हर साल 5 नवंबर को विश्व मछुआरा महिला दिवस मनाया जाता है। आज हर कोई मछुआरा महिला अधिकार दिवस की बधाई तो दे रहा है। लेकिन सवाल है कि महिला आंदोलनों में और जन आंदोलनों में मछुआरा महिलाएं और उनका नेतृत्व कहां हैं? उनके सवाल आज भी नजर अंदाज क्यों किए जा रहे हैं?
यह ठीक है कि विश्व स्तर पर मछुआरा महिलाएं संगठित हुई हैं। वे लड़ रही हैं, लेकिन क्या उनका संघर्ष केवल वैश्वीकरण विरोध, तटीय नियमन अधिनियम, विस्थापन और पुनर्वास तक सीमित है? क्या भारत की मछुआरा महिलाओं के मछुआरा महिला होने के नाते जो अन्य महिलाओं से हटकर सवाल है, उन पर किसी ने ध्यान दिया है? ऊंची जातियों के नारीवादी इनके सवालों को लेकर विदेश में रिसर्च पेपर लिखकर पर्यावरणवादी कहलाती रही हैं। लेकिन मछुआरा महिलाए कहां हैं?
इस समुदाय के सांस्कृतिक संघर्ष को जाति-आधारित उत्पादन प्रणाली के रूप में हम सब कब देखना प्रारंभ करेंगे? क्या कोली गीत सिर्फ सुनने, मनोरंजन हेतु या मंच पर डांस प्रदर्शन के लिए रचे या गाए गए हैं?
पूर्णिमा मेहर के रूप में एक नाम मछुआरा महिला नेतृत्व के तौर पर हमें पता है, क्योंकि वे समाजवादी संगठन से जुड़ी रही हैं। उन्होंने सैकड़ों मछुआरा महिलाओं को संगठित किया। लेकिन अन्य आंदोलनों के लोग उन सभी स्त्रियों के बारे में नहीं जानते।
पूर्णिमा मेहर ने अपना जीवन मछुआरों को संगठित करने में लगाया, अभी वे लगभग सत्तर वर्ष की है। उनके साथ और उनके अलावा जो मछुआरा महिलाएं अब पचास-साठ की उम्र की हैं, संगठन बना रही हैं। क्या उसके बारे में किसी स्त्री आंदोलन ने खबर रखी? ऐसा इसलिए है क्योंकि तथाकथित जन आंदोलन वास्तव में केवल एक नेतृत्व, एक व्यक्ति और एक वर्ग के प्रतिनिधित्व पर केंद्रित हैं। बाकी लड़नेवाली सभी महिलाएं इनके लिए महज भीड़ का हिस्सा हैं। अपना शक्ति प्रदर्शन दिखाने के लिए।
क्या इसलिए कि ये महिलाएं केवल वर्गीय रोजगार अधिकारों के लिए आंदोलन नहीं करतीं, इसलिए उन्हें महिला आंदोलन ने नजर अंदाज किया है? महिला आंदोलन की ब्राह्मणवादी महिलाएं प्याज-लहसुन से लेकर मछली और मटन तक से परहेज रखती है। इसलिए मछली या मांस बेचकर आजीविका अर्जित करनेवाली इन महिलाओं को महिला आंदोलनों ने परिधि से बाहर रखा। देखा जाय तो सवर्ण जिन दलितों को अछूत मानते हैं, मछुआरे उनसे भी अधिक अछूत हैं।

जब तक हम जाति-आधारित उत्पादन व्यवस्था और जेंडर के सवाल को एक-दूसरे से जोड़ कर विश्लेषण नहीं करेंगे तब तक जाति, लिंग भाव और उत्पादन व्यवस्था में ब्राह्मणवाद कैसे घुसा है, समझ ही नहीं पाएंगे। समझ नहीं पाएंगे कि आरएसएस और ब्राह्मणवादी लोग ओबीसी जातियों के पेट की नली को कहां और कैसे दबाते हैं। जब तक यह नहीं समझेंगे कि मछुआरा सहित अन्य ओबीसी, विमुक्त जनजाति की महिलाओं के वर्गीय अधिकार आरक्षण और जाति से कैसे जुड़े हैं, तब तक इन महिलाओं का संघर्ष महिला संघर्ष नहीं माना जाएगा।
भारत का महिला आंदोलन आज तक लगभग 70 प्रतिशत मांसाहारी, मछली खाने वाली और उत्पादन-आधारित महिलाओं के अधिकारों की उपेक्षा करता आया है। यही सच्चाई है, क्योंकि इनका नेतृत्व मांस-मछली से परहेज रखनेवाली शाकाहारी ब्राह्मणवादी मानसिकता की उच्चवर्णीय महिलाओं के हाथों में है।
इसलिए सोचिए कि क्यों भारत की मछुआरा महिलाओं को उच्च शिक्षा और नेतृत्व के अवसर नहीं मिलते? जैसे वे पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, जापान, थाईलैंड, दक्षिण कोरिया, चीन, फिलिपींस, वियतनाम और दक्षिण अफ्रीका आदि देशों में हमें दिखाई देता है।
वर्ल्ड फिश वर्कर्स फोरम में भारत की कितनी मछुआरा महिलाएं हैं? जो हैं, क्या वे मछुआरा समुदाय से हैं? या उनको संगठित करनेवाली या उनपर रिसर्च करनेवाली खुद को भद्र कहनेवाली महिलाएं है?
ऊपर मैंने जिन देशों के नाम गिनवाए, उन देशों में मछुआरा महिलाएं स्वयं नेतृत्व करती हैं, क्योंकि वहां के मछुआरा महिला आंदोलन तथा कथित उच्च जाति के नेतृत्व से नियंत्रित नहीं हैं।
अगर सांसद महुआ मोइत्रा जैसी उच्च जाति की प्रतिनिधि राजनीति में केवल मांसाहार करने वाली देवी का जिक्र करने भर से संसद से बाहर निकाल दी जाती है, उस तरह के शाकाहारी राजनीतिक दौर में हम हाशिए पर रही मछुआरा महिलाओं को राजनीति और समाज परिवर्तन में कब और कैसे स्थान देंगे?
और जब मैं इन सवालों को उठाती हूं तो लोग मुझसे पूछते हैं कि तुम महिला आंदोलन या जन आंदोलन की खामियां ही क्यों दिखाती हो? और मेरा सवाल होता है कि क्या ये सवाल एक लोकतांत्रिक विमर्श के विषय नहीं हैं? क्या आंदोलनों की मुख्य धारा हाशिए पर के समुदायों के नेतृत्व के रूप में उन्हें हमेशा अज्ञानी, और शिकार, विक्टिम के रूप में देखेगी और दिखाएगी? क्या ये आंदोलनों की अप्रत्यक्ष रूप से सेंसरशिप नहीं है?
मांस-मछली खाना उनकी रोज के जीवन का हिस्सा है। इसी पर उनकी आजीविका आधारित है। इन्हें मंदिर मस्जिद के मुद्दों का रंग देना बंद कीजिए। मछुआरा, कसाई या खटीक, शिकार करने वाले आदिवासी, विमुक्त, चमार, मांग, ढोर या मातंग आदि समुदायों के प्रति हम असंवेदनशील क्यों है? क्या मांसाहार पर जब बात ओबीसी या जातिगत शूद्र महिलाओं की आती है, तब संवेदनशीलता कहां चली जाती है?
लगभग सभी मछुआरे ओबीसी में आते हैं, जैसे कि 90 प्रतिशत किसान भी ओबीसी में आते है। लेकिन किसान महिला, असंगठित मज़दूर महिला या मछुआरिन के नाम पर वर्गीय संगठन बनाकर उनकी उत्पादक जाति के आधार पर अस्मिता और अस्तित्व को वामपंथी वर्ग आधारित स्त्रीवादियों ने नकार दिया है। इसलिए भारत में मछुआरा संगठनों के राष्ट्रीय नेतृत्व में उच्च जाति की महिलाएं (केरल और बंगाल को छोड़कर) दिखाई नहीं देतीं। इसकी वजह यह है कि मछली बेचना या खाना मांसाहार की श्रेणी में आता है, और अधिकांश उच्चवर्णीय महिला नेता स्वयं को शाकाहारी घोषित करती हैं।
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित महिला आंदोलन के पचास वर्ष पूर्ण होने के अवसर पर महाराष्ट्र राज्य स्त्री मुक्ति परिषद गठित की गई। इसमें कई सारे स्त्री संगठन शामिल हैं, लेकिन बहुत सारे समुदायों की महिलाओं का इनमें जिक्र भी नहीं और महिला आंदोलन ने इनके साथ या इनके पक्ष में कार्य नहीं किया। रिसर्च जरूर किया क्योंकि इनके नाम पर फंडिंग मिल सकता है और बहुत सारी ऐसे समुदाय की महिलाओं को शामिल किए बिना, उनकी निर्णय प्रक्रिया में सहभागिता के बिना उनके नाम पर फंडिंग लेने वाले एनजीओ का निर्माण हुआ है। इन में कई महिला संगठन भी हैं। इसलिए सवाल है कि कितनी मछुआरा महिलाएं महिला संगठनों की सदस्य हैं या नेतृत्व में है?
(संपादन : नवल/अनिल)
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