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यूपी-बिहार के यादवों तथा सपा-राजद से ऊंची जातियों और भाजपा को इतनी नफरत क्यों है?

इनके खिलाफ जो यूपी-बिहार में पूरा माहौल खड़ा किया गया है, जो नॅरेटिव रचा गया है और रचा जाता है, इसमें ऊंची जातियों और उसकी पार्टी-संगठन भाजपा-आरएसएस की बड़ी भूमिका है। उन्हें लगता है कि यदि ये दो पार्टियां न होतीं, तो पूरे हिंदी पट्टी पर उनका एकछत्र वर्चस्व होता। बता रहे हैं डॉ. सिद्धार्थ रामू

उत्तर प्रदेश और बिहार में दो सामाजिक समूह ऊंची जातियों और उनके प्रतिनिधि संगठन भाजपा के सबसे अधिक निशाने पर हैं। पहला यादव और दूसरा आंबेडकरवादी दलित। फिलहाल यहां मैं उत्तर प्रदेश-बिहार के यादवों के प्रति इन दोनों प्रदेशों के ऊंची जातियों और वर्तमान में उनके प्रतिनिधि राजनीतिक संगठन भाजपा के नफरत के कारणों को रेखांकित करने की कोशिश कर रहा हूं।

पहले राजनीतिक कारणों पर विचार करते हैं। सबसे पहले तात्कालिक राजनीतिक कारण की बात। उत्तर प्रदेश और बिहार में लोकसभा की कुल 120 सीटें हैं। लोकसभा की कुल सीटों का करीब 22 प्रतिशत। इन दोनों राज्यों में सपा और राजद सिर्फ दो पार्टियां ऐसी हैं, जो भाजपा को टक्कर देने की स्थिति में हैं। दोनों का नेतृत्व यादव समुदाय से आए नेताओं के हाथ में है। पिछले लोकसभा चुनाव (2024) में नरेंद्र मोदी को बहुमत से उत्तर प्रदेश में सपा ने दूर कर दिया। भाजपा को सपा ने 80 में 33 सीटों पर समेट दिया। स्पष्ट है कि भाजपा इन दोनों राज्यों में सपा और राजद को पराजित किए बिना केंद्र में अपनी सरकार नहीं बना सकती है। दूसरे शब्दों में कहें तो ये दो पार्टियां भाजपा की केंद्र की सत्ता के मार्ग की सबसे बड़ी अवरोध हैं। यही दो पार्टियां हिंदी पट्टी में भाजपा के करीब पूर्ण वर्चस्व को रोके हुए हैं।

इन दोनों प्रदेशों में ऊंची जातियां अपनी पूरी संख्या और ताकत के साथ भाजपा के साथ खड़ी हैं। पिछले लोकसभा के चुनावों में उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों के 89 प्रतिशत और राजपूतों के 80 प्रतिशत वोटरों (लोकनीति-सीएसडीएस सर्वे) ने भाजपा को वोट दिया था। इसके बावजूद भी भाजपा सपा से तीन सीट पीछे रह गई और सपा के सहयोग से कांग्रेस भी 6 सीटें जीतने में कामयाब रही। उत्तर प्रदेश में भाजपा की यह पराजय ऊंची जातियों को खुद की पराजय लगी। अयोध्या में भाजपा की हार ने तो उन्हें मर्माहत ही कर दिया था। इसी तरह बिहार में भी ऊंची जातियों का झुकाव भाजपा के प्रति है। बिहार में भाजपा की किसी तरह की जीत ऊंची जातियों को अपनी जीत लगती है। इसी तरह उसकी हार अपनी हार लगती है।

बिहार और उत्तर प्रदेश को छोड़ दिया जाए तो हिंदी पट्टी भाजपा का 2014 के बाद से अभेद्य दुर्ग बनी हुई। मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ और दिल्ली की लोकसभा की बहुलांश सीटें 2014 के बाद लगातर भाजपा जीत रही है। भले ही इनमें से कुछ राज्यों में कभी-कभी कांग्रेस अपनी सरकार बना लेती है।

उत्तर प्रदेश और बिहार भाजपा के लिए आज भी मुश्किल गढ़ बना हुआ है। इन दोनों राज्यों की विधान सभा चुनावों में भी सपा और राजद के नेतृत्व में बना गठबंधन ही भाजपा के लिए मुश्किल पैदा करता है। 2020 के बिहार विधान सभा चुनाव में राजद के नेतृत्व में बने महागठबंधन ने एनडीए को करीब-करीब हरा ही दिया था। चुनावी और प्रशासनिक तंत्र का इस्तेमाल करके उसे सत्ता से बाहर रखा गया। दोनों गठबंधनों के वोटों में सिर्फ 12 हजार का अंतर था।

साफ है कि यदि कोई पार्टी हिंदी पट्टी और वह भी यूपी और बिहार जैसे बड़ी आबादी वाले राज्य में भाजपा के लिए मुख्य राजनीतिक चुनौती है, तो वह आज की तारीख में सपा और राजद है। चूंकि वह भाजपा के लिए चुनौती हैं, इसलिए नए सिरे से हर तरह के वर्चस्व को स्थापित करने का स्वप्न देख रहे हैं। भाजपा के सबसे स्थायी कोर वोटर ऊंची जातियां यादवों को सबसे बड़ी चुनौती के रूप में देखती हैं। भाजपा और उनके स्थायी कोर वोटर किसी भी तरह इन पार्टियों और इनके नेतृत्व को खत्म या बहुत ही कमजोर कर देना चाहता हैं, क्योंकि इन दोनों पार्टियों ने वोटरों के बड़े हिस्से के राजनीतिक हिंदूकरण को भी कम-से-कम यूपी और बिहार में रोक रखा है। यह हिंदू राष्ट्र की संघ-भाजपा की दीर्घकालिक परियोजना के लिए सबसे बड़ी और ठोस बाधा है।

निर्णायक तरीके से ऊंची जातियों के राजनीतिक वर्चस्व-नियंत्रण को तोड़ा

दूसरा कारण यह है कि यूपी-बिहार की हर क्षेत्रीय पार्टी भाजपा की गोद में बैठ चुकी है सिवाय सपा और राजद के। केवल यही दो पार्टियां हैं, जिनके बारे में भाजपा को यह पता है कि उनके नेता उनकी राजनीतिक गोद में नहीं बैठेंगे और न ही इसकी संभावना लगती है। इसका सबसे बड़ा कारण तो यह है कि इन पार्टियों के बड़े और मजबूत सहयोगी मुस्लिम हैं, जिन्हें भाजपा ने खुल्लम-खुल्ला अपना दुश्मन घोषित कर रखा है। यह बहुत ही मुश्किल है कि सपा और राजद मुसलमानों के बीच अपने मजबूत राजनीतिक आधार को खोकर भाजपा की राजनीतिक गोद में बैठें और उनके साथ गठबंधन करें।

यूपी और बिहार में मुस्लिम वोट कमोबेश लंबे समय से इन पार्टियों के साथ लामबंद हैं। मुस्लिम वोटरों को लगता है कि यही पार्टियां मुसलमानों को हर तरह से हाशिए पर ढकेलने वाली और हिंदू राष्ट्र के अभियान में लगी भाजपा को इन प्रदेशों में चुनौती दे सकती हैं और दे रही हैं। यह सच भी है। जहां हिंदू पट्टी के अन्य प्रदेशों में भाजपा मुसलमानों को किनारे लगाने में कामयाब हुई है, वहीं यूपी और बिहार में इन पार्टियों के साथ जुड़कर मुसलमान एक हद तक अपना राजनीतिक वजूद बचाए हुए हैं। इन दोनों प्रदेशों में सपा और राजद के मजबूत वोट बैंक यादवों और मुसलमानों के बीच एक गहरा राजनीतिक गठजोड़ है। मुसलमानों के साथ उनकी इतनी गहरी राजनीतिक गठजोड़ इन प्रदेशों के ऊंची जाति के हिंदुओं और इनके प्रतिनिधि संगठन भाजपा को गहरे स्तर पर चुभता है। उन्हें लगता है कि यदि यह गठजोड़ न होता तो वे इन मुसलमानों को कब का और किनारे लगा चुके होते। ये पार्टियां, इनके कोर वोटर यादव और इनके नेताओं के चलते भाजपा और ऊंची जातियों को सबसे अधिक चुभती हैं।

यादव बिरादरी और इनके नेताओं के खिलाफ भाजपा के नफरत के ऐतिहासिक कारण भी हैं। इनमें से एक बाबरी मस्जिद को राममंदिर घोषित करने के राजनीतिक अभियान की मुखालफत करना है। बाबरी मस्जिद को राममंदिर घोषित करने और उसकी जगह राममंदिर बनाने के भाजपा के राजनीतिक अभियान के मार्ग में जो पार्टी और नेता निर्णायक तरीके से खड़े हुए वे यादव बिरादरी के मुलायम सिंह यादव और लालू यादव थे। मुलायम सिंह को हिंदुओं का हत्यारा तक घोषित कर दिया गया। उन्हें मुल्ला मुलायम नाम ऊंची जातियों और भाजपा ने दिया। कमोबेश यही स्थिति लालू यादव की रही है। उन्होंने राम रथयात्रा लेकर भाजपा के राजनीतिक अभियान पर निकले लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार किया। उनके पूरे अभियान का हर स्तर पर विरोध किया।

हिंदू राष्ट्र और हिंदुत्व के राजनीतिक अभियान के सामने हिंदी पट्टी में दो ही पार्टियां और नेता निर्णायक तरीके से खड़े हुए। सपा-राजद और मुलायम सिंह यादव और लालू यादव। कांग्रेस रामजन्मभूमि अभियान के पूरे दौर में ढुलमुल रही। कांग्रेस की केंद्र में सरकार के दौर में ही बाबरी मस्जिद तोड़ी गई। नरसिम्हा राव की कांग्रेसी सरकार मूकदर्शक सबकुछ देखती रही। मस्जिद को विध्वंस से रोकने के लिए कोई निर्णायक कदम नहीं उठाया। लेकिन पूरे रामजन्मभूमि आंदोलन के दौरान लालू और मुलायम भाजपा-संघ के मार्ग में खड़े रहे। कांटे की तरह चुभते रहे।

बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव व उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव

एक कारण यह भी कि यूपी-बिहार में मुलायम सिंह यादव और लालू यादव ने ही पहली बार निर्णायक तरीके से ऊंची जातियों के राजनीतिक वर्चस्व-नियंत्रण को तोड़ा। आज भले ही भाजपा के अजय सिंह बिष्ट उर्फ योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में यूपी में राजनीतिक तौर पर ऊंची जातियों के वर्चस्व-नियंत्रण की वापसी हो गई हो और बिहार में इस बार विधान सभा और मंत्रीमंडल गठन में ऊंची जातियों के वर्चस्व में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है, लेकिन मुलायम और लालू ही वे पहले नेता रहे, जिन्होंने यूपी-बिहार में ऊंची जातियों के राजनीतिक वर्चस्व को एक लंबे समय के लिए तोड़ दिया था।

ऐसा नहीं है कि मुलायम सिंह यादव और लालू यादव के पहले निम्न जातियों से आने वाला इन प्रदेशों में कोई मुख्यमंत्री नहीं बना, लेकिन वे मुख्यमंत्री निर्णायक तरीके से अपनी-अपनी पार्टियों और सरकारों के प्रमुख नहीं थे। वे इस स्थिति में नहीं थे कि जिसे चाहें टिकट दें, विधायक बनाएं, विधान परिषद सदस्य बनाएं, राज्यसभा सदस्य बनाएं और अपने मंत्रिमंडल में रखें। कोई दूसरा उनकी पार्टी या सरकार में उनके ऊपर सुप्रीमो नहीं था। ये दोनों पहले ऐसे मुख्यमंत्री थे, जो अपने मर्जी से काम कर सकते थे, निर्णय ले सकते थे, जिन पर ऊंची जातियों का कोई सीधा नियंत्रण नहीं था।

सीधे शब्दों में कहें तो इन दोनों नेताओं और इनकी पार्टियों ने यूपी-बिहार में पहली बार राजनीति पर ऊंची जातियों के राजनीतिक नियंत्रण और वर्चस्व को खत्म किया। इस ‘अपराध’ के लिए इन दोनों प्रदेशों की ऊंची जातियों ने इन्हें कभी माफ नहीं किया। भले ही यूपी में सपा-बसपा के प्रतिद्वंद्विता काल में ऊंची जातियां कभी सपा या बसपा के साथ गोलबंद हुई हों और सपा ने उन्हें खुश रखने के लिए दलितों के विरोध में कई काम किए। लेकिन ज्योंही ऊंची जातियों को भाजपा के रूप में मजबूत विकल्प मिला, वह सपा-बसपा को छोड़कर पूरी तरह भाजपा के साथ हो गईं।

नफरत के सामाजिक कारण भी हैं

यूपी-बिहार, विशेषकर यूपी के यादवों ने सिर्फ प्रदेश के स्तर पर ऊंची जातियों के राजनीतिक नियंत्रण-वर्चस्व को ही नहीं तोड़ा, बल्कि गांव, कस्बां और छोटे शहरों में नीचे के स्तर में भी ऊंची जातियों को राजनीतिक के साथ सामाजिक चुनौती दी। गांवों में ऊंची जातियों के लोग यदि किसी जाति से डरते हैं, तो वह यादव बिरादरी है। वे विभिन्न कारणों से इस स्थिति में थे कि वे ऊंची जातियों के गांवों के दंबगों-बाहुबली या इलाके बाहुबली से टकरा सकते थे। उन्हें धूल भी चटा सकते थे और कई बार चटाया भी। गांवों में प्रधानी के चुनाव में या सदस्य के चुनाव में, जिला पंचायतों के चुनाव में, नगरपालिका के चुनाव में और यहां तक कि महानगर पालिका के चुनाव में भी उन्हें चुनौती दी और पराजित भी किया। भारतीय समाज की प्राथमिक ईकाई गांवों में यादवों ने ही सबसे अधिक निर्णायक चुनौती अपरकॉस्ट को दी। उनकी मनबढ़ई का उसी भाषा-लहजे और तरीके से जवाब दिया।

हालांकि आंबेडकरवादी वैचारिकी से लैस दलित वैचारिक-सांस्कृतिक तौर ऊंची जातियों के लिए हमेशा सबसे बड़ी चुनौती रहे हैं और आज भी हैं, लेकिन उनकी भौतिक स्थिति (आर्थिक स्थिति) या कहिए कि मसल पॉवर कभी ऐसी नहीं रही कि वह ऊंची जातियों को आमने-सामने के स्थानीय टकराहट में निर्णायक चुनौती दे पाएं। लंबे समय तक दलित अपनी रोजी-रोटी के लिए और काम-धाम के लिए अपरकॉस्ट पर निर्भर थे और आज भी काफी हद तक निर्भर हैं। लेकिन यादव एक हद तक की खेती-बाड़ी और पशुपालन के चलते ऊंची जातियों पर इस कदर आर्थिक तौर निर्भर नहीं थे।

मुलायम सिंह यादव और लालू यादव के राजनीतिक उभार और सरकार में आने के चलते यादवों को काफी ताकत मिली। उन्होंने अपने शक्ति और क्षमता का इस्तेमाल करके ठेके-पट्टे, दुकान-मकान, जमीन-जायजाद, मोटर-ट्रक आदि कारोबार में अपना मजबूत दखल बनाया। ऊंची जातियों के एकछत्र नियंत्रण को आर्थिक तौर पर भी तोड़ा। इस भौतिक और राजनीतिक शक्ति के मेल से यादव इस स्थिति में थे कि वे ऊंची जातियों को आमने-सामने के संघर्ष में चुनौती दे सकें। भले ही कभी जीते तो कभी हार का सामना भी करना पड़ा। लेकिन ऊंची जातियों के लिए वॉकओवर की स्थिति खत्म हो गई।

ऊंची जातियों के वर्चस्व की सामाजिक संरचना को बदलने में यादवों की यूपी-बिहार में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। अब यह नहीं कहा जा सकता है कि इन प्रदेशों के गांवों में ऊंची जातियों का एकछत्र राज्य है। हालांकि इस स्थिति को बनाने और कायम करने में बहुत सारे संगठनों, सामाजिक समूहों और संघर्षों की भूमिका है, लेकिन यादवों ने इसे एक ठोस आधार प्रदान किया।

बौद्धिक वर्चस्व को तोड़ने में भी रही है अहम भूमिका

इतना ही नहीं, ऊंची जातियों के बौद्धिक वर्चस्व को तोड़ने में भी यादवों की एक बड़ी भूमिका रही है और अब भी है। भारतीय समाज का यह जाना-पहचाना सा सच है कि बौद्धिक दुनिया पर ब्राह्मणों के वर्चस्व को सबसे निर्णायक चुनौती फुले, आंबेडकर और पेरियारवादी दलितों-पिछड़ों से ही मिली है। पर अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) के जिस समुदाय से सबसे अधिक बौद्धिक लोग सामने आए, उसमें यादव समुदाय से आए लोग अग्रणी पंक्ति में हैं। विश्वविद्यालयों-महाविद्यालयों और साहित्य-संस्कृति और पत्रकारिता आदि की बौद्धिक दुनिया में यादवों ने ब्राह्मणवादी वैचारिकी के बरक्स बहुजन वैचारिकी या वामपंथी या लोहियावादी वैचारिकी के साथ मजबूत उपस्थिति दर्ज किया। उन्होंने ऊंची जातियों को बौद्धिक तौर पर भी चुनौती दी।

इसके अलावा ब्राह्मणवादी अनुष्ठानों और ब्राह्मण पुरोहितों के साथ यादव का संबंध दूसरे पिछड़ी जाति के किसानों से भिन्न रहा है।

उत्तर प्रदेश के गांवों में जैसा मैंने देखा है पिछड़ी जाति के अन्य किसानों की तुलना में यादव बिरादरी ब्राह्मणवादी अनुष्ठानों में ज्यादा धंसी हुई नहीं थी। हिंदू देवी-देवता उस कदर उनके जीवन में नहीं छाए थे, जैसा अन्य किसान समूहों में दिखाई देते हैं। यादव किसी धार्मिक या संस्कारगत अनुष्ठान में ब्राह्मणों को बुलाते थे, लेकिन शेष दिन उनके वर्चस्व को बिलकुल नहीं स्वीकार करते थे। जरूरत पड़ने पर पुरोहित को थप्पड़ भी देते थे। इसकी एक वजह उनका पशुचारक चरित्र है। वे उस तरह से किसान नहीं थे, जैसे अन्य पिछड़ी जातियों का अगड़ा हिस्सा था। शायद इसके चलते भी यादव जल्दी ही ऊंची जातियों के वर्चस्व से मुक्त हो पाए और उसे चुनौती दे पाए। मुलायम सिंह यादव और लालू यादव के राजनीतिक उभार और हिंदुत्व की राजनीति को निर्णायक चुनौती ने यादवों को तेजी से ऊंची जातियों के चंगुल से मानसिक तौर पर बाहर कर दिया। वे स्वतंत्र राजनीतिक-सामाजिक पहलकदमी ले लिए और आर्थिक जीवन में भी ताकतवर बने। यह इसके बावजूद भी कि यादवों के बड़े हिस्से के पास उतनी खेती नहीं थी, जितनी पिछड़े वर्ग के अन्य कई किसान बिरादरियों के पास थी।

वैकल्पिक विमर्श का अभाव

हालांकि यादव बिरादरी और उनके नेताओं द्वारा ऊंची जातियों के राजनीतिक वर्चस्व को तोड़ने और सामाजिक और एक हद तक आर्थिक वर्चस्व को चुनौती देने की दो बड़ी सीमाएं और कमजोरियां भी दिखती थीं। सबसे बड़ी सीमा यह थी कि इन दोनों राजनीतिक नेताओं (मुलायम सिंह यादव और लालू यादव) के पास ऊंची जातियों के सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक विमर्श के बरक्स कोई वैकल्पिक विमर्श नहीं था। राजनीति में उन्होंने ऊंची जातियों को इन प्रदेशों में अपदस्थ तो किया, लेकिन तमिलनाडु के बहुजन राजनीति (डीएमके या एडीएमके) की तरह वे ऊंची जातियों को सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन में वर्चस्व की स्थिति से बेदखल करने के लिए कोई वैकल्पिक विमर्श और कार्यक्रम प्रस्तुत नहीं कर पाए। इसका एक बड़ा कारण था कि उनकी वैचारिकी की जड़ें फुले, पेरियार और आंबेडकर की कौन कहे, हिंदी पट्टी के जगदेव प्रसाद, रामस्वरूप वर्मा, पेरियार ललई सिंह, त्रिवेणी संघ से भी जुड़ी हुई नहीं थीं। वे तो अपना ठीक से रिश्ता कर्पूरी ठाकुर और मंडल कमीशन से भी नहीं कायम कर पाए। इस वैकल्पिक विमर्श और कार्यक्रम के अभाव के चलते इनकी राजनीतिक पहलकदमी सीमित होती और सिकुड़ती चली गई। इसके चलते ये ऊंची जातियों को चुनौती तो दिए और दे रहे हैं, लेकिन दूसरे पिछड़ों, उसमें अति पिछड़ों और दलितों के साथ कोई मजबूत समता-न्याय और बंधुता आधारित एका नहीं कायम कर पाए। ऊंची जातियों के वर्चस्व को तोड़ने और चुनौती देने की प्रक्रिया में यह बिरादरी और इनका राजनीतिक नेतृत्व गैर-सवर्ण सामाजिक समूहों के साथ वर्चस्व और अधीनता का रिश्ता कायम करने की तरफ बढ़ा। यह जाने हुआ या अनजाने हुआ, लेकिन यह एकहद तक हुआ। इसका फायदा सबसे अधिक ऊंची जातियों ने उठाया, जो पहले ही इनके प्रति नफरत और खुन्नस से भरा हुआ था। अन्य पिछड़े वर्गों की अगड़ी जातियों की बीच की प्रतिद्वंद्विता भी यादवों के खिलाफ माहौल बनाने में भाजपा और ऊंची जातियों की मददगार साबित हुई। यह स्थापित मनोविज्ञान है कि अपने समानधर्मी के आगे बढ़ने से ज्यादा दिक्कत और ज्यादा जलन होती है, भले ही उसको पीछे ढकेलने में वर्चस्वशाली का ही साथ क्यों न देना पड़े। इसका शिकार गैर-यादव ओबीसी जातियां भी हुईं।

एंटी-यादव नॅरेटिव का निहितार्थ

इन कमजोरियों और सीमाओं के बावजूद भी यादव बिरादरी और इनके नेतृत्व वाली पार्टियां (सपा-राजद) ही ऊंची जातियों के राजनीतिक नियंत्रण को खत्म किया था। वे ही आज भी ऊंची जातियों की वर्तमान समय में प्रतिनिधि राजनीतिक पार्टी भाजपा के लिए यूपी-बिहार में सबसे बड़ी चुनौती बनी हुई हैं। वे ही हिंदुत्व की राजनीति के बेलगाम रथ को यूपी-बिहार में रोक देती हैं या रोकने की क्षमता रखती हैं। यादव बिरादरी, मुस्लिम से उनके गठजोड़ और यादवों की नेतृत्व वाली पार्टियों की हिंदुत्व की राजनीति विरोधी इस स्थिति के चलते हिंदू सवर्ण, उसका बौद्धिक-सांस्कृतिक वर्ग और उनकी पार्टी भाजपा यादवों और उनकी पार्टी से इतनी नफरत करती है। उन्हें हर तरह से कमजोर करना चाहती है। यहां तक कि उनके राजनीतिक अस्तित्व खत्म कर देना चाहती है। ऊंची जातियों का पूरा ‘अपरकास्ट इकोसिस्टम’ इनके खिलाफ काम करता है। इन्हें हर तरह से बदनाम करने की कोशिश करता है। इनको अन्य पिछड़े वर्गों, अति पिछड़ों और दलितों से पूरी तरह काट देने की रात-दिन कोशिशें करता है। हालांकि इसमें इनकी अपनी कमजोरियों की भी बड़ी भूमिका है, लेकिन इनके खिलाफ जो यूपी-बिहार में पूरा माहौल खड़ा किया गया है, जो नॅरेटिव रचा गया है और रचा जाता है, इसमें ऊंची जातियों और उसकी पार्टी-संगठन भाजपा-आरएसएस की बड़ी भूमिका है। उन्हें लगता है कि यदि ये दो पार्टियां न होतीं, तो पूरे हिंदी पट्टी पर उनका एकछत्र वर्चस्व होता। यही कारण है कि पूरा का पूरा अपरकास्ट इकोसिस्टम यादवों और उनकी पार्टियों (सपा-राजद) के खिलाफ दिन-रात काम करता है।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

डॉ. सिद्धार्थ रामू

डॉ. सिद्धार्थ रामू लेखक, पत्रकार और अनुवादक हैं। “सामाजिक क्रांति की योद्धा सावित्रीबाई फुले : जीवन के विविध आयाम” एवं “बहुजन नवजागरण और प्रतिरोध के विविध स्वर : बहुजन नायक और नायिकाएं” इनकी प्रकाशित पुस्तकें है। इन्होंने बद्रीनारायण की किताब “कांशीराम : लीडर ऑफ दलित्स” का हिंदी अनुवाद 'बहुजन नायक कांशीराम' नाम से किया है, जो राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित है। साथ ही इन्होंने डॉ. आंबेडकर की किताब “जाति का विनाश” (अनुवादक : राजकिशोर) का एनोटेटेड संस्करण तैयार किया है, जो फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित है।

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