सबक लेकर कोई कार्यक्रम करके लोगों को ध्रुवीकरण के खतरे के बारे में बताया जाए। पसमांदा समुदाय के सवालों को नजरअंदाज किया गया। इन पार्टियों ने पसमांदा मुसलमानों को ‘टेकेन फार ग्रांटेड’ के रूप में ले लिया।” पढ़ें, अली अनवर के विस्तृत विश्लेषण का अंतिम भाग

पहले भाग से आगे

राजनीतिक दलों में एक अहम बदलाव यह आया है कि आजकल पैराशूट से उम्मीदवार उतारे जाते हैं। यह कोई एक पार्टी की बात नहीं है। सभी राजनीतिक दलों में यह ट्रेंड है। पार्टियां उन्हें उम्मीदवार नहीं बनातीं, जो उनके अपने कार्यकर्ता होते हैं और जिनके पास जमीनी समझ होती है।

रही बात मुसलमानों की तो आप ओवैसी को उदाहरण के रूप में लें। उनकी पार्टी ने पिछली बार पांच सीटों पर जीत हासिल की थी। इस बार भी उन्हें इतनी ही सीटें मिली हैं। पिछली बार भी उसने जितना जीता नहीं, उससे अधिक नुकसान ही किया, और इसकी वजह यह रही कि उनके कारण मतदाताओं में ध्रुवीकरण हुआ। यहां तक कि उनकी पार्टी के नाम में ही पोलराइजेशन है। ‘इत्तेहादुल मुस्लिममीन’ का मतलब ही है कि मुसलमानों एक हो जाओ। तो जैसे ही आप यह कहते हैं कि मुसलमानों एक हो जाओ तो दूसरी तरफ ‘हिंदुओं एक हो जाओ’ कहने की जरूरत नहीं रह जाती है। वह अपने आप हो जाएगा।

इसका तोड़ निकालने के लिए जो कुछ महागठबंधन को करना चाहिए था, वह किया ही नहीं गया। जो लोग ओवैसी की राजनीति को समझते हैं, उनसे कोई सलाह नहीं ली गई और यह भी नहीं हुआ कि पिछले चुनाव से सबक लेकर कोई कार्यक्रम करके लोगों को ध्रुवीकरण के खतरे के बारे में बताया जाए। पसमांदा समुदाय के सवालों को नजरअंदाज किया गया। इन पार्टियों ने पसमांदा मुसलमानों को ‘टेकेन फार ग्रांटेड’ (स्वाभाविक रूप से मान लिया गया) के रूप में ले लिया। उन्होंने सोचा कि ये हमारे मुसलमान तो हैं ही। हालत यह है कि जो सेक्युलर पार्टियां हैं, उनके नेता पसमांदा नाम तक अपनी जुबान पर नहीं लाते हैं। पहले तो अति पिछड़ा भी नहीं कह रहे थे। फिर अति पिछड़ा को माना। इंडिया गठबंधन के द्वारा जारी अति पिछड़ा संकल्प पत्र को देखिए तो वह पसमांदा मुसलमानों के लिए भी फायदेमंद था। लेकिन यदि अति पिछड़ा के साथ एक शब्द पसमांदा भी जोड़ देते और इसे अति पिछड़ा पसमांदा संकल्प पत्र के रूप में प्रस्तुत करते तो यह अधिक प्रभावशाली होता। और मीडिया इसके खिलाफ यदि बोलने की कोशिश करता तो भी अंतत: इसका फायदा महागठबंधन को ही होता।

आप हिंदू समाज में अगड़ा, पिछड़ा, दलित, महादलित कीजिएगा लेकिन पसमांदा मुसलमानों को इग्नोर करिएगा तो माइनॉरिटी और मेजोरिटी की पॉलिटिक्स में ही बने रहिएगा।

भाजपा जैसी बड़ी पार्टी पसमांदा शब्द का इस्तेमाल करने से नहीं चूकती। इस शब्द को हमने 1998 में शुरू किया। यह आंदोलन इन्हीं सभी सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ था। उनके लिए भी जो दूसरे की हकमारी करते थे, उनके खिलाफ भी था। लेकिन इसके महत्व को भी महागठबंधन के लोगों ने नहीं समझा। कभी-कभी होता है कि लोग या पार्टी निराश भी हो जाती है। एक तो टिकट बंटवारे में यह हाल देखिए कि मुसलमान चाहे वे अशराफ हों या पसमांदा, सभी को कम सीटें दी गई। सेक्युलर पार्टियों को यह डर था कि मुस्लिम को टिकट देंगे तो उधर हिंदू एकजुट हो जाएंगे। जितने मुसलमानों को टिकट दिया गया, उनमें पसमांदा मुस्लिम भी खोजने से एकाध मिले। कई पार्टियों ने तो एक को भी नहीं दिया।

अली अनवर, पूर्व राज्यसभा सदस्य व ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज के राष्ट्रीय अध्यक्ष

मूल बात यह है कि सेक्युलर पार्टियों ने पसमांदा आंदोलन को समझा ही नहीं। बिहार में अति पिछड़ों का सम्मलेन हुआ। इंडिया गठबंधन ने भी किया। लेकिन हुआ यह कि जिलों से लोग राजधानी में बुला लिये गए। होना तो यह चाहिए था कि वे जिलों में जाते और लोगों से संवाद करते।

मैं फिर कह रहा हूं कि इंडिया गठबंधन द्वारा जारी अति पिछड़ा संकल्प पत्र बेहद खास था और उसमें जो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण कानून की तर्ज पर अति पिछड़ा अत्याचार निवारण के लिए कानून बनाने की बात कही गई, वह पसमांदा के लिए भी आवश्यक था। वैसे भी पसमांदा कोई धार्मिक शब्द नहीं है, इसमें अति पिछड़ा भी शामिल है। जो कोई पिछड़ा है, हम लोग उर्दू में कहेंगे तो पसमांदा ही कहेंगे। लेकिन इसके बारे में न किसी से सलाह ली गई और न ही इसके जानकार लोगों को कोई महत्व दिया गया।

इसे ऐसे समझना चाहिए कि 2005 के पहले तक नीतीश जी भाजपा के साथ मिलकर भी तब तक लालू यादव को पराजित नहीं कर पाते थे। नीतीश कुमार ने सबसे पहले पसमांदा शब्द को पकड़ा और एक बार जो जीते तो अभी तक जीतते ही रहे हैं। यह भी देखिए कि भाजपा ने उत्तर प्रदेश में पसमांदा मुसलमानों को बढ़ावा दिया। एमएलसी बनाया, मिनिस्टर बनाया, वीसी बनाया और पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में पसमांदा मुस्लिम को ले गए। लेकिन सेक्युलर लोग डरते रह गए। ऐसे ही कुछ लोग सेक्युलर कहने से डरने लगे हैं। यह तय बात है कि ऐसे ही डरते-डरते रहिएगा तो चूल्हा में समा जाएइगा।

भाजपा और जदयू के लोग यादवों के प्रतिनिधित्व को भी टारगेट कर रहे हैं। कितनी खतरनाक योजना है! इसी तरह की नीति महाराष्ट्र में मराठों के खिलाफ, हरियाणा में जाटों के खिलाफ अपनाई गई थी और इसी तरह का माहौल बना दिया गया।

यह भी देखा जाना चाहिए कि मायावती के लोग भी खड़े हुए। उनमें से केवल एक को जीत मिली है, जो कि उनके अपने बलबूते की जीत है। मायावती की पार्टी ने भी इंडिया गठबंधन काे वैसे ही नुकसान पहुंचाया है, जैसे ओवैसी की पार्टी ने पहुंचाया है।

यह सारी चीजें हैं। हम समझते हैं कि आगे आने वाले चुनावों के लिए भी सोचना चाहिए, और एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन खड़ा करने की आवश्यकता है। पश्चिम बंगाल में एक बार यह काम वामपंथियों ने किया था। उन्होंने कहा था कि पांच साल तक हम चुनाव नहीं लड़ेंगे। वे नहीं लड़े और जनता के बीच रहे। फिर पांच साल बाद आए तो तीन दशक तक रहे।

इंडिया गठबंधन के दलों की समस्या यह है कि ये न तो कुछ जेपी के आंदोलन से सीखते हैं और न ही बंगाल के आंदोलन से। आपसी एकजुटता के बजाय आपस में लड़ते हैं, विलंब से कोई काम करते हैं। जब आप जानते थे कि चुनाव आयोग के जरिए, रुपए-पैसे से और प्रशासन तंत्र की मदद से वोटों की डकैती की जा रही है, तो सतर्क हो जाना चाहिए था। और मेरा मानना है कि मिट्टी में जब तक गड़ नहीं जाते तब तक मुकाबला नहीं कर सकेंगे। मैं यह बात इसलिए भी कह रहा हूं कि आज बेरोजगारी, गरीबी के मुद्दे हैं। देश की संपत्ति अडानी और अंबानी को बेचा रहा है। बड़े-बड़े घोटाले हो रहे हैं। लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि देश में गोदी मीडिया है, जो इन सभी को गौण कर देता है। इसलिए मैं कहता हूं कि मिट्टी में गड़ना पड़ेगा। ऊपरी सतह पर रहकर मुकाबला नहीं जीता जा सकता है। पांच साल एमपी, एमएलए बनने का मोह छोड़ें। सरकार बनाने की बात तो दूर की बात है। माओ ने कहा था– “गो टू द मासेज, लर्न फ्रॉम द मासेज एंड टीच देम”। जब कुछ समझ में नहीं आए कि क्या करना है तो जनता के पास जाओ, जनता से सीखो और जनता को सिखाओ। तो जनता के बीच जाने के बहुत सारे मुद्दे हैं और आप 25 या 50 एमएलए, एमपी जीता करके फासीवादी सांप्रदायवादी ताकतों को नहीं रोक सकते हैं। इनकी रक्तवाहिनियों में लोकतंत्र नहीं है, कोई लोकलाज नहीं है, जनता का भय नहीं है। तो मेरी समझ यही है कि इनके लिए यही तरीका अपनाना पड़ेगा।

(समाप्त)

(नवल किशोर कुमार से दूरभाष पर बातचीत के आधार पर)

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अली अनवर

लेखक पूर्व राज्यसभा सांसद तथा ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज के संस्थापक अध्यक्ष हैं

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