बिहार में विधान सभा चुनाव संपन्न हो गया, जिसमें परिणाम चौंकाने वाला आया। राजद, कांग्रेस, वामपंथी आदि दलों ने मिलकर महागठबंधन बनाया था। इन्हें चुनाव बाद सरकार बनाने का अतिविश्वास था। लेकिन निराशा हाथ लगी। वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को भी चुनाव जीतने का विश्वास था। लेकिन चुनाव परिणाम उनके पक्ष में उनके विश्वास से भी ज्यादा आया।
सभी समीक्षक अपने-अपने ढंग से परिणाम की समीक्षा कर रहे हैं। भाजपा, जदयू, हम, रालोमो और लोजपा के 202 विधायक निर्वाचित घोषित किए गए। नीतीश कुमार के के नेतृत्व में 20 नवंबर को सरकार का गठन भी कर लिया गया। इस विधानसभा चुनाव में सवर्णों ने बाजी मार ली। कुल 243 सीटों वाले विधानसभा में 73 सदस्य सवर्ण निर्वाचित हुए। बनिया वर्ग से भी 28 चुने गए हैं। सवर्णों में 32 अकेले राजपूत जाति से निर्वाचित हुए। महागठबंधन में शामिल कांग्रेस से एक भी सवर्ण जीतने में कामयाब नहीं हुए। सवर्ण और बनिया वर्ग से ज्यादातर भाजपा और जदयू से निर्वाचित हुए। अब विपक्ष द्वारा आरोप लगाया जा रहा है कि मीडिया, चुनाव आयोग और प्रशासनिक अधिकारी का दुरुपयोग करके एनडीए की सरकार बनी है।
निश्चित तौर पर महागठबंधन की हार हुई है। चुनाव के दरम्यान उनका आंतरिक मतभेद तो सामने आया ही, मैनेजमेंट भी सही नहीं रहा। समीक्षा का एक पहलू यह भी है कि अति उत्साह और अतिविश्वास में अपना आपा नहीं खोना चाहिए। ज्यादा मनबढ़ू भी नहीं बनना चाहिए। नीति और सिद्धांत को दरकिनार नहीं करना चाहिए।
कांग्रेस और राजद दोनों ने तथाकथित ऊंची जातियों को भी बड़े पैमाने पर सिंबल दिये। लेकिन अपेक्षित सफलता नहीं मिली। परिणाम से स्पष्ट हो रहा है कि तथाकथित ऊंची जाति और बनिया वर्ग ने भाजपा को ही अपना माना। कांग्रेस को तो बिल्कुल दरकिनार कर दिया। कांग्रेस के राहुल गांधी ने अपने भाषणों में पिछड़े और अति पिछड़ों को सम्मानजनक संख्या में सीटें देने की घोषणा की थी। लेकिन जब सिंबल बांटने की बारी आई तो सवर्णों को ही तरजीह दी। लेकिन सवर्ण मतदाताओं ने कांग्रेस को बुरी तरह नकार दिया। एक सीट भी नहीं मिली।

उसी प्रकार ‘ए टू जेड’ की पार्टी बनाने के चक्कर में राजद को भी सवर्णों से निराशा ही हाथ लगी। सही कार्यकर्ताओं को सिंबल नहीं मिला और दल-बदल करने वाले को तरजीह दी गई। इतना ही नहीं यादव और मुस्लिम पर भी जितना भरोसा किया, वह भी हाथ से फिसल गया।
सर्वविदित है कि बिहार समेत पूरे देश भर में 90 प्रतिशत आबादी पिछड़े, दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यकों की है। केवल 10 प्रतिशत आबादी ऊंची जाति की है। लेकिन अधिकांश जगहों पर ऊंची जातियों का कब्जा है। पिछड़े और दलित अपनी आबादी का अनुसार हिस्सा लेने के लिए छटपटा रहे हैं। आंदोलन की राह अपना रहे हैं। वे राजनीति में भी हिस्सा मांग रहे हैं। 1960 और 1970 के दशक में जगदेव प्रसाद और कर्पूरी ठाकुर ने पिछड़े व दलितों की आंखें खोलीं। इसी कारण सभी राजनीतिक दलों में वे अपनी भागीदारी के लिए प्रयासरत हैं। इसी संदर्भ में राजद में पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग के लोग अधिक से अधिक सिंबल लेने की जुगत में लगे रहे, लेकिन सफलता नहीं मिली।
महागठबंधन के लोग हार का ठीकरा फोड़ने के लिए और आत्मसंतुष्टि के लिए ईवीएम और चुनाव आयोग को दोषी करार दे रहे हैं, लेकिन यह काफी नहीं है। आदमी को अपने में भी दोष ढूंढना चाहिए।
एक ओर कांग्रेस, जो समाप्त होने पर है, उसे राजद अपने कंधे पर ढो रही है। उसी प्रकार जदयू भी भाजपा का जनाधार बिहार में बढ़ाने में लगा हुई है, जो बिहार के हित में नहीं है। भाजपा [पहले जन संघ] और कांग्रेस दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ऐसा जगदेव प्रसाद कहा करते थे। लालू प्रसाद जब बिहार के मुख्यमंत्री बने तब 1990 के दशक में ऊंची जातियों के वर्चस्व को खत्म करने की कोशिश की थी। उन्होंने जगदेव प्रसाद और कर्पूरी ठाकुर के मिशन को आगे बढ़ाया। इसमें काफी हद तक सफलता भी मिली। इस कारण पिछड़े व दलित वर्ग में काफी खुशी महसूस की गई। हालांकि परिस्थितिवश उन्हें परास्त करके जैसे ही नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने उन्होंने अपने राजनीतिक स्वार्थ में फिर से ऊंची जातियों का वर्चस्व कायम कर दिया।
ऐसी परिस्थिति में अमर शहीद जगदेव प्रसाद के फॉर्मूले को अब अमल में लाने की जरूरत है। हर साल 2 फरवरी और 5 सितंबर को सभी पार्टियां जगदेव प्रसाद को याद करती हैं और उनके लोग ‘सौ में नब्बे शोषित है नब्बे भाग हमारा है’ का नारा लगाते हैं। लेकिन अमल नहीं करते। बिहार की राजनीति में केवल नीतीश कुमार ऐसे राजनीतिज्ञ हैं जो जगदेव प्रसाद की स्मृति में शहीद दिवस और जयंती पर अपनी भागीदारी नहीं निभाते। हालांकि उनकी पार्टी जगदेव प्रसाद को याद करके राजनीतिक रोटी सेंक लेती है।
नीतीश कुमार ने छल, बल और तंत्र का सहारा लेकर और नीति-सिद्धांत को दरकिनार करके बिहार में दसवीं बार मुख्यमंत्री का पद लेकर एक रिकॉर्ड बना लिया। इन्हें इतिहासकार किस रूप में विश्लेषित करेंगे, यह समय बताएगा। उनके मुख्यमंत्री बनने से कहीं खुशी है तो कहीं ग़म भी है। ऐसे में जगदेव प्रसाद की याद बरबस आ जाती है।
सन् 1967 में जगदेव प्रसाद सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर कुर्था विधानसभा से विधायक बने। लेकिन मंत्रिमंडल में पिछड़े वर्ग को उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिलने पर शोषित दल बनाया और सरकार गिराकर 1968 में पहली बार शोषित दल की सरकार बनाया। इसमें सतीश प्रसाद सिंह और फिर बी.पी. मंडल मुख्यमंत्री बने। जगदेव प्रसाद उप-मुख्यमंत्री बने थे। बिहार के इतिहास में पहली बार पिछड़े वर्ग को भागीदारी मिली। वे पिछड़े और दलित उत्थान के लिए आंदोलन करते थे। बाद में उत्तर प्रदेश के पूर्व वित्त मंत्री महामना राम स्वरूप वर्मा जी के साथ मिलकर शोषित समाज दल बनाया। शोषित समाज दल देश का पहला राजनीतिक दल बना जिसमें सवर्ण का प्रवेश निषिद्ध था।
उन्होंने दल का लक्ष्य निर्धारित किया कि शोषितों का राज, शोषितों द्वारा और शोषितों के लिए। इससे एक बड़ा फायदा यह हुआ कि वामपंथी समेत सभी दलों में पिछड़े और दलित को जगह मिलने लगी। हालांकि वे वहां नीति निर्धारकों में नहीं रहे। भले वे गुलामी ही करते रहे, लेकिन पद मिलता गया। तमाम ऊंची जातियों में चर्चा का विषय बना और 5 सितंबर को आंदोलन करने के क्रम में जगदेव प्रसाद की हत्या कर दी गई। पहले तो दूरदर्शी राजनीति के तहत ऊंची जाति के लोग कांग्रेस की ओर अग्रसर हुए लेकिन बाद में वे परिस्थिति को भांप कर भाजपा की ओर अग्रसर हो गए। लेकिन पिछड़े वर्ग की राजनीति करने वाले कई राजनीतिज्ञ अपने व्यक्तिगत स्वार्थ, अवसरवाद और सिद्धांतहीन राजनीति के चक्कर में पिछड़े वर्ग को गर्त में धकेल दिया।
जब कहा गया कि दस का शासन नब्बे पर नहीं चलेगा तो इस पर पिछड़े वर्ग के राजनेताओं द्वारा अमल किया जाना चाहिए था। लेकिन पिछड़े वर्ग की राजनीति करने वाले नीति-सिद्धांत को दरकिनार करके वे भी ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद के झांसे में आ गए। जो भी सरकार में रहे, उन्होंने देश की जनता को मुफ्तखोरी की आदत डाल दी। इस बार दस हजार रुपए जीविका के माध्यम से महिलाओं को दिया गया। वृद्धा एवं विधवा पेंशन बढ़ाया गया। इस कारण अधिकांश मतदाता तत्काल लाभ के चक्कर में फंसकर दुश्मन को ही दोस्त समझने की भूल करने लगे और भाजपा-जदयू को अपना कीमती वोट देकर इस चुनाव में एनडीए को विजयी बना दिया। इसका दुष्परिणाम क्या होगा, यह बाद में पता चलेगा।
शोषित समाज दल के संस्थापक अध्यक्ष राम स्वरूप वर्मा अक्सर कहा करते थे कि अभी अर्जक समाज जो शोषित हैं, उन्हें असली मित्र और शत्रु की पहचान नहीं हो सकी है। वे जनसंख्या के आधार पर आरक्षण की मांग करते रहे। डॉ. आंबेडकर के साहित्य को सभी पुस्तकालयों में रखवाने, कृषि क्रांति करने, कृषि आधारित उद्योगों को बढ़ावा देने, मानववादी एक समान, निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा लागू करने आदि कई मांगों को लेकर आंदोलन करते रहे। सामाजिक व सांस्कृतिक परिवर्तन करने के लिए अर्जक संघ को बढ़ावा देते रहे। उनका मानना था कि बगैर सामाजिक परिवर्तन के राजनीतिक परिवर्तन अर्थहीन है। सामाजिक क्षेत्र में मानववाद और राजनीतिक क्षेत्र में समाजवाद लाने से ही हमारी उन्नति होगी। यह सभी को बताने की जरूरत है।
राजद के तेजस्वी यादव को जगदेव प्रसाद के राजनीतिक फॉर्मूले का गहन अध्ययन करके नए ढंग से राजनीति की शुरुआत करनी चाहिए। साथ ही बिहार के पिछड़े, दलित, आदिवासी और मुसलमानों को सही दोस्त और दुश्मन की पहचान करनी चाहिए।
(संपादन : नवल/अनिल)